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Friday, March 29, 2024

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फटे जूते और टूटे भाले से कैसे लायेंगे मेडल

जीवेश4रांची jivesh.singh@prabhatkhabr.in राज्य में एथलेटिक्स को बढ़ावा देने के लिए चल रहे चार आवासीय एथलेटिक्स सेंटर भगवान भरोसे हैं. गुमला, महुआडांड़ (लातेहार), साहेबगंज व हजारीबाग में लड़कियों व लड़कों के लिए संचालित इन सेंटरों में सालों से किट नहीं है. खाने के पैसे भी कहीं महीनों से, तो कहीं सालों से नहीं मिल रहे. कहीं […]

जीवेश4रांची
jivesh.singh@prabhatkhabr.in
राज्य में एथलेटिक्स को बढ़ावा देने के लिए चल रहे चार आवासीय एथलेटिक्स सेंटर भगवान भरोसे हैं. गुमला, महुआडांड़ (लातेहार), साहेबगंज व हजारीबाग में लड़कियों व लड़कों के लिए संचालित इन सेंटरों में सालों से किट नहीं है. खाने के पैसे भी कहीं महीनों से, तो कहीं सालों से नहीं मिल रहे. कहीं मैदान की स्थिति ठीक नहीं, तो कहीं जरूरी उपस्कर नहीं हैं. जमीन पर सोकर और फटे जूते, ड्रेस तथा जर्जर भाले के बल मेडल के लिए संघर्ष कर रहे यहां के 100 बच्चे. लगभग सभी बच्चे गरीब परिवार से हैं.

कई के तो माता-पिता भी नहीं, इस कारण वे घर से भी जूते या ड्रेस नहीं खरीदवा पा रहे. बता दें कि खनिज व जंगल के मामले में संपन्न झारखंड में खिलाड़ियों की भी कमी नहीं. इसी कारण एकीकृत बिहार में ही इस इलाके (तत्कालीन छोटानागपुर) के गुमला में 1976 और लातेहार के महुआडांड़ प्रखंड में 1978 में आवासीय एथलेटिक्स सेंटर खोले गये थे. अलग राज्य बनने के बाद हजारीबाग और साहेबगंज में भी सेंटर की स्थापना की गयी. इनमें से हजारीबाग व महुआडांड़ सेंटर लड़कियों और गुमला व साहेबगंज लड़कों के लिए है. प्रत्येक सेंटर में 25-25 बच्चे प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं.


एक समय था, जब इन सेंटरों की तूती बोलती थी. यहां की व्यवस्था भी शानदार होती थी, पर आज हाल बेहाल है. आज खाने, रहने व प्रशिक्षण के उपस्कर की व्यवस्था में फंसे खिलाड़ियों में निराशा है. प्रदर्शन पर भी असर पड़ा है. एकीकृत बिहार की एथलेटिक्स टीम में सबसे ज्यादा खिलाड़ी महुआडांड़ के इलाके से होते थे और वही मेडल भी लाते थे. इस कारण किसी जिला मुख्यालय की जगह तत्कालीन अधिकारियों ने महुआडांड़ में सेंटर खोला था. उस समय वहां की खिलाड़ी नीलमणि खलखो ने क्रास कंट्री में तीन बार देश का प्रतिनिधित्व किया था, तो मारिया गोरेटी खलखो ने जेवलिन में चार नेशनल गोल्ड और एक बार सीनियर ग्रुप का रिकॉर्ड तोड़ा था.
पर अलग राज्य होने के बाद स्थिति बिगड़ती चली गयी.महुआडांड़ सेंटर की बच्चियों को मार्च से खाने का पैसा नहीं मिला है, जबकि किट तीन साल से नहीं दिया गया है. सेंटर का जिम भी सही तरीके से नहीं लगा है. बच्चियां जिस कमरे में रहती हैं, वहां की खिड़की में शीशा नहीं. बरसात में पेपर लगा कर बचाव करती हैं. फटे जूते और बिना उपस्कर के प्रैक्टिस कर रहे यहां के खिलाड़ी.
गुमला स्थित सेंटर की हालत और भी खराब है. 1976 में शुरू हुए इस सेंटर में 2010 के बाद खिलाड़ियों को किट नहीं मिला है. उसी वर्ष बिस्तर मिला था, फिर कुछ नहीं मिला. हद तो यह है कि खाने का पैसा भी 2010 के बाद विभाग से नहीं मिला है. एसएस बालक हाइस्कूल की मदद से कृष्णा छात्रावास में चल रहे इस सेंटर के बच्चों को खाना मिलता है. खाना भी बनाने की जवाबदेही उन्हीं खिलाड़ियों की है. वर्षों से वे खुद खाना बनाने से लेकर झाड़ू-पोंछा सहित अन्य काम करने के बाद जुगाड़ से मिले सामान के बल पर मेडल की तैयारी कर रहे हैं. मांसाहारी खाने की बात तो छोड़ दें, अन्य पौष्टिक भोजन भी उन्हें वर्षों से नहीं मिला है. माड़-भात खाकर मेडल लाने की तैयारी कर रहे हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति हजारीबाग के सेंटर की है. 2011 में स्थापित लड़कियों के इस सेंटर में अधिकतर खिलाड़ी के पास बिस्तर नहीं. खाने का पैसा नहीं. यहां वर्तमान मंत्री के गांव की भी दो लड़कियां हैं, पर सेंटर की बदहाली कम नहीं हो पायी. साहेबगंज के सेंटर में भी संसाधनों का घोर अभाव है. मार्च के बाद खाने का पैसा नहीं मिल रहा.
केस स्टडी
नंगे पैर जीतेगी मेडल
नहीं हुई कोई व्यवस्था तो इस बार नंगे पैर 400 मीटर की दौड़ में भाग लेगी सालिमा टोप्पो. झारखंड के चार आवासीय एथलेटिक्स सेंटरों में एक महुआडांड़ (लातेहार) रेसिडेंसियल गर्ल्स एथलेटिक्स सेंटर की खिलाड़ी है सालिमा. निहायत ही गरीब किसान पिता की बेटी सालिमा अपने जूते दिखाते हुए थोड़ा झिझकती है, पर दृढ़ता से कहती है कि वह दौड़ में मेडल लायेगी. रोज मैदान व जिम में जम कर पसीना बहाती है, पर पहाड़ी इलाके में खाली पैर प्रैक्टिस करने में उसे दिक्कत होती है. छत्तीसगढ़ बॉर्डर पर स्थित बूढ़ाघाट निवासी सालिमा के पिता की माली हालत ऐसी नहीं कि वह उसे नये जूते दिला सकें, पर किसी के जोश में कमी नहीं आयी है. यह हालत है खास तौर पर लड़कियों के लिए वर्ष 1978 में खुले इस सेंटर का. इसका इतिहास गौरवशाली रहा है, वर्तमान भी याद किया जाये, इस कोशिश में कोच और खिलाड़ी लगे हैं, पर व्यवस्था की मार का असर स्पष्ट दिखता है.
एक जूते से खेलती हैं जुड़वा बहनें
कक्षा सात की अंकिता व अस्मिता जुड़वा बहनें हैं. उनके पिता पास्कल मिंज भाड़े की गाड़ी चलाते हैं. अंकिता और अस्मिता दोनों फुटबॉल की बेहतर खिलाड़ी हैं और अच्छी एथलीट भी, पर एक ही जूते से दोनों काे काम चलाना पड़ता है. दोनों साथ कैसे खेलोगी, यह पूछने पर वे चुप हो जाती हैं. बाद में कहती हैं कि पिताजी के पास पैसे नहीं हैं, जब पैसे होंगे तो दोनों बहनों के पास जूता होगा.
साथ में लोहरदगा से गोपी
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