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खुद की बनायी मशीनों से हार जायेगा मनुष्य!

विनोद खोसला कंप्यूटर तकनीक की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है. सन माइक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक रहे खोसला ने कंप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी. उनकी नयी कंपनी खोसला वेंचर्स सस्टेनेबल एनर्जी और सूचना तकनीकी निवेश के क्षेत्र में एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय कंपनी […]

विनोद खोसला कंप्यूटर तकनीक की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है. सन माइक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक रहे खोसला ने कंप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी. उनकी नयी कंपनी खोसला वेंचर्स सस्टेनेबल एनर्जी और सूचना तकनीकी निवेश के क्षेत्र में एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय कंपनी है. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स के लिए एक लेख लिखा है, जिसमें बताया है कि तकनीक के विकास के साथ दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है, कि उसका आसानी से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. अपने इस लेख में खोसला ने मनुष्य और उसकी सृजनशीलता तक के सामने पेश आनेवाली गंभीर चुनौतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है.

खोसला लिखते हैं कि आनेवाले समय में और भी बड़ी-बड़ी तकनीकी क्रांति होने वाली हैं. इसमें जिस एक चीज का मनुष्य पर सबसे अधिक असर पड़ेगा, वह है ऐसी प्रणालियों का निर्माण, जिनमें मनुष्य के विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होंगी. जैसे, पांच साल पहले तक गाड़ी चलाना कंप्यूटर के लिए मुश्किल चीज समझी जाती थी, लेकिन अब यह एक सच्चई है.

खोसला लिखते हैं कि मैं नौकरियों को बचाने के लिए तकनीकी बदलाव को धीमा करने की वकालत नहीं कर रहा हूं, लेकिन इस बात पर चिंतित हूं कि मशीनी ज्ञान की क्रांति आय में असमानता बढ़ायेगी और यह असमानता एक बिंदु के बाद सामाजिक तनाव पैदा करेगी. मुङो आशंका है कि एक दिन सॉफ्टवेयर सिस्टम बेहतरीन मानवीय निर्णय और कौशल क्षमता से आगे निकल जायेगा, तब शिक्षा के माध्यम से व्यक्तिगत विकास के रास्ते बंद हो जायेंगे, जो पहले हमेशा कार्यदक्षता के लिए खुले होते थे. यहां तक कि बेहतर शिक्षा और कौशल के बावजूद अधिकतर मनुष्य बुद्धिमान सॉफ्टवेयर सिस्टम को पराजित नहीं कर सकेंगे. यह संभावना ज्यादा लगती है कि मनुष्यों की मशीनों के साथ यह दौड़ उसकी हार में बदलेगी. कामों के क्षेत्र में कुछ उसी तरह का बदलाव आ रहा है, जैसे 20वीं सदी की शुरुआत में हम कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से उद्योगों की तरफ बढ़े थे. पहले हमने शारीरिक श्रम को इंजन से खोया और अब शायद हम मानसिक श्रम की लड़ाई भी हार जाएं. हमारे पास देने को क्या है- सर्जनात्मकता, लेकिन मशीनें शायद उसमें भी मनुष्यों से बेहतर कर जाएं.

खोसला लिखते हैं, लगता है कि किसी भी पेशे के 10-20 फीसदी लोग, चाहे वह कंप्यूटर प्रोग्रामर हों, इंजीनियर, संगीतकार, एथलीट या कलाकार, बेहतर करते रहेंगे, लेकिन सवाल यह है कि बाकी 80 फीसदी का क्या होगा. क्या वे कंप्यूटर सिस्टम से प्रभावी तरीके से प्रतियोगिता कर पायेंगे? खोसला बताते हैं कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी.

विनोद खोसला के इस निष्कर्ष पर अपनी एक टिप्पणी में वरिष्ठ स्तंभकार अरुण माहेश्वरी सवाल उठाते हैं कि श्रमिक और पूंजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है, लेकिन जब किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य ही नहीं रहेगा, तो फिर पूंजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा? यह सवाल गंभीर चिंतन की मांग करता है.

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