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विश्वविद्यालय बचे रहें

किसी भी लोकतांत्रिक देश की उन्नति में उसके विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका होती है. विश्वविद्यालय मेधा, शोध और उदात्त विमर्श के आधार पर ज्ञानार्जन करने के प्रमुख केंद्र होते हैं. देश के कुछ प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं की हालिया घटनाओं ने सांस्थानिक स्वायत्तता, वैचारिक स्वतंत्रता और शैक्षणिक वातावरण जैसे मसलों पर व्यापक बहस का माहौल बना […]

किसी भी लोकतांत्रिक देश की उन्नति में उसके विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका होती है. विश्वविद्यालय मेधा, शोध और उदात्त विमर्श के आधार पर ज्ञानार्जन करने के प्रमुख केंद्र होते हैं. देश के कुछ प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं की हालिया घटनाओं ने सांस्थानिक स्वायत्तता, वैचारिक स्वतंत्रता और शैक्षणिक वातावरण जैसे मसलों पर व्यापक बहस का माहौल बना दिया है.
एक तरफ ये बहसें जहां तार्किक तौर-तरीकों से हो रही हैं, वहीं दूसरी तरफ हिंसा और दमन तथा बेजा राजनीतिक दखल का भी सहारा लिया जा रहा है. इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने चिंता व्यक्त करते हुए विश्वविद्यालयों को उदारवादी मूल्यों के केंद्र तथा स्वतंत्र और आलोचनात्मक ज्ञान के गढ़ के रूप में बचाने का आह्वान किया है. आलोचनाओं और असहमतियों के साथ ही ज्ञान का विस्तार संभव है. उन्होंने इनके प्रति सहिष्णु होने की बात कही है.
इसी महीने के शुरू में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी रेखांकित किया था कि विश्वविद्यालयों में विरोध और बहस के लिए जगह होनी चाहिए. कुछ दिनों पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के आंदोलन के विरुद्ध प्रशासन द्वारा दायर याचिका की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि कहीं कुछ गलत हो रहा है, तभी छात्र आंदोलन करने के लिए बाध्य हो रहे हैं.
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या, जेएनयू में छात्रों पर राजद्रोह के मुकदमे, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्रों के अधिकारों पर अंकुश, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रशासन की कठोरता, दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों-शिक्षकों पर हिंसक हमले जैसे प्रकरण यही इंगित कर रहे हैं कि विचारधारात्मक मतभेदों को सकारात्मक प्रक्रिया से निपटाने की जगह जोर-जबर का रवैया अपनाया जा रहा है. चूंकि अधिकतर मामले केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए हैं, इन्हें सुलझाने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से समुचित पहल की जानी चाहिए. अफसोस की बात है कि अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. सरकार की कोशिशों से ऐसे संदेश नहीं जाने चाहिए कि वह संस्थानों की वैधानिक और वैचारिक स्वायत्तता को सीमित करने के उद्देश्य से प्रेरित है.
उच्च शिक्षा के इन ठिकानों को अन्य सरकारी विभागों या उपक्रमों की तरह नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए. उपराष्ट्रपति ने अकादमिक आजादी को बचाने के लिए विश्वविद्यालयों को सभी कानूनी उपायों के इस्तेमाल की भी सलाह दी है. उम्मीद है कि विश्वविद्यालयों के साथ सरकार, छात्र और शिक्षक भी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के संदेश पर अमल करेंगे. संस्थानों को संकीर्णता से बचाने की इस जद्दोजहद में सजग नागरिकों को भी आगे आने की जरूरत है. विश्वविद्यालय बेहतर होंगे, तो देश का भविष्य भी संवरेगा.

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