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राजघराने के समय जनता के टैक्स का एक भाग पूजा पर खर्च होता था

सरायकेला : सरायकेला में दुर्गा पूजा का आयोजन करीब 385 सालों से हो रही है. सन् 1620 में राजा विक्रम सिंह ने सरायकेला रियासत की स्थापना की थी. राजघराने ने स्थानीय जनता के सहयोग से राज्य स्थापना के 10-12 बाद ही राजबाड़ी परिसर में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत की. सरायकेला के राजा प्रताप […]

सरायकेला : सरायकेला में दुर्गा पूजा का आयोजन करीब 385 सालों से हो रही है. सन् 1620 में राजा विक्रम सिंह ने सरायकेला रियासत की स्थापना की थी. राजघराने ने स्थानीय जनता के सहयोग से राज्य स्थापना के 10-12 बाद ही राजबाड़ी परिसर में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत की. सरायकेला के राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव बताते हैं कि उस वक्त दुर्गा पूजा के आयोजन के लिये राजकोषागार से राशि खर्च होती थी. दुर्गा पूजा के लिये जनता से वसूले टैक्स का इस्तेमाल होता था.

टैक्स के रूप में वसूल की गयी राशि के एक हिस्से से पूजा होती थी.

आज भी उसी परंपरा के साथ होती है पूजा: वर्ष 1947 में देसी रियासतों का विलय भारतीय संघ में हुआ, तब स्थानीय लोगों की ओर से पूजा कमेटी गठित की जाने लगी. हालांकि लोगों ने परंपरा को कायम रखते हुए पूजा कमेटी का अध्यक्ष राजघराने के प्रमुख यानी राजा ही रखा. वर्तमान में राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव पूजा कमेटी के अध्यक्ष हैं. वर्तमान में पूजा के आयोजन में खर्च होने आम लोगों के सहयोग से हो होता है.
भव्य तरीके से होती है मां दुर्गा की पूजा: शुरुआत में मां भगवती की पूजा छोटे पैमाने पर होती थी, लेकिन कालांतर में यह पूजा व्यापक पैमाने पर होने लगी. स्थानीय लोगों के सहयोग से यहां मां के भव्य मंदिर का भी निर्माण कराया गया है. यहां षष्ठी यानि बेलवरण के साथ पूजा शुरू होती है जो विजयादशमी को समाप्त होती है.
तांत्रिक पद्धति से होती है पूजा :पब्लिक दुर्गा पूजा मंदिर में मां की पूजा तांत्रिक पद्धति से होती है. षष्ठी तिथि को पूजा शुरू होने के दिन से नवमी तक बकरा व भैंसे की भी पूजा होती है. मंदिर में तीन दिनों तक चंडीपाठ चलता है. यहां बलि की भी प्रथा रही है, जिसके तहत अब माता के चरणों में कूष्मांड (भतुआ) की बलि चढ़ायी जाती है. अष्टमी व नवमी की संधिवेला में कूष्मांड की बलि चढ़ाई जाती है. मान्यता के अनुसार कूष्मांड की बलि नरबलि के समान है, इसलिए यहां कूष्मांड की बलि चढ़ाई जाती है.

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