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गहराता कृषि संकट

हरित क्रांति के जरिये भारतीय कृषि में आमूल-चूल परिवर्तन लानेवाले डॉ एमएस स्वामीनाथन ने कहा है कि अब अन्न उपजाना लाभकारी काम नहीं रहा है. मौजूदा मुश्किलों को मॉनसून, बाजार, खरीद, मूल्य निर्धारण और आयात-निर्यात नीतियों से जोड़ते हुए उन्होंने नयी तकनीक और सार्वजनिक नीति पर ध्यान देने की सलाह दी है. हरित क्रांति ने […]

हरित क्रांति के जरिये भारतीय कृषि में आमूल-चूल परिवर्तन लानेवाले डॉ एमएस स्वामीनाथन ने कहा है कि अब अन्न उपजाना लाभकारी काम नहीं रहा है. मौजूदा मुश्किलों को मॉनसून, बाजार, खरीद, मूल्य निर्धारण और आयात-निर्यात नीतियों से जोड़ते हुए उन्होंने नयी तकनीक और सार्वजनिक नीति पर ध्यान देने की सलाह दी है. हरित क्रांति ने इस बात को साबित किया था कि यदि तकनीक, नीतियों और किसानों में सामंजस्य हो, तो खेती की समस्याओं का सामना किया जा सकता है. जब भी किसानों का असंतोष उग्र रूप लेता है, तो बहस कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के इर्द-गिर्द केंद्रित हो जाती है.
यह सही है कि तात्कालिक राहत के लिए ये उपाय जरूरी हैं, परंतु यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन मुद्दों पर ही टिके रहने से कहीं समस्या की जड़ को भुला बैठें. यह समस्या लंबे समय से गहन होती आ रही है. ऐसे में दूरदृष्टि और दीर्घकालीन पहलों की जरूरत है. देश की आबादी के दो-तिहाई हिस्से को रोजगार देनेवाले कृषि क्षेत्र में अनेक संरचनात्मक कमजोरियां हैं, जिन पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है. अनाज उत्पादन में कमाई सीमित होते जाने से कई क्षेत्रों में किसान बागवानी का रुख कर रहे हैं. वर्ष 1991-92 में फलों और सब्जियों की पैदावार अनाज से आधी थी, पर आज उनका उत्पादन अन्न को पीछे छोड़ चुका है. उनकी कीमतों में तेज बढ़त और कमी भी आम बात हो चली है. वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार कमी हो रही है.
कृषि निर्यात तेज उछाल के बाद लुढ़कता जा रहा है. हाल के महीनों में नोटबंदी ने भी काफी नुकसान पहुंचाया है. पैदावार में जो निवेश किसान करता है, उसकी भरपाई होना दूभर होता जा रहा है. इस स्थिति में केंद्र और राज्य सरकारों को कृषि अर्थव्यवस्था में बड़े परिवर्तन के प्रयास करने चाहिए. आत्महत्या, पलायन और असंतोष के मामले इसी तरह से जारी रहे, तो देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने की सारी कवायदें बेमानी हो जायेंगी. यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि किसानों के हित के उद्देश्य से बनायी गयी नीतियों का समुचित लाभ उन्हें नहीं मिल सका है.
बैंकों से कर्ज मिलने में परेशानी उन्हें महाजनों के चंगुल में धकेल रही है. इसी तरह सरकारी मंडियां भी उनका सहारा बनने में असफल रही हैं. आज हमारे सामने यह एक बड़ा सवाल है कि देश की आधी से अधिक आबादी की उपेक्षा कर हम कैसे विकास की ओर उन्मुख हो सकते हैं. यदि अब भी सरकारें नींद से नहीं जागीं, तो देश कई और मंदसौर देखने के लिए अभिशप्त होगा.

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