एक महिला ने लिखा है, उसके दो बेटे हैं. पहले बेटे के दो बच्चे हैं, एक 4 और दूसरा 1 वर्ष का है. दूसरे बेटे का बेटा 4 महीने का है. दोनों चाहते हैं कि वह उनके पास रहें. एक बेटा भारत के बाहर रहता है. उनका कहना है कि जब वह बाहर गया था तो उनकी इच्छा थी उसके साथ जाने की, मगर बेटे ने यह कह कर मना कर दिया कि ‘क्या करोगी जाकर ? यहां आपको कौन देखेगा ? फिर फ्लाइट का टिकट भी बहुत ज्यादा है.’ वह 7 साल से बाहर है.
इस बीच तीन बार उन्होंने बेटे से कहा कि वह उसके साथ जाना चाहती है ताकि बेटे को परेशानी न हो. मगर बेटे ने मना कर दिया. पहले बच्चे के समय भी मां ने कहा था कि आ जाऊं, तो बेटे ने कहा कि ‘आप क्या करेंगी? अलका (काल्पनिक) की मां आ रही हैं. वह उससे भी मिल लेंगी और नाती को भी देख लेंगी.’ मैं भी तो अपने बेटे और पोते से मिलना चाह रही थी, मगर मैं नहीं जा पायी और दो वर्ष के बाद देख पायी जब वे यहां आये. अब जबकि मेरे छोटे बेटे को जरूरत है, तो बड़ा कह रहा है कि मैं उसके पास जाऊं क्योंकि इंडिया में तो बच्चे को संभालनेवाली मिल जायेगी, लेकिन वहां दिक्कत होगी. उन्होंने ये शब्द बड़े भारी मन से लिखे होंगे कि ‘मुझे इतना खराब लगा कि जैसे मैं आया हूं जो बच्चा संभालने जायेगी.’ उन्होंने यह भी लिखा कि उन्होंने दोनों बहुओं को बेटी की तरह प्यार दिया, मगर वे मुझे मां नहीं समझतीं.
बड़ी तो ज्यादा रही नहीं यहां, लेकिन छोटी घर में ऐसे रहती है जैसे किराये पर हो. अगर कोई हमारा रिश्तेदार आता है, तो उसके सिर में दर्द होता है और उसके घरवाले आते हैं तो टेबुल पर डिशेज रखने की जगह नहीं होती. उन्होंने लिखा है कि उसमें दोनों की क्या गलती ? आज मां को ये बातें समझानी होंगी कि जिस घर में जा रही हो, अब उस घर का मान-सम्मान तुमसे जुड़ा है. अपनी सास को मां समझना.
इसे पढ़ कर वाकई दुख हुआ. हर बार गलती बड़ों की नहीं होती. हम अक्सर चर्चा करते हैं कि सास को अच्छी मां बनना होगा और बहू को बेटी, तभी घर की गाड़ी प्यार के साथ बढ़ेगी.
मैं आज भी दोहरा रही हूं कि दुख वहां ज्यादा होता है जहां आपको अपनों से, उनकी बातों से दुख पहुंचता है. वरना गैर कुछ कहें तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. आप अगर गौर से पढ़ कर सोचें तो आपको एहसास होगा कि उस मां को यह दुख है कि उसे उसका बेटा इसलिए नहीं बुला रहा कि उसे मां याद आती है या कमी खलती है, बल्कि इसलिए बुला रहा है क्योंकि बाहर ‘आया’ या ‘मेड-सरवेंट’ नहीं मिलते या बहुत मुश्किल से मिलते हैं, जिसके लिए मोटी रकम अदा करनी पड़ती है. मैं आज के युवाओं से भी कह रही हूं – आप कृपया सोच कर देखें, इस पर चिंतन करें कि क्या मां आपके लिए मेड है? उसने आपको जन्म दिया.
अपना सब कुछ भूल कर आपको पाला, इस लायक बनाया कि आप बाहर रह कर कमा-खा रहे हैं, तो क्या उसके लिए आपका फर्ज नहीं ? अगर सास की परवाह है कि वह बेटी व नाती से मिल लेगी, तो क्या मां नहीं चाहेगी कि वह अपने बेटे और पोते को देखे. बच्चों के विवाह के बाद तो माता-पिता पोता-पोती देखने के लिए लालायित रहते हैं. जब मौका आये और मां कहे कि वह आ जाये, इस पर बेटा जवाब दे कि बहू की मां आ रही है, वह बेटी से मिल लेगी, नाती को देख लेगी. उसे बताया जाये कि टिकट भी भेज दिया गया.
अब सोचिए, उस मां के दिल पर क्या गुजरेगी ? जिसने एक-एक पाई जोड़ कर आपकी पढाई कराई. खुद चाहे दूध-फल ना खायें हों, मगर बच्चों को खिलाये, यह कह कर कि तुम पढ़ रहे हो, तुम्हें ज्यादा जरूरत है और उसी बच्चे के पास मां को बुलाने के वास्ते टिकट के रुपये नहीं और सास को टिकट भी भेज दिया !
जब कोई नहीं मिला, तो बेटा यह कह कर बुलाये कि वहां तो ‘आया’ मिल जायेगी, यहां नहीं मिलती… ऐसा सोच कर क्या आज के युवा अपनी मां को नौकरानी का दर्जा नहीं दे रहे? अगर इतनी ही मजबूरी थी तो यह भी कह सकते थे न कि मां आपकी याद आ रही है.
आपके पोते को आपकी जरूरत है. मां समझ भी जाती कि आप दिखावा कर रहे हैं, मगर एक परदा, एक लिहाज जो रिश्ते और भावनाओं का है, वह तो बचा रहता. कोई भी किसी के आगे नग्न नहीं होना चाहता. यह भावनाओं की नग्नता है, जो इस तरह की घटिया बातें करते हैं. यही वे बिंदु हैं जहां आपसी प्रेम ईर्ष्या में बदलता है. बेटे के बिगड़ने का दोष बहू पर होता है और होगा भी क्यूं नहीं ? क्योंकि बहू ने मना नहीं किया कि मां से इस तरह बात मत करो, मां को खराब लगेगा.
यह भी सच है, न तो एक हाथ से ताली बजती है और न एक पहिये पर गाड़ी चलती है. जब तक सास-बहू दोनों के हाथ नहीं जुड़ेंगे, ताली नहीं बजेगी. गाड़ी चलाने के लिए सास-बहू दोनों को एक-एक पहिया बनना होगा वरना एक पहिये पर गाड़ी घिसट भी नहीं पायेगी और केवल सास-बहू का रिश्ता ही क्यूं ?
हर रिश्ते के लिए पहल और निभाने का जज्बा, समझने की नजर दोनों तरफ से ही होनी चाहिए, तभी कोई रिश्ता जीवित रह सकता है, वरना ‘रिश्तों में कंजेशन’ यानी रिश्ते के मार्ग में कचरा फंसने से सांस लेने में भी तकलीफ होगी. प्रयास तभी सार्थक होंगे, जब दोनों तरफ से हों.
क्रमश: