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आतंक के विरुद्ध साझा संघर्ष जरूरी

कनाडा में संसद भवन और राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर हुए हमलों ने एक बार फिर आतंक के वैश्विक खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है. प्रारंभिक जांच रिपोर्टो में हमलावर के इसलामिक स्टेट की विचारधारा से प्रभावित होने के संकेत मिले हैं. कनाडा पुलिस के अनुसार, पिछले कुछ वर्षो में आतंक से जुड़े राष्ट्रीय […]

कनाडा में संसद भवन और राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर हुए हमलों ने एक बार फिर आतंक के वैश्विक खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है. प्रारंभिक जांच रिपोर्टो में हमलावर के इसलामिक स्टेट की विचारधारा से प्रभावित होने के संकेत मिले हैं.
कनाडा पुलिस के अनुसार, पिछले कुछ वर्षो में आतंक से जुड़े राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित 63 मामले सामने आये हैं, जिनमें 90 संदिग्ध लोग शामिल हैं. इनमें देश के बाहर कथित जिहाद में शामिल होने की मंशा रखनेवाले और बाहर से लौटे आये लोग भी हैं. उल्लेखनीय है कि अरब जगत में अनेक पश्चिमी देशों के लड़ाके इसलामिक स्टेट की ओर से सक्रिय हैं. कई यूरोपीय देशों की तरह कनाडा ने भी अतिवादी विचारधारा वाले संगठनों को अपने यहां शरण दी है.
राजनीतिक शरण के नाम पर असंतुष्टों को पनाह देकर पश्चिमी देश दुनिया भर में दबाव की राजनीति भी करते रहे हैं. अब जबकि असंतुष्टों में शामिल अतिवादियों ने उन्हीं देशों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है, इन देशों को आतंकवाद पर नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है. हमारे प्रधानमंत्री ने कनाडा के साथ संवेदना प्रकट करते हुए भारतीय संसद पर पूर्व में हुए हमले का भी उल्लेख किया है. भारत आतंक से सबसे अधिक पीड़ित देशों में है. समय आ गया है कि आतंक के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष में भारत की चिंताओं को अहमियत मिले. भारत को भी इस संघर्ष में अब पश्चिमी देशों का कनिष्ठ सहयोगी बने रहने की जगह महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की कोशिश करनी होगी.
संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद पर एक वैश्विक सम्मेलन बुलाने की मांग की थी. चिंता की बात है कि अमेरिकी हवाई हमले के बावजूद सीरिया और इराक में इसलामिक स्टेट का वर्चस्व कायम है तथा वह अन्य अरब देशों में भी पहुंच बना रहा है. अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति के बावजूद तालिबान की ताकत बढ़ रही है. पाकिस्तान की शह पर अल-कायदा और उससे जुड़े गिरोह भारत को धमकियां दे रहे हैं. अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश सहित कई देश अपने राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ के कारण समुचित रूप से आतंक का सामना करने में असफल रहे हैं. आतंक मनुष्यता का शत्रु है. उसका मुकाबला मिल-जुल कर ही किया जा सकता है.

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