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राहुल को वंशवाद का खट्टा फल ही मिला

।। प्रेम कुमार ।। मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को राजनीति में स्थापित किया हो, ऐसा तो कोई नहीं कह सकता लेकिन महात्मा गांधी की सरपरस्ती ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलायी थी, ऐसा मानने वाले बड़ी तादाद में हैं. फिर नेहरू की सरपरस्ती ने इंदिरा को कांग्रेस और सरकार में स्थापित किया. […]

।। प्रेम कुमार ।।

मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को राजनीति में स्थापित किया हो, ऐसा तो कोई नहीं कह सकता लेकिन महात्मा गांधी की सरपरस्ती ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलायी थी, ऐसा मानने वाले बड़ी तादाद में हैं. फिर नेहरू की सरपरस्ती ने इंदिरा को कांग्रेस और सरकार में स्थापित किया. हालांकि कांग्रेस को अपने नाम से ‘कांग्रेस आई’ बनाकर इंदिरा गांधी ने अपना नेतृत्व साबित कर दिखाया.

इंदिरा गांधी की शहादत ने कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी मुहैया करा दी और राजीव गांधी की शहादत ने सोनिया गांधी को तकरीबन पीएम की कुर्सी पर पहुंचा ही दिया था, जिसे उन्होंने नकार दिया. हालांकि यूपीए की चेयरपर्सन रहकर और कांग्रेस की अध्यक्ष के तौर पर सोनिया ने पार्टी और सरकार पर अपनी पूरी पकड़ बना ली थी. एक मात्र राहुल गांधी ही अपवाद हैं जिन्हें वंश परम्परा के नाम पर केवल तोहमत मिली, जबकि जमापूंजी लुट चुकी थी. उन्हें वंशवाद का कोई मीठा फल नहीं मिला, दरअसल खट्टा फल ही मिला.

* औपचारिकता भर है राहुल का अध्यक्ष बनना

राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जा रहा है. लेकिन, यह उनके लिए सौभाग्य भरी उपलब्धि का बड़ा अवसर नहीं दिखता. ऐसा इसलिए कि यह पद उन्हें लम्बे इंतज़ार के बाद मिल रहा है. इस दौरान हुई देरी के पीछे जो वजह थी, वह वजह भी कभी खत्म होती नहीं दिखी. लिहाज़ा यह विलम्ब अकारण कहा जाएगा. यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को लेकर न कांग्रेस विरोधी में कोई खौफ़ है न खुद कांग्रेस के अंदर कोई खुशी. कांग्रेस में इससे कोई उम्मीद जगेगी, ऐसा दावा पक्के कांग्रेसी भी नहीं कर सकते. दरअसल राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना औपचारिक रस्म भर बनकर रह गया है. जबसे सोनिया बीमार हुई हैं, तबसे राहुल गांधी तकरीबन पार्टी प्रमुख की भूमिका में हैं.

* राहुल की ताजपोशी और कपिलदेव का संन्यास : तुलना अनायास

तुलना तो नहीं हो सकती, लेकिन राहुल के पार्टी अध्यक्ष बनने की स्थिति को देखते हुए क्रिकेट खिलाड़ी कपिलदेव की याद आ रही है जिनके संन्यास लेने की चर्चा उनके 300 टेस्ट विकेट की उपलब्धियां हासिल करने के बाद से ही होने लगी थी. 431 टेस्ट विकेट आते-आते लम्बा वक्त गुजर गया. हर क्रिकेट सीज़न में उनके संन्यास की चर्चा होती रही और आखिरकार जब उन्होंने संन्यास लिया, तब ऐसा महसूस हुआ मानो फैसला लेने में विलम्ब कर दिया गया हो. उनके मुकाबले सुनील गावस्कर का मेलबॉर्न क्रिकेट मैदान पर शतक लगाने के बाद लिया गया संन्यास का फैसला यादगार बन गया क्योंकि उन्होंने टाइमिंग सही रखते हुए सबको चौंकाया. राहुल गांधी के लिए भी ऐसा महसूस हो रहा है मानो उन्हें कांग्रेस की बागडोर सौंपने में कांग्रेस ने बहुत देर कर दी है. अनुभव अर्जित करने के नाम पर उनसे केवल काम लिया गया और इस दौरान उन पर नकारात्मक उपलब्धियां लाद दी गयीं.


* उमर, अखिलेश, तेजस्वी जैसे खुशनसीब नहीं निकले राहुल

राहुल गांधी न अपने हम उम्र उमर फारूक की तरह खुशनसीब निकले, जिन्हें उनके पिता ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सज़ाकर पेश कर दी. न अखिलेश यादव की तरह भाग्यशाली निकले राहुल गांधी, जिनके लिए मुलायम सिंह ने चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री का ताज उनके सिर पर रख दिया. सोनिया चाहतीं तो मुलायम की भूमिका भी अदा कर सकती थीं और लालू प्रसाद की भी, जिन्होंने अपने दोनों बेटों को गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री और मंत्री बना डाला. लेकिन वंशवाद की राजनीति की तोहमत झेलता रहा यह परिवार न सोनिया को प्रधानमंत्री बनते देख पाया और न ही राहुल के लिए बनी बनायी कुर्सी ही तैयार कर सका. उन्होंने रॉबर्ट वाड्रा की तरह किसी सरकारी कृपा का भी फायदा नहीं उठाया.


* वंशवाद की गालियां ही खाते रह गये राहुल

राहुल के लिए पार्टी में महासचिव और उपाध्यक्ष बनना ही वंशवाद की गाली बन गयी. जब उन्होंने अपने कुर्ते की फटी जेब से हाथ निकाला था, तब लोगों ने इसे हास्य का विषय बना डाला. बेवजह वंशवाद की इस गाली की पीड़ा का असर राहुल पर दिखता है जब वे अमेरिका में वंशवाद पर सफाई देते दिखते हैं. वे उदाहरण देकर वंशवाद को भारतीय समाज और दुनिया के समाज की सच्चाई बताने की कोशिश करते हैं. इस पर भी उनकी खिल्ली उड़ती है. फिर भी राहुल ने हार नहीं मानी है. भले ही राहुल के लिए राजनीतिक विरासत की ज़मीन खिसकती रही, लेकिन वे राजनीतिक परिपक्वता के मामले में मजबूत ही होते गये हैं. बावजूद इसके राहुल को कांग्रेस का स्वाभाविक नेता माना जा सकेगा, इसमें संदेह है.

* कांग्रेस को फिर से ज़िन्दा करने की है बड़ी चुनौती

राहुल को अपना नेतृत्व साबित करना होगा. यही उनके लिए बड़ी चुनौती है. पार्टी अध्यक्ष बनते ही वह राजनीतिक रूप से माता सोनिया के साये से दूर हो जाएंगे या माने जाएंगे. यही वक्त होगा जब उनके पास मौका होगा कि वे अपनी पार्टी के लिए सांगठनिक और वैचारिक रूप से मजबूत आधार तैयार करें. ऐसा करते हुए उन्हें सफलता मिलेगी और निश्चित रूप से मिलेगी, मगर तब भी वंशवाद का आरोप शायद ही उनका पीछा छोड़े. ऐसे में वंशवाद के आरोप से बेपरवाह रहना राहुल को सीखना होगा.

* विपत्ति में भी नहीं टूटी कांग्रेस, पर नहीं मिला राहुल को श्रेय

2014 के आम चुनाव में ऐतिहासिक हार के बावजूद कांग्रेस में टूट नहीं हुई, पार्टी बिखरी नहीं- इसका श्रेय राहुल गांधी को नहीं दिया जाता है जबकि वे इसके हकदार हैं. यहां तक कि राजीव गांधी को भी अपनी पार्टी में टूट का सामना करना पड़ा था. सोनिया गांधी के नेतृत्व में विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी टूट गयी थी. मगर, 2014 के बाद ऐसा नहीं हुआ, जबकि वास्तव में सोनिया की निष्क्रियता के बीच राहुल गांधी ही पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. राहुल पर कांग्रेस और यूपीए की हार का ठीकरा फोड़ा जाता है, जबकि इसके लिए राहुल के मुकाबले यूपीए वन और टू का एंटी इनकम्बेन्सी और मोदी लहर कहीं अधिक जिम्मेदार है.

* पराजित गठबंधन की अगुआई का मौका

एक बार फिर एक पराजित गठबंधन की अगुआ रही कांग्रेस का अध्यक्ष बनने का मौका राहुल को मिल रहा है. चुनौतियां बड़ी हैं. एक साथ कई मोर्चों पर राहुल को लड़ना होगा. संगठन को खड़ा करना, गठबंधन को नये सिरे से तैयार करना और नीतिगत मोर्चे पर बीजेपी सरकार के खिलाफ विकल्प बनने की तैयारी करना आसान काम नहीं है. लेकिन, ये राहुल को करना होगा. तभी राहुल वंशवाद के आरोप लगाने वालों को सही मायने में चुप करा सकेंगे.

ये लेखक के अपने निजी विचार हैं. (लेखक आईएमएस, नोएडा में एसोसिएट प्रोफेसर हैं).

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