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Thursday, March 28, 2024

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सेक्युलरवाद से संवाद

प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये थे. उसी घड़ी एक सेक्युलर मित्र से सामना हो गया. चेहरे पर मातम, हताश और चिंता छायी हुई थी. छूटते ही बोले ‘देश में नंगी सांप्रदायिकता जीत रही है. ऐसे में आप जैसे लोग भी सेक्युलरवाद की आलोचना करते हैं […]

प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये थे. उसी घड़ी एक सेक्युलर मित्र से सामना हो गया. चेहरे पर मातम, हताश और चिंता छायी हुई थी. छूटते ही बोले ‘देश में नंगी सांप्रदायिकता जीत रही है. ऐसे में आप जैसे लोग भी सेक्युलरवाद की आलोचना करते हैं तो कष्ट होता है.’
मैं हैरान था: ‘आलोचना तो लगाव से पैदा होती है. अगर आप किसी विचार से जुड़े हैं, तो आपका फर्ज है कि आप उसके संकट के बारे में ईमानदारी से सोचें. सेक्युलरवाद इस देश का पवित्र सिद्धांत है. जिन्हें इस सिद्धांत में आस्था है, उनका धर्म है कि वे सेक्युलरवाद के नाम पर पाखंडी राजनीति का पर्दाफाश करें.’
वे संतुष्ट नहीं थे. कहने लगे, ‘सीधे-सीधे बतायें कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से आपको डर नहीं लगता?’
मैंने सीधी बात कहने की कोशिश की: ‘डर तो नहीं लगता, हां दुख जरूर हुआ. जिसे इस देश पर गर्व हो, उसे ऐसे किसी नेता के इतनी ऊंची कुर्सी पर बैठने पर शर्म कैसे नहीं आयेगी? जिसे योग में सम्यक भाव अपेक्षा हो वो आदित्यनाथ को योगी कैसे मान सकता है? जो धर्म को कपड़ों में नहीं, आत्मा में ढूंढता है, वह घृणा के व्यापार को धार्मिक कैसे कह सकता है?’
उनके चेहरे पर आत्मीयता झलकी- ‘तो आप साफ कहिये न कि मोदी, अमित शाह व संघ परिवार देश का बंटाधार करने पर तुले हैं.’मैं सहमत नहीं था: ‘सेक्युलरवादी सोचते हैं कि संघ के दुष्प्रचार, उसके घृणा फैलाने के अभियान और भाजपा की राजनीति ने आज सेक्युलरवाद को संकट में पहुंचा दिया है. इतिहास में हारी हुई शक्तियां अपने विरोधियों को दोष देती हैं. सच यह है कि इस देश में सेक्युलरवाद स्वयं अपने एकांगी विचार और सेक्युलरवादियों की पाखंडी राजनीति के कारण संकट में है.’
उनके चेहरे पर असमंजस को देख कर मैंने कुछ विस्तार दिया: ‘संकट की इस घड़ी में सेक्युलर राजनीति दिशाहीन है, घबरायी हुई है. जनमानस और सड़क पर सांप्रदायिकता का प्रतिरोध करने की बजाय सत्ता के गलियारों में शॉर्टकट ढूंढ़ रही है. भाजपा की हर छोटी-बड़ी हार में अपनी जीत देख रही है. हर मोदी विरोधी को अपना हीरो बनाने को लालायित है.
सांप्रदायिक राजनीति अपने नापाक इरादों के लिए संकल्पबद्ध है, इस मायने में सच्ची है. आत्मबल और संकल्प विहीन सेक्युलर राजनीति अर्धसत्य का सहारा लेने को मजबूर है. सांप्रदायिकता नित नयी रणनीति खोज रही है, लेकिन सेक्युलरवाद लकीर का फकीर है, दूसरे की जमीन पर लड़ाई हारने को अभिशप्त है. सांप्रदायिकता आक्रामक है, तो सेक्युलरवाद रक्षात्मक. सांप्रदायिकता सक्रिय है, सेक्युलरवाद प्रतिक्रिया तक सीमित है. सांप्रदायिकता सड़क पर उतरी हुई है, सेक्युलरवाद किताबों और सेमिनारों में कैद है. सांप्रदायिकता लोकमत तक पहुंच रही है, सेक्युलरवाद पढ़े-लिखे अभिजात्य वर्ग के अभिमत में सिमटा हुआ है. हमारे समय की यही विडंबना है- एक ओर बहुसंख्यकवाद का नंगा नाच है, तो दूसरी ओर थके-हारे सेक्युलरवाद की कवायद.’
अब वे तय नहीं कर पा रहे थे कि मैं दोस्त हूं या दुश्मन. इसलिए मैंने इतिहास का सहारा लिया: ‘आजादी से पहले सेक्युलर भारत का सपना राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा था और सभी धर्मों के भीतर सामाजिक सुधार के लिए कटिबद्ध था. आजादी के बाद से सेक्युलरवाद इस देश की मिट्टी से कट गया. सेक्युलरवादियों ने मान लिया कि संविधान में लिखी इबारत से सेक्युलर भारत स्थापित हो गया. उन्होंने अशोक, अकबर और गांधी की भाषा छोड़ कर विदेशी मुहावरा बोलने लगे. सेक्युलरवाद का सरकारी अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्षता’ इसी उधारी सोच का नमूना है. सेक्युलरवाद का अर्थ नास्तिक होना और औसत भारतीय की आस्था से विमुख होना बन गया. सेक्युलरवाद का विचार भारत के जनमानस से कटता गया.’
अब उनसे रहा नहीं गया: ‘यानी कि आप भी मानते हैं कि सेक्युलरवाद वोट बैंक की राजनीति है?”यह कड़वा सच है. आजादी के आंदोलन में सेक्युलरवाद एक जोखिम से भरा सिद्धांत था. आजादी के बाद सेक्युलरवाद एक सुविधाजनक राजनीति में बदल गया. जैसे-जैसे कांग्रेस की कुर्सी को खतरा बढ़ने लगा, वैसे-वैसे अल्पसंख्यकों के वोट पर कांग्रेस की निर्भरता बढ़ने लगी. अब अल्पसंख्यकों को वोट बैंक की तरह बांधे रखना कांग्रेस की चुनावी मजबूरी हो गयी.’
‘तो अब आप यह भी कहेंगे कि मुसलमानों का तुष्टिकरण भी एक कड़वा सच है?’ अब उनकी दृष्टि वक्र थी.’नहीं. तुष्टिकरण मुसलमानों का नहीं, उनके चंद मुल्लाओं का हुआ. देश के विभाजन के चलते अचानक नेतृत्वविहीन मुसलिम समाज को शिक्षा और रोजगार के अवसरों की जरूरत थी.
लेकिन उनकी इस बुनियादी जरूरत को पूरा किये बिना उनके वोट हासिल करने की राजनीति ने सेक्युलरवाद की चादर ओढ़ना शुरू कर दिया. नतीजा यह हुआ कि सेक्युलर राजनीति मुसलमानों को बंधक बनाये रखने की राजनीति हो गयी- मुसलमानों को हिंसा और दंगों का डर दिखाते जाओ और उनके वोट अपनी झोली में बंटोरते जाओ. नतीजतन मुसलिम राजनीति मुसलमानों के बुनियादी सवालों से हट कर सिर्फ सुरक्षा के सवाल और कुछ धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों (उर्दू, एमयू, शादी-ब्याह के कानून) के इर्द-गिर्द सिमट गयी.
‘जिस खेल को पहले कांग्रेस ने शुरू किया, उसे बाद में सपा, राजद, जदयू और लेफ्ट ने भी अपना लिया. डर के मारे मुसलमान सेक्युलर पार्टियों का बंधक बन गया. मुसलमान पिछड़ते गए और सेक्युलर राजनीति फलती-फूलती रही. मुसलिम समाज उपेक्षा और भेदभाव का शिकार बना रहा, लेकिन उनके वोट के ठेकेदारों का विकास होता गया. वोट बैंक की इस घिनौनी राजनीति को सेक्युलर राजनीति कहा जाने लगा. पहले जायज हितों की रक्षा से शुरुआत हुई. धीरे-धीरे जायज-नाजायज हर तरह की तरफदारी को सेक्युलरवाद कहा जाने लगा.
धीरे-धीरे एक औसत हिंदू को लगने लगा कि सेक्युलरवादी लोग या तो अधर्मी हैं या विधर्मी. उसकी नजर में सेक्युलरवाद मुसलिमपरस्ती या अल्पंसख्कों के तुष्टिकरण का सिद्धांत दिखने लगा. उधर मुसलमानों को लगने लगा कि सेक्युलर राजनीति उन्हें बंधक बनाये रखने का षड्यंत्र है. इससे तो बेहतर है कि वे खुलकर अपने समुदाय की पार्टी बनाए. इस तरह देश का एक पवित्र सिद्धांत देश का सबसे बड़ा ढकोसला बन गया.’
‘यानी आप कह रहे हैं कि हम योगी आदित्यनाथ को धन्यवाद दें कि उनके बहाने हमारी आंखे खुल गयीं.’ इतना बोल कर मेरे जवाब का इंतजार किये बिना वे आगे बढ़ गये. मुझे लगा उनके चेहरे पर उतनी हताशा नहीं थी, उनकी चाल में एक फुर्ती थी.
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