38.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

मुलायम सिंह के बिना चुनावी महासंग्राम अब कौन-सी भूमिका चुनेंगे धरतीपुत्र?

उत्तर प्रदेश में 1989 के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है, जिसमें मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं हैं. इस बीच पांच दिसंबर, 1989 से 24 जनवरी, 1991, पांच दिसंबर, 1993 से तीन जून, 1996 और 29 अगस्त, 2003 से 11 मई, 2007 तक तीन बार वे प्रदेश का मुख्यमंत्री पद संभाल चुके […]

उत्तर प्रदेश में 1989 के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है, जिसमें मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं हैं. इस बीच पांच दिसंबर, 1989 से 24 जनवरी, 1991, पांच दिसंबर, 1993 से तीन जून, 1996 और 29 अगस्त, 2003 से 11 मई, 2007 तक तीन बार वे प्रदेश का मुख्यमंत्री पद संभाल चुके हैं.

गत विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने प्रदेशवासियों से अपने ही नाम पर वोट मांगे थे, लेकिन जनादेश पा जाने पर बेटे अखिलेश के राज्यारोहण का लोभ संवरण नहीं कर पाये. कुछ प्रेक्षकों की मानें, तो इन दिनों अपनी पार्टी व परिवार में उनकी जो दुर्दशा है, उसके पीछे उनका वह लोभ संवरण न कर पाना ही है, जबकि कई अन्य प्रेक्षक कहते हैं कि बेटे के आगे के राजनीतिक भविष्य को नयी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए उन्होंने स्वेच्छा से यह स्थिति पैदा कर रखी है.

जो भी हो, इस चक्कर में चीजें उनके लिए कितनी बदल चुकी हैं, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि उनके पहले मुख्यमंत्रीकाल से लेकर अब तक की अवधि को लेकर ‘27 साल-यूपी बेहाल’ का नारा देनेवाली कांग्रेस अब उनके बेटे की अध्यक्षता वाली सपा की गंठबंधन सहयोगी है और उसे दी जानेवाली सीटों की संख्या को लेकर गंठबंधन की गांठ खोलने पर उतारू सपा को इतनी भी फुरसत नहीं कि बेहाल करनेवाले इन 27 सालों में से अपने हिस्से वाले तेरह-चौदह सालों की थोड़ी बहुत शर्म महसूस करे और कांग्रेस से एेतराज जताये. लेकिन, वहीं अगर आम मतदाता के लिहाज से देखें, तो हालात बस इतने परिवर्तित हुए हैं कि अब मुलायम सिंह की जगह उनके बेटे ने ले ली है, जो उन्हें लगातार सीन में बनाये हुए हैं. यानी मुलायम का न होना भी होने के ही मानिंद है. यह और बात है कि अब कई लोगों को उनका होना भी न होने के बराबर दिखाई देता है. इस स्थिति को विस्तार से समझते हैं.

मुलायम ने तोड़ा जनता दल

बात को ठीक से समझने के लिए थोड़ा अतीत में जाना पड़ेगा. 1993 में विधानसभा चुनाव के वक्त मुलायम जनता दल तोड़ने के बाद चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के रास्ते ‘अपनी’ समाजवादी पार्टी व बसपा के गंठबंधन तक पहुंच चुके थे. उस चुनाव में जनता दल की ओर से प्रचार करने आये बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, जो अब मुलायम के संबंधी भी हो गये हैं, अपनी सभाओं में उनकी बाबत बस एक ही बात कहते थे. यह कि कोई संकट जब तक थोड़ा कम रहता है, मुलायम बेहद बड़े बने रहते हैं, लेकिन पानी सिर पर आ जाये, तो उन्हें मक्खन जैसा मुलायम (उनका मतलब था- पिलपिला) होते देर नहीं लगती. हम तो उनसे कह रहे थे कि भाई, तू जनता दल में ही रह. दल सत्ता में आये तो मुख्यमंत्री तुम्हीं हो लेना. हम थोड़े ही बिहार से मुख्यमंत्री होने आयेंगे. मगर, भाजपा विहिप का संकट सीमा पार करने लगा, तो पिलपिले मुलायम ने जनता दल तोड़ दिया और साइकिल पर सवार होकर बसपा के हाथी के बगल जा खड़े हुए. देखना आप लोग, एक दिन यह हाथी इनकी दुर्गति कर देगा.

मुलायम की मुलायमियत

तभी से चले आ रहे मुलायम के नाना अंतर्विरोध, उनसे जुड़ी विडंबनाएं और यहां तक कि डबल गेम भी अब इतने आम हो चुके हैं कि कहने की जरूरत तक नहीं महसूस होती कि तब लालू अपने आकलन में कितने सही थे. हम देख ही रहे हैं कि बेटे अखिलेश के साथ टकराव में चुनाव आयोग में लड़ाई तक बेहद कड़े दिख रहे मुलायम एक ही शिकस्त के बाद किस कदर मुलायम हो गये हैं. कहां तो वे अपने अंतरंगों से कह रहे थे कि आप लोग भी चाहें, तो अपने राजनीतिक भविष्य के मद्देनजर दूसरों की तरह दूसरा रास्ता अख्तियार कर लें, लेकिन अखिलेश ने मेरा जो अपमान किया है, उसे मैं आखिरी सांस तक भूलनेवाला नहीं और उसके खिलाफ हर हाल में लड़ूंगा, और कहां अब उसी अखिलेश को 38 नामों की सूची देकर कह रहे हैं कि वह उन्हें उपकृत कर दे, तो वे उसके प्रत्याशियों के खिलाफ अपने प्रत्याशी नहीं उतारेंगे. उसने उनमें से कई नाम काट दिये हैं, फिर भी वे कड़े होने को तैयार नहीं. है कोई, जो उनकी इस मुलायमियत पर निसार होते हुए पूछे कि नेता जी, इस सौदेबाजी में आपका मान बढ़ रहा है या अपमान?

लड़ाई के स्वयंभू अंपायर

शायद इसीलिए प्रदेश के अनेक सामान्य मतदाताओं को भी यकीन नहीं हो रहा कि हाल तक बेटे व भाई की लड़ाई के स्वयंभू अंपायर बने रहे मुलायम ने सचमुच अपनी राजनीतिक पारी समाप्त मान ली है और इस चुनाव में एकदम से अनुपस्थित रहनेवाले हैं. कई लोग तो साफ कहते हैं कि क्या पता, कब नेता जी का मन पलट जाये और वे अपने ही द्वारा घोषित ‘मुसलिमविरोधी’ अखिलेश के लिए वोट मांगने निकल पड़ें. बाप के दिल को पिघलते देर ही कितनी लगती है? यह और बात है कि अखिलेश ही उन पर यह संदेह करते हुए, कि क्या पता वे कब, कहां और क्या कह दें, चुनाव प्रचार से विरत रहने को कह दें और भूतपूर्व अध्यक्ष के तौर पर उन्हें वर्तमान अध्यक्ष की बात मान लेनी पड़े. फिलहाल ये पंक्तियां लिखने तक आजम खां यह दावा करने की हालत में आ गये हैं कि नेता जी अखिलेश के लिए प्रचार करने को राजी हैं.

धर्मनिरपेक्षता के सिपहसालार

वैसे भी मुलायम के लिए यह बड़ा लालच है कि उनका तख्ता पलटनेवाले अखिलेश तीन महीने बाद सपा की अध्यक्षी उन्हें फिर से लौटा देंगे और प्रदेश की सत्ता जीत कर उनके कदमों में ला पटकेंगे. बूढ़े धरतीपुत्र को फिर से किंगमेकर होने का दावा करन में तब कितना वक्त लगेगा? वैसे भी उनका लंबा राजनीतिक जीवन ऐसी तमाम उलटवासियों व विडंबनाओं से भरा पड़ा है. 1989 में उन्हें पहली बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो जो भाजपा उनकी समर्थक थी, बाद में सांप्रदायिकता-विरोधी लड़ाई में वह उनके लिए अछूत से कम नहीं रह गयी. अलबत्ता, अटल के राज में भाजपा ने उन्हें अपने लिए उपयोगी मुख्यमंत्री मान लिया, तो उन्होंने भी उसकी शर्तें मान कर फिर मुख्यमंत्री बनना कुबूल कर लिया और रिंद के रिंद यानी ‘धर्मनिरपेक्षता के सिपहसालार’ भी बने रहे. 1993 में उन्हें दूसरी बार बसपा के समर्थन से सत्ता मिली, तो उनकी और मायावती की खुन्नस ने कुछ ही दिनों बाद उनके ‘मिले मुलायम कांशीराम’ के नारे की हवा निकाल दी और तीसरी बार वे उसी बसपा को तोड़ कर सत्ता में आये. चौथी बार पूरा बहुमत मिला, तो उन्होंने बेटे की ताजपोशी करा दी और अब साढ़े चार साल तक उसे डांटते रहने का ‘कुफल’ भुगत रहे हैं.

एक गुनाह और सही

जाहिर है कि राजनीति उनके लिए किसी विचार या सिद्धांत के प्रति निष्ठा से ज्यादा व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला है. इसी कारण वे वीपी सिंह और चंद्रशेखर जैसों से भी नहीं निभा सके और मायावती के साथ निजी खुन्नस में उनके साथ बहुजनों के अरमानों को आग लगाने के कुसूरवार माने जाते हैं. यह यकीन करने के कारण हैं कि इस चुनाव में भी वे ‘एक गुनाह और सही’ की अपनी पुरानी रीति-नीति का अनुसरण करते नजर आयें और किसी को अपना व अपने डबल/ट्रिपल गेमों का अभाव खलने न दें. फिलहाल, लगता नहीं कि वे अखिलेश की सपा के संरक्षक भर बन कर खुश हो लेंगे और वे अपनी खुशी तलाशेंगे, तो कुछ नयी उलटबासियां जरूर रचेंगे.

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें