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नरेंद्र मोदी के किये से अधिक का भरोसा दे पायेगा प्रतिपक्ष!

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात है कि भाजपा विरोधी दल गोलबंद होने की कोशिश कर रहे हैं. पर क्या सिर्फ गोलबंदी ही काफी होगी? या फिर गोलबंदी जनहितकारी मुददों पर आधारित भी होगी? सिर्फ गोलबंदी का नतीजा यह देश देख चुका है. सिर्फ गोलबंदी से झारखंड में मधु कोड़ा और […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात है कि भाजपा विरोधी दल गोलबंद होने की कोशिश कर रहे हैं. पर क्या सिर्फ गोलबंदी ही काफी होगी? या फिर गोलबंदी जनहितकारी मुददों पर आधारित भी होगी? सिर्फ गोलबंदी का नतीजा यह देश देख चुका है. सिर्फ गोलबंदी से झारखंड में मधु कोड़ा और केंद्र में मनमोहन सिंह जैसी सरकारें ही बन पाती हैं. भाजपा वैसी राजनीति को पराजित कर चुकी है.
गोलबंदी की कोशिश में लगे दलों के नेताओं को पहले अपनी पिछली हार के असली कारणों को समझना होगा. साथ ही, जो काम मोदी सरकार भी नहीं कर पा रही है, उन्हें करने का पक्का भरोसा जनता को देना होगा? खराब साख के कारण इस काम में उन्हें दिक्कत आ सकती है. पर कोशिश करने में क्या हर्ज है?
आम लोगों को यह लगता है कि मोदी ने प्रधानमंत्री सचिवालय और अपने मंत्रिमंडल तक भ्रष्टाचार को फटकने नहीं दिया है. पर केंद्र के सरकारी दफ्तरों में फिर भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है. उससे जनता तंग है. क्या उस स्तर से भी प्रतिपक्ष भ्रष्टाचार को दूर करने का वायदा करेगा? कुछ राज्यों की भाजपा सरकारें गोरक्षक गिरोहों की गुंडागर्दी खत्म नहीं कर पा रही हैं. प्रतिपक्ष से यह उम्मीद की ही जा सकती है कि सरकार में आने के बाद वह उसे खत्म कर देगा. पर सवाल है कि गो हत्या के समर्थकों पर भी समान रूप से प्रतिपक्ष कार्रवाई करने का वादा करेगा? क्या प्रतिपक्ष अपनी पिछली गलतियों के लिए माफी मांगते हुए जनता से यह वादा करेगा कि वह अब भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देगा?
क्या प्रतिपक्ष असंतुलित और एकतरफा धर्म निरपेक्षता की नीति पर अब नहीं चलने का भरोसा देगा? यदि प्रतिपक्ष सिर्फ सामाजिक समीकरण, दलीय गठबंधन और सांप्रदायिक वोट बैंक के बल पर सरकार बनायेगा तो वह मनमोहन सरकार की सिर्फ कार्बन कॉपी होगी. वैसा शायद अब नहीं चलेगा. क्योंकि अनेक लोगों की अब एक अलग ढंग की मोदी सरकार देखने की आदत बन गयी है.
वीर कुंवर को जरूरत नहीं भारतरत्न की : भारत में ‘अंगरेजी राज’ नामक अपनी चर्चित पुस्तक में पंडित सुंदर लाल ने लिखा है कि कुंवर सिंह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था.
उसका जीवन परहेजकारी का था. उसके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कहीं कुंवर सिंह देख न ले, खुले तौर पर तंबाकू तक न पीता था. उसकी सारी प्रजा उसका बड़ा आदर करती थी और उससे प्रेम करती थी. युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्वितीय था. सुंदर लाल ने यह भी विस्तार से यह लिखा है कि कुंवर सिंह ने किस तरह बारी-बारी से छह युद्धों में अंगरेजों को हराया था. अंगरेजों को छह-छह युद्धों में हराने वाले किसी अन्य योद्धा के बारे में मैंने कहीं नहीं पढ़ा है.
कुंवर सिंह से हारने के बाद एक अंगरेज अफसर ने युद्ध में अपनी दुर्दशा का मार्मिक विवरण लिखा था कि जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है. मैदान छोड़कर हमने भागना शुरू कर दिया. शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा. हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे. एक निकृष्ट गंदे पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके. इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबोचा. इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न रही. हम में से किसी को शर्म तक न रही.
जहां जिसकी कुशल दिखाई दी, वह उसी ओर भागा. चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था. मार्ग में अंगरेजों के गिरोह के गिरोह मरे. हमारे अस्पताल पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था. दवा मिल सकना भी असंभव था. कुछ वहीं गिरकर मर गये, बाकी को शत्रु ने काट डाला. हमारे कहार डोलियां रख कर भाग गये. सोलह हाथियों पर केवल हमारे घायल साथी लदे थे. स्वयं जनरल लीग्रैंड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया. हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे. उनमें शक्ति नहीं बची थी. सिखों ने हमसे हाथी छीन लिये और हमसे आगे भाग गये. हमारा किसी ने साथ नहीं दिया. 199 गोरों में से 80 ही इस संहार में जिंदा बच सके. हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ जैसा पशुओं का कसाइखाने में जाना.
भले वीर कुंवर सिंह की बहादुरी के ऐसे किस्से आजादी के बाद जन-जन तक नहीं पहुंचाए गये, पर एक बड़े इलाकों में ऐसी गाथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी आ रही हैं. वीर कुंवर सिंह को याद करने वालों की इस मांग का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समर्थन किया कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए. पर क्या ऐसा वीर भारत रत्न का मोहताज होता है? वैसे भी भारत रत्न का अवमूल्यन हो चुका है. 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन देश की आजादी का सबसे बड़ा आंदोलन था. उस आंदोलन का विरोध करने वाले को भी भारत रत्न मिल चुका है!
एक संपादक की पठनीय पुस्तक : अपने जमाने के नामी संपादक एसके राव की संस्मरणात्मक पुस्तक अ जर्नलिस्ट रिफ्लेक्ट्स पढ़ने का अवसर मिला. पत्रकारिता और राजनीति के इतिहास के विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी किताब है. उन्होंने अपने समकालीन नेताओं और संपादकों के बारे में लिखा है. पटना में दैनिक सर्चलाइट के संपादक रह चुके राव साहब ने लखनऊ, कराची और मद्रास में भी पत्रकार के रूप में काम किया था. राव साहब पत्रकारों के संगठन एनयूजे के संस्थापक महासचिव भी थे. अब वह इस दुनिया में नहीं हैं.
पटना के राजनीतिक और पत्रकारिता जगत के पुराने लोग राव साहब को याद करते हैं. मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंहा के कार्यकाल में सर्चलाइट के एक चर्चित संपादक हुआ करते थे-एमएसएमसरमा. राव साहब ने उनके बारे में लिखा है कि शालीन पत्रकारिता के जमाने में भी सरमा जी स्टंट में विश्वास करते थे. वैसे मैंने अलग से सरमा जी के बारे में बुजुर्गों से सुन रखा था.
सरमा जी तत्कालीन मुख्यमंत्री के बारे में अकसर आपत्तिजनक बातें लिखा करते थे. श्रीबाबू के समर्थकों ने उनसे कहा कि संपादक के खिलाफ आपको सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. इसपर मुख्यमंत्री ने कहा कि मैंने तो सर्वाधिक सख्त कार्रवाई कर दी है. मैंने तो उनका अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया है.
हार के अपने-अपने बहाने : आधुनिक राजनीति की एक पुरानी कहावत है. चुनाव जीतने वाला सीटें गिनता है और हारने वाला अपना वोट परसेंटेज. हारने वालोंं की एक और प्रजाति है.
1971 की हार के बाद जनसंघ नेता बलराज मधोक ने कहा था कि इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ से खास तरह की अदृश्य स्याही मंगाकर उसे मतपत्रों पर अपने पक्ष में पहले ही लगवा दिया था. जो बाद में उग आये. उधर दृश्य स्याही वाली जो मुहरें गैर कांग्रेसी दलों के उम्मीदवारों के नाम के आगे मतपत्रों पर लगायी जाती थीं, उसकी स्याही कुछ घंटों के बाद स्वतः गायब हो जाती थी. इसी तरह अरविंद केजरीवाल ने अपनी हार का बहाना इवीएम मशीनों में ढूंढ़ लिया है.
और अंत में : राजनीति पहले सेवा थी. आजादी की लड़ाई के दौरान और आजादी के कुछ साल बाद तक भी अधिकतर नेता सेवा भाव से ओतप्रोत थे. पर सन 1976 में जब पूर्व सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था हुई तो राजनीति नौकरी बन गयी. सन 1993 में जब सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान हुआ तो वह व्यापार हो गयी.
जब इस देश में महाघोटालों का दौर चला तो वह उद्योग हो गयी. अब जब पैसे लेकर चुनावी टिकट बांटे जाने लगे तो राजनीति ने खुदरा व्यापार के क्षेत्र में भी अपने पांव जमा लिये. हालांकि सेवा वाले जमाने में भी कुछ नेता अपवाद थे और आज ‘मेवा’ वाले दौर में भी अपवाद हैं.

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