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ट्रंप, दुनिया के बैंक और सरकारें

बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ वर्ष 2008 में लीमैन ब्रदर्स जैसे बड़े बैंक के बंद होने के बाद अमेरिका तथा पूरे विश्व में जो आर्थिक मंदी आयी, उसका असर आज तक है. इस आर्थिक संकट के कारण विश्व स्तर पर व्यापक रूप से उत्पादन और विश्व व्यापार का नाश हुआ. ऐसी मंदी अस्सी […]

बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
वर्ष 2008 में लीमैन ब्रदर्स जैसे बड़े बैंक के बंद होने के बाद अमेरिका तथा पूरे विश्व में जो आर्थिक मंदी आयी, उसका असर आज तक है. इस आर्थिक संकट के कारण विश्व स्तर पर व्यापक रूप से उत्पादन और विश्व व्यापार का नाश हुआ. ऐसी मंदी अस्सी साल के बाद आयी, लेकिन इसका प्रभाव लंबी अवधि के लिए बनता दिख रहा है. यह मंदी बेरोकटोक बैंकिंग के कारण आयी. आगे ऐसा संकट न आये, इसके लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कानून और नियम बनाये. इनमें प्रमुख है डोड-फ्रैंक वॉल स्ट्रीट रिफॉर्म्स एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट. इस एक्ट के माध्यम से बैंकों की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखने का प्रबंध किया गया है.
अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने इस कानून को वापस लेने के लिए एग्जीक्यूटिव ऑर्डर पर हस्ताक्षर किया. ट्रंप और इस कानून के आलोचक कहते हैं कि इस कानून से उपजी लालफीताशाही के कारण बैंकिंग उद्योग से आम लोगों को सेवाएं मिलना कठिन हो गया है. ट्रंप खुद कह रहे हैं कि उनके परिचित कई उद्यमी अच्छा व्यवसाय कर रहे हैं, लेकिन उन्हें डोड-फ्रैंक कानून के कारण बैंकों से ऋण मिलना कठिन हो गया है.
बैंकिंग एक ऐसा उद्योग है, जिसमें कम पूंजी पर यानी बड़े लीवरेज के साथ बड़ा व्यवसाय किया जाता है.सरकारों के पास इतना धन नहीं होता है, जितना बैंकों के पास लोगों का जमा धन होता है. उदाहरण के तौर पर, भारत का वर्ष 2017-18 का बजट व्यय लगभग 21.46 लाख करोड़ रुपये का है. जबकि, बैंकों के पास तीन फरवरी को कुल जमा राशि लगभग 108.59 लाख करोड़ रुपये थी. इस जमा राशि के बरक्स बैंकों ने कुल 77.13 लाख करोड़ का ऋण प्रदान किया हुआ है. बैंकों के पास इतनी ऋण राशि के लिए औसतन मात्र 13 प्रतिशत पूंजी है.
बैंकों की विपुल जमा धनराशि का इस्तेमाल दुनिया के हर देश की सरकार करना चाहती है, जिससे विकास हो सके. लेकिन, यह इतना आसान भी नहीं है. बैंकिंग व्यवसाय तलवार की धार पर चलना है. यह एक ऐसा व्यवसाय है, जो उद्योग, व्यवसाय व अन्य हस्तियों की वित्तीय स्थिति पर आधारित है.
अर्थव्यवस्था जब फलती-फूलती रहती है, तो सभी व्यावसायिक और गैर-व्यावसायिक हस्तियों की माली हालत भी ठीक बनी रहती है और बैंकों द्वारा इन हस्तियों को दिये गये ऋण का स्वास्थ्य भी बना रहता है. बैंक ऐसे माहौल में अधिक लाभ की आशा में अधिक से अधिक ऋण संवितरित करते हैं, भले ही इसके लिए थोड़ा खतरा क्यों न उठाना पड़े. जैसे ही अर्थव्यवस्था खराब होनी शुरू होती है, बैंकों का ऋण फंसना शुरू हो जाता है. ऐसी परिस्थिति में बैंक ऋण भी बांटना कम कर देते हैं. जबकि, ऐसे समय में ऋण की सख्त जरूरत होती है, जिससे उद्यम और व्यापार अपने व्यवसाय को संभाल कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकें. यह चक्र चलता रहता है. इस अर्थ-चक्र के कारण बैंकों पर आनेवाले खतरे को ध्यान में रखते हुए स्विट्जरलैंड स्थित बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट ने बासेल कमेटी फॉर बैंक सुपरविजन की स्थापना की, जो बैंकों के परिचालन के लिए विवेकपूर्ण मानदंंड तय करता है.
इन मानदंडों के बाद भी अमेरिकी बैंक खुद संकट में आये और पूरी दुनिया के लिए संकट खड़ा कर दिये.डोड-फ्रैंक कानून के माध्यम से बैंकों को परिचालन के लिए पूंजी की जरूरत को बढ़ा दिया गया है, बड़े बैंकों को तोड़ कर छोटा करने का प्रावधान किया गया है. इसी तरह से वोल्कर नियम, जिसे भी डोनाल्ड ट्रंप खत्म करना चाहते हैं, के माध्यम से बैंकों के ट्रेडिंग गतिविधियों पर भी नकेल कसी गयी है. इन कानून और नियमों के कारण बैंकों की असाधारण खतरा उठाते हुए प्रॉफिट कमाने की प्रवृत्ति पर रोक लगायी गयी है.
अब जब ट्रंप डोड-फ्रैंक कानून को समाप्त करने की ओर अग्रसर हैं, तो स्वाभाविक है कि अंदेशा पैदा हो कि कहीं दुनिया फिर से किसी नये वित्तीय संकट में तो नहीं फंस जायेगी. दूसरी तरफ ढीले बैंकिंग नियमों के कारण बैंकों की कमाई में वृद्धि की आशा की वजह से शेयर बाजार में बैंकिंग शेयरों में तेजी देखने को मिली. बार्नी फ्रैंक, जो कि इस कानून को तैयार करनेवालों में शामिल रहे हैं, ने कहा है कि बिना कांग्रेस की अनुमति के कानून में कोई बड़ा परिवर्तन कर पाना संभव नहीं होगा. ट्रंप के आदेश में भी परिवर्तन की संभावना तलाशने को कहा गया है.
यह घटना सिर्फ अमेरिका के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है. पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की नाल अमेरिका की अर्थ-नाभि से जुड़ी हुई है.
दुनियाभर के बैंकों को प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए अपने घर में बैंकिंग नियमों में ढील देनी पड़ेगी. लेकिन, केंद्रीय बैंकों के लिए मुद्रा नियंत्रण एक मुश्किल काम हो जायेगा, खास कर उन देशों में जहां ब्याज दर को और नीचे ले जाने की कम गुंजाइश है. बैंकिंग सुपरविजन एक मुश्किल भरा काम हो जायेगा. बासेल कमेटी के निर्देशों को कड़ाई से लागू कर बैंकों को पहले से तैयार रखना पड़ेगा. अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के चक्र को देखते हुए काउंटर साइक्लिक बफर कैपिटल का इंतजाम पहले से करके रखना पड़ेगा.
ट्रंप के कदम से सिर्फ बैंक ही नहीं सरकारें भी दबाव में आ जायेंगी, क्योंकि बैंक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं. लेकिन, सबसे ज्यादा जिस फ्रंट पर काम करने के लिए सरकारों पर दबाव पड़ेगा, वह है विकास. औद्योगिक और कृषि उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा. नये रोजगार पैदा करने पड़ेंगे. इसके लिए सरकार और बैंकों को मिल कर काम करना पड़ेगा. सबसे ज्यादा जरूरी है जरूरतमंदों को पूंजी के रूप में बैंकों से आसान ऋण मिल सके, जिससे उद्यमी-व्यवसायी अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सकें. यह पहले अंडा हुई या मुर्गी के कहावत को चरितार्थ करनेवाली स्थिति है. भारत में आजकल बैंकों के ऋण फंसे हुए हैं.
इसके कई कारण हैं, जिसमें प्रमुख है अर्थव्यवस्था की मंदी. मंदी को उभारने के लिए पूंजी चाहिए, जो बैंक ऋण फंसने के डर से दे नहीं रहे हैं. खास कर सूक्ष्म और छोटे उद्यमों के लिए ऋण का अकाल सा है. बैंकों को इस डर से निकालने का कार्य करना होगा. इस बिंदु पर डोनाल्ड ट्रंप सही हो सकते हैं कि बैंक ऋण के बिना अर्थव्यवस्था में विकास नहीं हो सकता है. लेकिन, नियंत्रण भी जरूरी है. ट्रंप के इस निर्णय ने पूरी दुनिया के बैंकों और सरकारों को नयी राह तलाशने की सोच में जरूर डाल दिया है.

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