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Thursday, March 28, 2024

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कलावंती की कविताओं में पढ़ें नारी मन की अद्‌भुत अभिव्यक्ति

कलावंती रांची (झारखंड) की रहने वाली हैं. इन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया है, पत्रकारिता में डिग्री, देश भर की सभी बड़ी पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है, दूरदर्शन व रेडियो से भी रचनाओं का प्रकाशन. संप्रति : रांची रेल मंडल के जनसंपर्क विभाग में जनसंपर्क निरीक्षक के पद पर कार्यरत, संपर्क : […]

कलावंती रांची (झारखंड) की रहने वाली हैं. इन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया है, पत्रकारिता में डिग्री, देश भर की सभी बड़ी पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है, दूरदर्शन व रेडियो से भी रचनाओं का प्रकाशन. संप्रति : रांची रेल मंडल के जनसंपर्क विभाग में जनसंपर्क निरीक्षक के पद पर कार्यरत, संपर्क : 9771484961

प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं, जिनमें उन्होंने नारी मन की भावनाओं को बखूबी चित्रित किया है. कैसे एक नारी अपनी इच्छा से जीना चाहती है, उसकी विवशता, उसके हृदय का प्रेम, सब कुछ उनकी कविताओं में परिलक्षित होता है.
1
लड़की
लड़की भागती है
सपनों में, डायरी में
लड़की घर से भागती है, घर की तलाश में .
लड़की देखती है उड़ती पतंगें और तौलती है पांव.
उसके देह से निकली खुशबू फैलती है,
घर आंगन तुलसी और देहरी तक.
बाबूजी की चिंताओं सी ताड़ हुई,
अम्मा की खीझ में पहाड़ हुई,
लड़की घुटनों पर सिर डाले
उलझे उलझे सपनों मे, आाधी सोती, आाधी जागती
एकदिन जब उसके मन के दरवाजे होंगे साझीदार
सोचती है,
और खिडकियां गवाह.
वह दूब से उसका हरापन मांग लायेगी,
सूरज से उधार लेगी रौशनी.
चिड़िया से पूछेगी दिशा,
और आसमान का नीला रंग
उसके दुप˜ट्टे में सिमट आएगा.
2
नारी
वेदमंत्रों में उच्चरित
अर्द्घनारीश्वर की महिमा मुझे तो
कहीं दिखती नहीं,
इसलिए बहुत सोचती हूं इसपर
मेरी सारी सोच
जब किसी निराश बिंदू पर जाकर ठहर
जाती है
तो मेरी पूरी कोशिश होती है,
मैं इस बंद दरवाजे के
आगे की कोई राह तलाश लूं.
औरत से जुड़ी मेरी अनुभूतियां, कैनवास की खोज करती
कागज पर उतरने से रूकती है, कांपती है.
नारी तुमसे जुड़े अंत नकारात्मक ही क्यों
ठहरते हैं मेरी चेतना में.
तुम उर्वशी हो, अहिल्या हो
कैकयी हो ,कौशल्या हो
किंतु तुम सबकी नियति
किसी न किसी राम या गौतम से
जुड़ी है.
3
ओ कृष्ण
ओ कृष्ण
यदि समाज की ,
इतिहास की,
व्यक्ति की नियति पहले से निर्धारित है
तो
कहां रह जाता है प्रश्न पाप पुण्य का
छायालोक में भटकते प्रेत से
इस प्राण को स्वीकार कर लो तुम
यह तुम्हारी ही उदघोषणा है
सर्व घर्मात परित्यज्य मामेकम् शरणव्रज
4
पिता
पिता जब तक थे जीवित
कितनी बड़ी आश्वस्ति थे.
ठीक चले गये उस समय
जिस समय मेरे पंखों ने, उड़ान की तैयारी की़
पिता ने अपनी अंतिम उड़ान ले ली़
पिता ने किये थे क्या क्या जतन मेरे लिए,
अब जब बिखरे हैं सुख, मेरे आस पास
तो सोचती हूं
काश पिता देख पाते कि
मैंने ठीक उनके सपनों से
कुछ नीचे ही सही
पर बना तो ली है,
अपनी एक दुनिया.
5
प्रेम
मैंने कहा
प्रेम,
और झर पडे़
कुछ हरसिंगार
मैंने कहा स्नेह,
और बिछ गये गुलाब.
मैंने कहा मित्रता,
और भर गयी
सिर से पांव तक अमलतास से़
और जिंदगी
तुम्हारी शुभाकांक्षाओं के उजास से.
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