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तेलंगाना का पसमांदा आरक्षण

प्रो फैजान मुस्तफा वॉइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद तेलंगाना विधानसभा ने विशेष सत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग के मुसलिमों को 12 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी है और केंद्र से राज्य के आरक्षण को तमिलनाडु की तर्ज पर नौवीं अनुसूची में डालने का आग्रह किया है. तमिलनाडु में तीन दशकों से 69 […]

प्रो फैजान मुस्तफा

वॉइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद

तेलंगाना विधानसभा ने विशेष सत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग के मुसलिमों को 12 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी है और केंद्र से राज्य के आरक्षण को तमिलनाडु की तर्ज पर नौवीं अनुसूची में डालने का आग्रह किया है. तमिलनाडु में तीन दशकों से 69 फीसदी आरक्षण है. इस प्रकरण के साथ मुसलिम आरक्षण का मुद्दा फिर बहस में है.

हालांकि, संविधान में कहीं भी 50 फीसदी से अधिक आरक्षण देने की मनाही नहीं है, पर सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार कहा है कि 50 फीसदी सीटें आम तौर पर सामान्य श्रेणी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए. चूंकि तेलंगाना की 90 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की है, ऐसे में 50 फीसदी आरक्षण की सीमा मुश्किलें पैदा कर रही है.

ऐसी ही मांगें राजस्थान, हरियाणा और गुजरात से गुर्जर, जाट और पटेल समुदाय उठा रहे हैं. हैदराबाद उच्च न्यायालय की दो पांच-सदस्यीय और एक सात-सदस्यीय खंडपीठों ने पहले मुसलिम आरक्षण के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, तेलंगाना सरकार अपने आरक्षण कानून को नौवीं अनुसूची में डालने के लिए प्रयासरत है.

अनुच्छेद 16(4) राज्य को ‘नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग’ को नियुक्तियों में आरक्षण देने का अधिकार देता है, जिन्हें राज्य की नजर में सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है.

हालिया आरक्षण का प्रस्ताव बीएस रामुलू की अध्यक्षतावाले पिछड़ा वर्ग आयोग की जिस रिपोर्ट पर आधारित है, उसमें स्पष्ट कहा गया है कि यह ‘राज्य’ है, जो ‘किसी समुदाय के पिछड़ेपन’ और ‘समुचित प्रतिनिधित्व’ के बारे में नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार रखता है, ‘न्यायपालिका’ को यह अधिकार नहीं है. इस रिपोर्ट ने ‘विविधता सूची’ तैयार करने और समान अवसर आयोग की स्थापना की सिफारिश भी की थी.

तकनीकी रूप से देखें, तो हालिया आरक्षण मुसलिम आरक्षण नहीं है, क्योंकि यह मुसलिम समुदाय के हर सदस्य को नहीं दिया गया है, बल्कि कुछ पेशेगत जातियों को दिया गया है. ऐसे पेशों से जुड़ी हिंदू समुदाय की जातियों को पहले ही पिछड़ा सूची में रखा गया है और उन्हें आरक्षण का लाभ मिल रहा है. आयोग ने यह रेखांकित किया था कि अधिकतर भारतीय मुसलिम पेशेगत जातियों से धर्मांतरित हुए हैं और उन्होंने अपने परंपरागत पेशे को नहीं छोड़ा. रिपोर्ट ने यह अनुशंसा भी की है कि मुसलिम मेहतरों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए, जो कि राष्ट्रपति के आदेश के विपरीत है. इस प्रस्ताव में ऊंची जाति के मुसलिमों को अलग रखा गया है.

पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2016 के सुधीर आयोग के निष्कर्षों को भी स्वीकार किया, जिसमें पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए मंडल आयोग के 11 पैमानों, जिन्हें इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सही ठहराया था, को सही ही अप्रासंगिक माना गया है.

साहनी मामले की समीक्षा भी जरूरी है. सुधीर आयोग ने सभी समुदायों की ‘सापेक्ष वंचना’ को पेश किया है, जिसमें दिखाया गया है कि तेलंगाना में हिंदू अनुसूचित जाति और जनजाति का वंचना स्तर 82.8 फीसदी और मुसलिम पिछड़ों में 69.5 फीसदी है. हिंदू पिछड़ों की स्थिति 50.2 फीसदी के साथ तुलनात्मक रूप से ठीक है, जबकि अन्य समुदायों में वंचना मात्र 20.5 फीसदी के स्तर पर है.

वर्ष 2004 और 2005 में पांच फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव को तकनीकी आधार पर उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था. पांच-सदस्यीय खंडपीठ ने फिर से इस बात को रेखांकित किया था कि अगर सामाजिक पिछड़ेपन को तय करनेवाले पैमाने इंगित करें, तो पूरे मुसलिम समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित करने में कोई रोक नहीं है.

पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट पर 2007 में बने कानून को उच्च न्यायालय ने फिर से अस्वीकार कर दिया, क्योंकि कई प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया था. हालिया रिपोर्ट ने पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए वैज्ञानिक आधार तैयार करने की कोशिश की है तथा यह दिखाया है कि शिक्षा के मामले में मुसलिम अनुसूचित जनजाति से 14 फीसदी और हिंदू समुदाय से 60 फीसदी पीछे हैं. रोजगार में हिस्सेदारी के मामले में वे अनुसूचित जाति से 32 फीसदी और जनजाति से 41 फीसदी पीछे हैं. पारिवारिक स्तर पर जमीन के मालिकाना के मसले पर वे अनुसूचित जातियों से 60 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों से 70 फीसदी पीछे हैं. वहां सामाजिक पिछड़ापन भी है.

अब तेलंगाना का प्रस्ताव केंद्र के पाले में है, पर इसे अनुमति मिलने की संभावना नहीं है, भले ही भाजपा के भुवनेश्वर सम्मेलन में पसमांदा पिछड़ेपन को संज्ञान में लिया गया है और उन तक पहुंचने की जरूरत बतायी गयी है. बहरहाल, तेलंगाना के मुख्यमंत्री संतोष कर सकते हैं कि उन्होंने अपना चुनावी वादा पूरा किया है. उम्मीद है कि यह मुद्दा गुजरात और अन्य राज्यों के चुनाव में बड़े ध्रुवीकरण की वजह न बने.

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