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दूरगामी असर डालनेवाला एक निर्णायक कदम!

बिहार देश का ऐसा पहला राज्य बना, जिसने सवर्ण जातियों के गरीबों पर सर्वे किया. यह दूरगामी कदम है. गरीबी देश, धर्म, जाति, क्षेत्र की परिधि से बाहर होती है. ऐसे में ऐसा कदम उठाना आवश्यक था. जनवरी 2011 में बिहार की सत्ता फिर से संभालने के बाद नीतीश कुमार ने यह कदम उठाया था. […]

बिहार देश का ऐसा पहला राज्य बना, जिसने सवर्ण जातियों के गरीबों पर सर्वे किया. यह दूरगामी कदम है. गरीबी देश, धर्म, जाति, क्षेत्र की परिधि से बाहर होती है. ऐसे में ऐसा कदम उठाना आवश्यक था. जनवरी 2011 में बिहार की सत्ता फिर से संभालने के बाद नीतीश कुमार ने यह कदम उठाया था. इस सर्वे की जरूरतों और संभावित असर का विेषण करता यह आलेख पढिए :
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ब्रेकिंग न्यूज के इस दौर में भी किसी ने भारत की राजनीति पर दूरगामी असर डालनेवाले इस मुद्दे को नहीं पहचाना. समाज की जड़ता तोड़ने और एक नये निर्णायक कदम के रूप में यह प्रसंग देश के सामने होगा. देश को समतावादी समाज की ओर ले जानेवाले एक बड़े कदम के रूप में, दूर तक असर करनेवाला.
पहले, लगभग अचर्चित रह गये इस प्रसंग को जान लें. जनवरी-2011 में सत्ता संभालते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़ा फैसला किया. समूचे देश में, अपने ढंग का यह पहला फैसला था. इसके तहत सवर्ण जातियों के गरीबों का सर्वे का काम शुरू हुआ. इसके लिए सवर्ण आयोग बना. इस आयोग को आर्थिक और शैक्षणिक रूप से सवर्ण जातियों के पिछड़े समूह का अध्ययन करना था. इस तरह फरवरी-2011 में सवर्ण आयोग बना.
बिहार सरकार के फैसले के तहत. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज माननीय डीके त्रिवेदी इसके चेयरमैन बने. चार अन्य सदस्य हुए. इसमें हिंदू-मुसलिम दोनों समूहों की ऊंची जातियों के पिछड़े लोगों का अध्ययन होना था. इस समूह में ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ (हिंदू समूह) और शेख, सैयद और पठान (मुसलिम समूह) शामिल थे. इस अध्ययन के तीन बड़े उद्देश्य थे. पहला, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से सवर्ण जातियों में कमजोर समूहों की पहचान.
दूसरा, सवर्ण जातियों में संसाधन और अर्थव्यवस्था (जमीन वगैरह) पर मालकियत व नियंत्रण के संदर्भ में वर्ग दृष्टि से अध्ययन (यानी भूमिहीन या गरीब की दृष्टि से पहचान) और पारंपरिक पेशे के घटते महत्व के आधार पर भी इनका अध्ययन. तीसरा, इन समूहों के पिछड़ेपन के कारणों की पहचान व उन्हें रोजगार व बड़े पैमाने पर अन्य अवसर उपलब्ध कराने के उपाय बताना. स्टेट एपरेटस (राज्य तंत्र) में भी इनकी हिस्सेदारी के सुझाव समेत.
दो माह से चल रहे बजट सत्र के अंतिम दिन (22.04.2015) बिहार सरकार ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में इस अध्ययन पर बड़ा फैसला किया. बिहार सरकार द्वारा नियुक्त सवर्ण आयोग ने यह अध्ययन (सर्वे ऑफ इकानामी एंड एजूकेशनल स्टेट्स आफ अपर कास्ट पापुलेशन इन बिहार, बिहार में सवर्ण जातियों के आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति का सर्वे), एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट (आद्री) से कराया.
इस रिपोर्ट के आधार पर बिहार सरकार ने सवर्णो और अति पिछड़ी जाति (पिछड़ा वर्ग अनुसूची दोनों) के बच्चों के लिए कल्याणकारी फैसलों की घोषणा की है. राज्य में सालाना डेढ़ लाख रुपये आमदनी वाले सवर्ण वर्ग के मैट्रिक की परीक्षा फस्र्ट डिवीजन में पास करनेवाले छात्र को मुख्यमंत्री विद्यार्थी प्रोत्साहन योजना के तहत 10,000 रुपये मिलेंगे.इस वर्ष से इसी आय-वर्ग के पहले से दसवीं वर्ग तक के सवर्ण छात्रों को छात्रवृत्ति मिलेगी.
आद्री द्वारा उच्च जातियों के कमजारे वर्गो के हित में की गयी अन्य अनुशंसाओं पर विचार करने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनायी गयी है. आद्री ने अपनी रिपोर्ट में सरकार द्वारा समाज के लिए चलाये जानेवाले कल्याणकारी कार्यक्रमों को मोटे तौर पर पांच तरह की जरूरतों को पूरा करनेवाले कार्यक्रमों के रूप में रेखांकित किया है.
शिक्षा, आवास, शौचालय सुविधा, खेती और सामाजिक कल्याण. सुझाव दिया है कि इन सभी कार्यक्रमों को नये सिरे से परखने की जरूरत है, ताकि सवर्ण समूह के पीछे छूट गये लोगों को भी ऐसे कार्यक्रमों से जोड़ा जा सके.
बिहार सरकार द्वारा प्रायोजित इस अध्ययन के विस्तार में जाना मकसद नहीं है, पर 92 पेज की इस रिपोर्ट में भारत की मौजूदा राजनीति को रिडिफाइन (पुर्नपरिभाषित) करने की क्षमता है. पहली बात कि यह मुद्दा नेशनल डिस्कोर्स (देशव्यापी संवाद) को नया रूप देगा. मार्क्‍सवादी चिंतन में माना गया कि पहले फैक्ट्स (तथ्य) देखें, तब सिद्धांत बनायें. हालांकि अब लोगों ने इसे पलट दिया है. बिहार सरकार ने इस आयोग द्वारा पहले अध्ययन कराया. विशेषज्ञों द्वारा. फिर जमीनी तथ्य जमा किये. तब वर्गीय आधार पर यानी गरीबी के मुद्दे पर आर्थिक मदद का तत्काल फैसला भी किया.
यानी इस एक कदम ने राष्ट्रीय बहस में पुन: वर्ग (क्लास) को स्थापित कर दिया है. याद रखिए, लोग अभी गौर नहीं कर रहे, पर यह बहस देश में राजनीतिक यथास्थिति को हिला देने की क्षमता रखती है. हर वर्ग के गरीब एकजुट हों, तो गौर करिए राजनीति पर क्या असर होगा? इस रिपोर्ट में दूसरा उल्लेखनीय बिंदु है, मुसलमानों और हिंदूओं के सवर्णो के गरीबों को एकरूप में देखना. फिर एक फलक पर आंकना. यह एकता (गरीब सवर्ण हिंदू और गरीब सवर्ण मुसलमान) संभावनाओं से भरी है.
अंतत: इसका विस्तार व्यापक होगा. गरीब, सिर्फ सवर्ण की ही सीमा नहीं मानेंगे. वे क्षेत्र, परिधि, जाति और धर्म से ऊपर उठकर एक समूह में एकत्र होंगे. हालांकि इसमें समय लगेगा. पर बिहार सरकार का यह फैसला इस मुकाम की ओर एक बड़ा प्रभावकारी कदम और सीढ़ी है. इस तरह मार्क्‍सवादी चिंतन के तहत गरीबों और अमीरों के ध्रुवीकरण की जमीन तैयार होगी.
संपन्न और सर्वहारा का स्पष्टीकरण होगा और अंतत: समतापूर्ण समाज की ओर ले जाने के लिए यह एक निर्णायक समाजवादी कदम के रूप में देखा व आंका जायेगा. आज की दुनिया ग्लोबल हो गयी है. बाजार, संचार और गति ने लगभग इसे एक कर दिया है. ग्लोबल विलेज जैसा. अब इस ग्लोबल विलेज के गरीबों की बात होने लगी है. क्योंकि दुनिया के गरीब एक जैसे हैं.
जैसे दुनिया के मजदूर एक कहे गये और माना गया कि मजदूरों के पास अपनी बेड़ियां-बंधन खोने के अलावा कुछ है नहीं. उसी तरह उदारीकरण के बाद जिस तेजी से आर्थिक विषमता बढ़ रही है, उससे समाज दो ही हिस्सों में बंटने की ओर बढ़ रहा है.
अमीर और गरीब. गरीब एक हैं. धर्म, जाति, क्षेत्र, मजहब से परे. इन्हीं गरीबों की मुक्ति का सपना मार्क्‍स ने देखा. बुरजुआ-सर्वहारा संघर्ष में. गांधी ने दरिद्र नारायण की बात की. लोहिया ने पीछे छूट गये लोगों को विशेष अवसर देने की वकालत की. सौ में साठ, पिछड़ों को देने की बात की.
इस तरह बहुत पीछे न जायें, तो पायेंगे किसान सभा ने गरीबों के सवाल को बड़े पैमाने पर उठाया. इसकी रहनुमाई अगड़ी जाति के कई बड़े नेताओं ने की. सहजानंद सरस्वती इसके सिरमौर थे. फिर कम्युनिस्ट आंदोलन आया. इसके हिरावल दस्ते में भी बड़े पैमाने पर प्रगतिशील सवर्ण नेताओं की भूमिका रही. इसी तरह समाजवादी आंदोलन में भी अगड़ी जाति के प्रगतिशील लोगों ने गरीबों की एकता के लिए बड़ा काम किया.
नक्सल आंदोलन में भी कई शीर्ष के नेता अगड़ी समूहों से रहे. कहने का अर्थ कि समाज का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक तबका हमेशा समतावादी समाज के लिए अग्रसर, संघर्षशील व प्रयत्नशील रहा. फिर मंडल आयोग की रिपोर्ट आयी. उसमें पीछे छूट गये लोगों को बड़ा अवसर दिया. लेकिन इसके बाद गरीबों के बीच एकता लाने की दृष्टि से बिहार सवर्ण आयोग की यह रिपोर्ट पहला निर्णायक कदम है. संभावनाओं से भरा हुआ.
आज जब इस प्रसंग पर गौर कर रहा हूं, तो याद आते हैं पत्रकारिता के शुरुआती दिन. 1979-80 का दौर. तब धर्मयुग (मुंबई) में कार्यरत था. यह पत्रिका 6-7 लाख प्रति सप्ताह बिकती थी.
निर्णायक राजनीतिक मुद्दे कम उठते थे, पर लगभग दो या तीन पेज की एक लंबी रिपोर्ट धर्मयुग में कपरूरी जी द्वारा लागू आरक्षण के पक्ष में लिखा कि यह कदम कैसे बिहार जैसे जड़ समाज को समता की ओर ले जायेगा? तब बिहार में इसको लेकर आंदोलन चल रहा था. पक्ष और विपक्ष में. देशभर से धर्मयुग की इस रिपोर्ट (जो कपरूरी जी के कदम के पक्ष में था) के विरोध में बड़े पैमाने पर पत्र मिले, इसलिए यह प्रसंग याद रहता है.
इस रिपोर्ट पर मिली भारी प्रतिक्रियाओं से उत्साहित होकर हम दो लोगों ने (अनुराग चतुर्वेदी के साथ), तत्कालीन मशहूर राजनीतिक पत्रकार गणोश मंत्री (धर्मयुग) के साथ एक योजना बनायी, इस विषय पर आगे बहस चलाने की. डॉ धर्मवीर भारती ने तुरंत करने की अनुमति दी. इसके तहत मशहूर समाजशास्त्री प्रो आंद्रे बेते (अंतरराष्ट्रीय स्तर के समाजशास्त्री) का लंबा इंटरव्यू इस विषय पर हमने किया. यह धर्मयुग का कवर स्टोरी बना.
शायद इतनी प्रसार संख्या वाली पत्रिका में, वह हिंदी में उनका यह पहला इंटरव्यू था. इस पर भी बड़े पैमाने पर लोगों ने पत्र भेजे. फिर 1990 में मंडल आयोग की अनुशंसा को लेकर समाज-देश में ध्रुवीकरण हुआ. पत्रकारिता में भी. प्रभात खबर ने स्पष्ट लाइन दी. हम हर तरह का विचार छापते थे.
पूरी बहस. पर अखबार की प्रतिबद्धता साफ थी. मशहूर संस्था सीएसडीएस (दिल्ली) ने तब मंडल आयोग पर हिंदी अखबारों का भी अध्ययन किया था और उन्होंने हिंदी के दो अखबारों का उल्लेख किया. अपनी पत्रिका की रिपोर्ट में. सुरेंद्र प्रताप सिंह के संपादकत्व में निकलनेवाले नवभारत टाइम्स (दिल्ली) और प्रभात खबर का. सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार मंडल मुद्दे पर इन दोनों अखबारों ने सकारात्मक चीजें दी और साफ स्टैंड लिया.
मंडल आयोग के बाद उदारीकरण की अर्थव्यवस्था आयी. बाजार और उपभोक्तावादी मानस, निर्णायक होने लगे. इस बीच कोई बड़ा सामाजिक मुद्दा राजनीति में नहीं उभर पा रहा. याद करिए, काका कालेलकर आयोग, मुंगेरीलाल आयोग, मंडल आयोग वगैरह ने सामाजिक सवालों को उभारा.
इसी क्रम में बिहार सरकार द्वारा गठित सवर्ण आयोग की इस रिपोर्ट ने अत्यंत महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक मुद्दे को रेखांकित किया है. अब इस रिपोर्ट के निष्कर्ष, भारतीय समाज में वर्ग (गरीब और अमीर) को मूल बहस के केंद्र में स्थापित करेंगे. इसका असर धीरे-धीरे केंद्र की राजनीति और देश के अन्य हिस्से में होनेवाला है. खासतौर से हिंदी इलाकों में और भी. अब राजनीतिक दलों में इसको लेकर नयी स्पर्धात्मक राजनीति शुरू होगी.
राजनीति का काम समाज को समता की ओर ले जाना है. जहां समाज खड़ा है, उससे लगातार आगे की ओर, जहां वर्ण, वर्ग, रंग, धर्म, क्षेत्र पीछे जायें और इंसानों की एक नयी जमात खड़ी हो. बिहार में पिछले कुछ वर्षो में पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण, महादलितों को मदद और अब सवर्ण समूहों के पीछे छूट गये लोगों को आगे बढ़ाने के कार्यक्रम, जड़ समाज को गति देने के कार्यक्रम हैं.
एक बेहतर और समतामूलक समाज बनाने की दिशा में ठोस कदम. चूंकि इस फैसले को हुए दो-तीन दिन ही हुए हैं, इसलिए देश के समाजशास्त्रियों, राजनीतिक समीक्षकों की निगाह इस पर नहीं गयी है. टीवी चैनलों को इसकी संभावना की आहट मिलते ही गरीबी बनाम अमीरी पर एक नयी सामाजिक ध्रुवीकरण की बहस शुरू हो सकती है.

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