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भारतीय प्रतिभाओं को नये मौके दे रही स्मार्टफोन गेमिंग

दुनियाभर में वीडियो गेम का प्रचलन दशकों पहले से है और अब स्मार्टफोन ने इसका प्रचलन भारत में भी बहुत तेजी से बढ़ा दिया है. साथ ही भारतीय प्रतिभाओं के लिए इस क्षेत्र में नये प्रकार के मौके भी सृजित हो रहे हैं, जो यह साबित करता है कि तकनीक से बहुत कुछ बदल रहा […]

दुनियाभर में वीडियो गेम का प्रचलन दशकों पहले से है और अब स्मार्टफोन ने इसका प्रचलन भारत में भी बहुत तेजी से बढ़ा दिया है. साथ ही भारतीय प्रतिभाओं के लिए इस क्षेत्र में नये प्रकार के मौके भी सृजित हो रहे हैं, जो यह साबित करता है कि तकनीक से बहुत कुछ बदल रहा है. किस तरह बदल रहा है देश में स्मार्टफोन गेमिंग, तकनीक से कैसे पैदा हो रहे हैं नये अवसर और क्या हैं इस दिशा में नयी चुनौतियां समेत इस मामले से जुड़े जरूरी पहलुओं को बता रहा है आज का नॉलेज..

दिल्ली : बेंगलुरु के कोरामंगला में ब्लॉगर मिथुन बलराज हर महीने एक ‘बार’ में गेमर्स और डेवलपर्स के लिए एक गेट-टूगेदर (आपस में मेल-जोल क ायम करने वाले कार्यक्रम) का आयोजन करते हैं. करीब एक वर्ष पहले जब यह अनौपचारिक आयोजन शुरू किया गया था, उस समय इसमें महज पांच या छह लोग ही आते थे, लेकिन अब इनकी संख्या 30 से ज्यादा पहुंच चुकी है.

इनमें से कुछ तो अपने गेम के बारे में चैट करते हैं कि उसे कैसे खेला जाता है, जबकि कुछ अन्य अपने प्रोजेक्ट्स के प्रोटोटाइप को दर्शाते हैं. ये सभी कुछ नये टाइटल्स की खोज में लगे रहते हैं. बलराज कहते हैं, ‘मैं हाल ही में तलवार भांजने वाला एक गेम निधोग लाया हूं. यह बहुत अच्छा है.’ बलराज आगे कुछ बोलते उससे पहले बार मालिक ने उन्हें टोकते हुए शांत रहने के लिए कहा, क्योंकि उस वक्त वहां क्रिकेट मैच चल रहा था और कुछ अन्य ग्राहक उस मैच को देख रहे थे.

नये और पुराने ‘भारत’ के बीच पैदा हो रहा इस तरह का फर्क एक ऐसे देश में प्रभावी संकेत कहा जा सकता है, जहां वीडियो गेम इंडस्ट्री ने हाल के वर्षो में कदम रखा है. हालांकि, पश्चिम के बड़े प्रकाशकों ने अपनी प्रतिभा के बूते इस संकल्पना का दोहन किया और इसे लागत के हिसाब से प्रभावी वर्कफोर्स के जरिये खास ग्राफिक्स कार्यो को अंजाम देते हुए (जैसे मॉडलिंग रियलिस्टिक रेसिंग कार्स) उसे ऐसे स्थानीय स्टूडियो में तैयार किया, जहां मूल रूप से फैक्ट्री प्रोडक्शन लाइन की तरह काम होता है. लेकिन पिछले दो वर्षो से यह देखा जा रहा है कि चीजें बदल रही हैं.

दरअसल, अमेरिका और यूरोप में उन्नतिशील स्वतंत्र डेवलपमेंट सेंस को समझते हुए या फिर उससे प्रेरणा लेकर प्रतिभाशाली और सृजनात्मक भारतीय डेवलपर्स के तौर पर एक नयी पीढ़ी का प्रादुर्भाव हुआ है. डूडल जंप, एंग्री बर्डस और कट द रोप की हिट्स की सफलता से प्रभावित ये अन्य लोगों के लिए अपनी डिजिटल संपदा नहीं तैयार करना चाहते, बल्कि ये चाहते हैं कि ये खुद अपना गेम सृजित करें.

देश में व्यापक बदलाव

अब ये खुद इस मामले में चांस ले रहे हैं और इसकी सराहना की जानी चाहिए. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि इनमें भारतीय समाज को बदलने का माद्दा है. दरअसल, अब तक किसी नये कॉन्सेप्ट की शुरुआत पर पश्चिम का एकाधिकार माना जाता रहा है, जिस मिथक को इन लोगों ने तोड़ा है. मुंबई स्थित एक स्टूडियो ‘ऑल इन ए डेज प्ले’ के सह-संस्थापक अभिनव सांघवी कहते हैं, ‘यह सत्य है कि भारत के विकसित समुदाय की शुरुआत ट्रिपल ए प्रकाशकों द्वारा आउटसोर्सिग से होती है. हालांकि, पिछले दो वर्षो में इस ट्रेंड में काफी बदलाव आया है, खासकर स्टार्टअप कम्युनिटी के उभरने से यह बदलाव व्यापक तौर पर देखने में आ रहा है.

हमारे पास फ्लिपकार्ट है, जो भारत के लिए एक तरह से अमेजन (अमेरिका की प्रसिद्ध ऑनलाइन शॉपिंग कंपनी) का दर्जा हासिल कर चुकी है. हमारे पास ओलाकैब्स है, जिसे भारत का उबर समझा जाता है. इन कंपनियों ने हमारे देश में यह दर्शाया है कि तकनीक आधारित कॉन्सेप्ट को हमारे यहां भी लोगों के बीच लोकप्रियता दिलायी जा सकती है.

इसी ने गेम डेवलपमेंट कम्युनिटी को पैदा किया है, इसलिए हम आज इससे जुड़े कई छोटे स्टूडियोज देख पा रहे हैं, जहां नये प्रकार के कारोबार से संबंधित ऐसे कार्यो को अंजाम दिया जा रहा है, जिनके बारे में पूरी तरह से यह नहीं माना जाता कि ये सफल हो ही जायेंगे और जिससे कुछ हद तक जोखिम जुड़ा रहा है. यह बात हमारे लिए इसलिए भी ज्यादा मायने रखती है, क्योंकि भारत को जोखिम लेने के मामले में पारंपरिक रूप से ऐसे समाज के तौर पर देखा जाता रहा है, जो रिस्क लेने से बचता है.’

सांघवी आगे करते हैं,‘हमें यह बताया गया था कि यदि आप किसी बड़ी कंपनी में जॉब पाने में सक्षम नहीं होंगे, तो संभवत: आपकी शादी नहीं हो पायेगी. लेकिन तकनीकी सेक्टर ने तेजी से हमारे लिए कई नये रास्ते खोल दिये हैं. स्टूडियो अब ये खुद कह रहे हैं कि तकनीक आधारित अन्य स्टार्टअप यदि अपने अस्तित्व को उभार सकते हैं तो गेमिंग के साथ ऐसा क्यों नहीं हो सकता!’

स्मार्टफोन गेमिंग इवेंट

इस नवोन्मेषी विचार को मजबूती प्रदान करने के मकसद से हाल ही में बेंगलुरू के ललित अशोक होटल में स्मार्टफोन गेमिंग इवेंट के संबंध में दो दिवसीय कॉन्फ्रेंस आयोजित किया गया.

अपनेआप में यह इस नये कॉन्सेप्ट का पहला आयोजन कहा जा सकता है, जिसमें इंटेल, अमेजन और गूगल के अलावा स्मार्टफोन गेमिंग के क्षेत्र में विशेषज्ञ समझी जानेवाली रोवियो एंड जेप्टो लैब्स जैसी बड़ी कंपनियों के प्रतिनिधियों समेत 500 से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया. मूल रूप से ये लोग यहां इसलिए जुटे थे कि किस तरह से वे इस समुदाय के नये लोगों को अपने ब्रांड से जोड़ सकें या फिर स्थानीय स्तर पर छिपी प्रतिभाओं को कैसे उभार सकें.

और इस तरह की कई सक्सेस स्टोरी हैं, जिनके बारे में अभी ज्यादा जाना-समझा नहीं गया है. इन्हीं में से एक है ‘99 गेम्स.’ यह दक्षिण भारत के उडूपि से जुड़ा है, जहां इसके डेवलपर ने घरेलू और वैश्विक बाजार में 15 टाइटल्स डेवलप किये हैं.

इन्हीं में ‘स्टार चेफ’ नाम से एक फास्ट-पैक्ड कुकिंग एक्शन गेम शामिल है, जिसके 40,000 डेली यूजर्स हैं और एक तिमाही में यह 25 फीसदी रेवेन्यू बढ़ा रहा है. एक येलो मंकी स्टूडियो है. इसके लेटेस्ट टाइटल हैं-स्लीक, टाइल-सॉर्टिग पजलर, सोशियोबॉल, जिनमें कि इंजेनियस मैप एडिटर की खासियत है, और जो इस गेम खेलने वाले को खुद ही अपना लेवल्स क्रिएट करने और उसे ट्विटर पर शेयर करने की सुविधा प्रदान करता है.

इसे बनाने वाले शैलेष प्रभु ने स्मॉल इनडाइ स्टूडियोज के ऑनलाइन कम्युनिटी के गठन में सहायता की है, जिसके अब 600 से ज्यादा सदस्य बन चुके हैं. शैलेष प्रभु कहते हैं, ‘इनडाइ (एक स्वतंत्र फिल्म कंपनी जो किसी स्थापित स्टूडियो से नहीं जुड़ी हो) की समझ ने पिछले तीन वर्षो में काफी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है.

वैश्विक मानदंडों के अनुरूप

डेवलपमेंट टूल्स के एडवांसमेंट के साथ कई स्टूडियोज ने अपनी क्षमता को बढ़ाते हुए ऐसे गेम्स बनाये हैं, जिनकी तुलना वैश्विक गुणवत्ता के मानदंडों से की जा रही है यानी उन्हें ग्लोबल क्वालिटी स्टैंडर्ड के अनुरूप माना गया है और उस रूप में स्वीकार किया जा रहा है. चेन्नई आधारित डेवलपर ग्रोल स्टूडियोज ने देश के कई कॉलेजों में गेम डिजाइन का वर्कशॉप आयोजित किया है.

पॉकेट गेमर के कॉ-ऑर्गेनाइजर ने ‘रिलायंस गेम्स’ के साथ तालमेल कायम किया है, जो एक ऐसा पब्लिशर और डेवलपर है, जिसके पास अपने अधिकार हैं और खासकर फिल्म निर्माण का लाइसेंस हासिल है.

हंगर गेम्स, कैचिंग फायर और पेसिफिक रिम की तरह स्मार्टफोन टाइ-इन्स के 70 एम से ज्यादा डाउनलोड्स देखे गये हैं. रिलायंस इंटरटेनमेंट- डिजिटल के चीफ एग्जीक्यूटिव मनीष अग्रवाल कहते हैं,‘इसे स्थानीय स्टूडियोज को बढ़ावा देने के तौर पर देखा जा रहा है.’ आगे वे कहते हैं, ‘इन चीजों में बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसे हम यात्रओं के जरिये और लोगों से बातचीत के माध्यम से इन्हें सीखने और समझने का प्रयास करते हैं. हमलोग इस इवेंट को आयोजित करने के लिए इसलिए प्रेरित हुए, क्योंकि इस मायने से भारत अब तक किसी की नजर में नहीं आया है.

जब हम किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में जाते हैं, तो वहां लोग हमें अन्य ग्रहों से आया हुआ समझते हैं. गेमिंग मार्केट के तौर पर वे केवल चीन, जापान और कोरिया आदि के बारे में सोचते हैं. भारत के बारे में तो वे सोचते ही नहीं हैं. वैश्विक स्तर पर आज जिस प्रकार से इस तरह की प्रतिभाओं को प्रोमोट किया जा रहा है, हमारे देश में ऐसा नहीं हो रहा. हमें इसे बढ़ावा देने की जरूरत है.’

(‘द गार्डियन’ से साभार)

बाजार में बढ़ रही बिक्री

पिछले वर्षो में देशभर में स्मार्टफोन की बिक्री तेजी से बढ़ रही है और इसका आंकड़ा 12 करोड़ को पार कर चुका है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2016 तक इस मामले में भारत का बाजार अमेरिका को पीछे छोड़ देगा. लोगों में इसकी चाहत बढ़ती जा रही है. डिजनी ने मुंबई में फिल्म एंड गेम डेवलपमेंट स्टूडियो स्थापित किया है तो यूबिसॉफ्ट ने पुणो में वर्ष 2008 में एक बड़ा स्टूडियो बनाया, जिसमें 300 से ज्यादा लोग काम करते हैं. दिल्ली में पिछले दो सालों से रोवियो काम कर रहा है.

क्या हैं चुनौतियां

हालांकि इन सबके बावजूद कुछ ऐसी चुनौतियों हैं, जिस कारण इन सभी को धन कमाने में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सबसे बड़ी चुनौती देश में करीब 90 फीसदी मोबाइलफोन उपभोक्ताओं का प्री-पेड सर्विसहोल्डर होना है. पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में ऑनलाइन एप्प खरीदने वालों की संख्या काफी कम है. साथ ही डाटा लोड के कारण नेटवर्क की परेशानी भी रहती है.

भारत के ज्यादातर मोबाइल इंफ्रास्ट्रक्चर 2जी स्पीड से ऑपरेट होते हैं. इसके अलावा, देश में लोगों की आमदनी इतनी नहीं है कि वे इन गेम को खरीदने के लिए ज्यादा रकम खर्च कर सकें. गूगल और एप्पल जैसी कंपनियां इसके लिए अन्य तरीके तलाश रही हैं, ताकि कस्टमर पर सीधे इसका असर नहीं हो. कुछ कंपनियों ने इसके लिए पेटीएम सरीखे थर्ड पार्टी वालेट कंपनियों वाला समाधान निकाला है, जिसके तहत भुगतान सीधे कस्टमर को नहीं करना होता है.

वीडियो गेम का सफर

दुनिया के अनेक देशों में भले ही वीडियो गेम्स काफी वर्षो से लोकप्रिय रहा हो, लेकिन भारत में स्मार्टफोन के लोकप्रिय होने के बाद से इस कारोबार को एक नयी दिशा मिली है.

भारत में इस कारोबार के उभरते हुए दौर में इसे उम्र के बंधन से परे देखा जा रहा है. यात्र के दौरान और घरों में, यहां तक कि कार्यालयों में भी लोग वीडियो गेम्स खेलते हैं. कहा जाता है कि इससे वे अपना तनाव दूर करते हैं और समय काटने का इसे अच्छा जरिया माना जाता है. दरअसल, वीडियो गेम को इलेक्ट्रॉनिक तरीके से खेला जाता है, जिसमें इंसान एक विजुअल इंटरफेस यानी वीडियो डिवाइस जैसे डिस्पले माध्यमों से टू या थ्री डाइमेंशनल गेम खेलता है. ये वीडियो गेम किसी न किसी प्लेटफॉर्म पर खेले जाते हैं. वीडियो गेम का लुत्फ आप कंप्यूटर के जरिये भी ले सकते हैं और किसी अन्य डिवाइस के माध्यम से भी.

हालांकि, वीडियो गेम्स के अब तक के सफर में बहुत सारे बदलाव देखने को मिले हैं. लेकिन इसकी शुरूआत वर्ष 1947 के आसपास माना जाता है. इसके लिए विभिन्न तरीकों के डिस्पले डिवाइस का उपयोग किया जाता था. इसी कड़ी में ‘सीआरटी एम्युजमेंट डिवाइस’ का नाम लिया जा सकता है. इसके बाद वर्ष 1951 में ‘फेस्टिल ऑफ ब्रिटेन’ में ‘निमरॉड’ कंप्यूटर आया, जबकि वर्ष 1952 में एलेक्जेंडर ने ‘ओक्सो’ नामक टिक-टैक-टो वीडियो गेम बनाया. विलियम बॉथम द्वारा वर्ष 1958 में डिजाइन किये गये वीडियो गेम ‘टेनिस फॉर टू’ ने इस उद्योग में नयी क्रांति की शुरुआत की.

वर्ष 1962 में एमआइटी के ही शोधकर्ताओं ने पहले कंप्यूटर आधारित वीडियो गेम का विकास किया, जिसे ‘स्पेसवार’ नाम दिया गया था. इसी विकास यात्र में शामिल है 1971 में विकसित पहले व्यावसायिक आर्केड गेम जिसे ‘कंप्यूटर स्पेस’ नाम दिया गया था. इस गेम की लोकप्रियता हाल के वर्षो तक कम नहीं हुई थी.

घरेलू टीवी से जुड़ा वीडियो गेम

इसके बाद महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई वर्ष 1972 में, जब पहले होम कंसोल की शुरुआत हुई. ‘ओडिसी’ नाम के इस गेम को लॉन्च किया मेग्नावॉक्स ने. यह पहला वीडियो गेम था, जिसे घर के टेलीविजन से जोड़ा जा सकता था. इसमें कुल 12 गेम थे. यह वीडियो गेम राफ बॉयर के ब्राउन बॉक्स पर आधारित था. बॉयर को वीडियो गेम्स का पिता कहा जाता है. इस दशक के अंतिम वर्ष में इस इंडस्ट्री में बड़ा बदलाव आया, जब जापान की एक कंपनी ‘नामको’ ने ‘पक-मैन’ जैसे वीडियो गेम का इजाद किया. यह गेम व्यावसायिक तौर पर बहुत सफल रहा. इसके एक लाख यूनिट बिक गये. नब्बे के दशक के लगभग अंतिम दौर में ‘गेम बॉय’ अब लोगों के हाथों में था. इस हैंड हैंडल्ड गेम को आसानी से पॉकेट में रखा जा सकता था. यह वीडियो गेम भी बहुत सफल रहा.

इस उद्योग में उस वक्त मंदी का दौरा आया, जब वर्ष 1983 में वीडियो गेम इंडस्ट्री में बहुत अधिक गिरावट आयी. इसे इस इंडस्ट्री के क्रैश के रूप में समझा जाता है. लेकिन 1983 में ही कंसोल गेम्स के तीसरे जेनरेशन की शुरुआत हुई. इस दौर में ही गेम पैड और जॉयपैड को जॉयस्टिक्स, पैडल्स व कीपैड्स ने बदल दिया गया. 1990 के दशक में ही वीडियो गेमिंग में नयी और इनोवेटिव चीजें आयीं.

इसी दौर में थ्रीडी ग्राफिक्स ने लोगों के गेमिंग अनुभव को बदल दिया. मोबाइल फोन पर गेमिंग की शुरुआत नोकिया ने की. इसके 6610 मॉडल में पहली बार वर्ष 1997 में ‘स्नेक’ गेम को इंस्टॉल किया गया. इसके बाद लगभग सभी बड़ी मोबाइल फोन निर्माता कंपनियों ने गेम्स के साथ नये फोन को लॉन्च किया.

शुरुआती दौर में मोबाइल फोन गेम स्क्रीन के छोटे होने, मेमोरी स्पेस के कम होने और बैटरी कम चलने की वजह से बेहद सीमित रहे. वर्ष 2003 के बाद विभिन्न प्रकार के आकर्षक गेम्स को मोबाइल फोन में इंस्टॉल किया गया. इसमें पजल और वचरुअल पेट प्रमुख हैं. इसके बाद ऑनलाइन गेम्स में हुए विकास ने नयी संभावनाओं के द्वार खोले हैं.

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