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सेना की चुनौतियां: युद्ध के लिए नहीं हैं जरूरी साजो-सामान!

!सुशांत सिंह!! यह कोई रहस्य नहीं है कि युद्ध की स्थिति में परमाणु संयंत्र, बांध, ऊर्जा संयंत्र, तेल शोधक केंद्र और बारूद के गोदाम जैसे देश के महत्वपूर्ण ठिकानों पर खतरा रहेगा. मार्च, 2012 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था कि ‘सेना के हवाई रक्षा तंत्र का […]

!सुशांत सिंह!!

यह कोई रहस्य नहीं है कि युद्ध की स्थिति में परमाणु संयंत्र, बांध, ऊर्जा संयंत्र, तेल शोधक केंद्र और बारूद के गोदाम जैसे देश के महत्वपूर्ण ठिकानों पर खतरा रहेगा. मार्च, 2012 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था कि ‘सेना के हवाई रक्षा तंत्र का जखीरा पुराना पड़ चुका है.’ चार सालों के बाद आज भी इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. हवाई रक्षा तंत्र की क्षमता के आधुनिकीकरण के किसी भी कार्यक्रम में कोई प्रगति नहीं हुई है.

हवाई क्षेत्र की निगरानी और सुरक्षा वायुसेना के जिम्मे है, जिसके पास सिर्फ 32 लड़ाकू स्क्वैड्रन हैं, जबकि जरूरत 45 की है. महत्वपूर्ण ठिकानों की सुरक्षा की जिम्मेवारी थल सेना की है, जो जमीनी हवाई सुरक्षा आयुध प्रणाली के जरिये यह काम करती है. इन ठिकानों पर आखिरी सुरक्षा हवाई रक्षा तोप के द्वारा दी जाती है. सेना के जखीरे में दो तरह की ऐसी तोपें हैं- स्वीडिश एल-70 40एमएम और सोवियत जेडयू-23 तोपें. ये दोनों नयी सदी के आगमन के साथ ही बेकार हो चुकी हैं. सेना के एक अधिकारी के अनुसार, दुश्मन के लड़ाकू विमान आवाज की गति से भी तेज हैं और उनका मुकाबला करने में ये तोपें सक्षम नहीं हैं. सेना ने 2005 में इन्हें हटाने का अनुरोध किया था और इससे संबंधित एक प्रस्ताव 2013 में रक्षा मंत्रालय की ओर से दिया गया, पर इसे एक साल के बाद ही वापस ले लिया गया, क्योंकि सिर्फ एक ही आपूर्तिकर्ता ने इसमें दिलचस्पी दिखायी थी. अधिकतर आपूर्तिकर्ताओं की नजर में प्रस्ताव में जो वांछनीयता थी, व्यावहारिक नहीं थी. अप्रैल, 2014 में नया प्रस्ताव जारी हुआ, पर इसका अब तक कोई नतीजा नहीं आया है.

इस वर्ष मार्च में निजी क्षेत्र की कंपनी पुंज लॉयड के साथ इन तोपों को बेहतर बनाने के लिए खर्च पर सहमति बनी है. सेना की जमीनी हवाई सुरक्षा तंत्र का दूसरा हिस्सा मिसाइल प्रणाली है. यह भी 25-30 साल पुराना हो चुका है. इनमें नयी मिसाइलें जोड़ने की तैयारी के क्रम में परीक्षण का काम पूरा हो चुका है, पर अब तक खरीद नहीं हुई है.

इस संकट का दूसरा पहलू यह है कि मिसाइलों और तोप के गोलों की संख्या बहुत कम है. सूत्रों का आकलन है कि युद्ध की स्थिति में गोला-बारूद महज सात दिन के लिए ही उपलब्ध हैं, जबकि यह जखीरा कम-से-कम 20 दिनों का होना चाहिए. इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रशिक्षण के दौरान गोला-बारूद खर्च करने को सीमित कर दिया गया है. एक कर्नल ने बताया कि उनकी यूनिट ने साढ़े चार सालों के उनके कार्यकाल में एक भी गोला नहीं दागा था. आयुध फैक्टरीज बोर्ड जरूरत के मुताबिक तोप के गोले निर्मित करने की स्थिति में नहीं है और इससे बेहतर बनाने की कोशिशें असफल रही हैं. मिसाइलों की औसत आयु सात साल होती है और अधिकतर मिसाइलें यह समय-सीमा पार कर चुकी हैं. परीक्षण के बाद इन्हें रखने की अवधि एक साल बढ़ा दी जाती है, लेकिन सेना इनके भरोसे को लेकर आशंकित है. पुराने मिसाइल और गोला बारूद दुर्घटना भी कर सकते हैं जिससे जान-माल का नुकसान हो सकता है.

सीएजी की 2015 की रिपोर्ट की खास बातें

सेना के पास 40 दिनों के गंभीर युद्ध के लिए पर्याप्त गोला-बारूद उपलब्ध होना चाहिए. परंतु सीएजी ने पिछले साल बताया था कि ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट में मांग की पूर्ति को फैक्टरियों द्वारा पूरा नहीं कर सकने और विदेश से खरीद में बेमानी धीमी गति को दोषी ठहराया गया है. गोला-बारूद की कमी का बहुत नकारात्मक असर प्रशिक्षण पर भी पड़ा है.

-20 दिन भी नहीं चल सकेगा 170 में से 125 तरह के गोला-बारूद का जखीरा घमसान की स्थिति में.

-10 दिन भी नहीं चल सकेगा 85 तरह के गोला-बारूदों, खासकर टैंकों और तोपों के लिए, का जखीरा.

-17.50 फीसदी गोला-बारूद अलग-थलग, जीर्ण-शीर्ण और बेकार हालात में पड़े हैं.

आर्मी एविएशन कोर में हेलीकॉप्टरों की कमी
भारतीय सेना के आर्मी एविएशन कोर में हेलीकॉप्टरों की संख्या अधिकृत फ्लीट से कम होने के साथ-साथ इनमें से बहुत ऐसे हैं, जो काफी पुराने हो चुके हैं. सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा फ्लीट में करीब 52 फीसदी हेलीकॉप्टर 30 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं.

-10वीं योजना अवधि (2002-07) से आर्मी एविएशन कोर हेलीकॉप्टर नहीं खरीद सका है.

-आर्मी एविएशन कोर द्वारा हेलीकॉप्टर और उसके उपकरण खरीदने के लिए 11वीं और 12वीं योजना के तहत 18 स्कीम निर्धारित किये गये थे, जबकि इस दौरान केवल चार को ही निबटाया जा सका.

-पुराने हो चुके फ्लीट को बदलने में देरी का बड़ा कारण एक्विजिशन प्लान के मुताबिक निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति करनेवाले विकल्पों का अभाव और खरीद प्रक्रिया में शिथिलता बताया गया है.

-कई बार रद्द होने के बाद पिछले वर्षों भारत ने रूसी कोमोव- 226टी यूटिलिटी हेलीकॉप्टर को चुना है, जिसका निर्माण टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के तहत भारत में ही किया जायेगा.

20 दिनों के युद्ध के लिए भी नहीं है गोला-बारूद

भारतीय सेना के पास 20 दिनों तक चलनेवाले भीषण युद्ध से ज्यादा का आयुध यानी गोला-बारूद नहीं है. सेना के पास हमेशा इनका इतना भंडार होना चाहिए, जिससे कम-से-कम 40 दिनों तक युद्ध लड़ा जा सके. सीएजी की एक रिपोर्ट में इस बारे में चेतावनी भी दी गयी है.

कुछ खास

-13,390 करोड़ रुपये मंजूर किये जा चुके हैं एलसीए यानी लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट के लिए.

-3,578 करोड़ रुपये का गोला-बारूद मौजूद है देशभर के विविध आयुध भंडारों में.

-1,618 करोड़ रुपये मूल्य के खराब गोला-बारूद को सेना ने रिजेक्ट कर दिया है.

-814 करोड़ रुपये मूल्य के गोला-बारूद को खराब गुणवत्ता के कारण सेना ने इस्तेमाल में नहीं ला सकने योग्य करार दिया है.

-2,109 करोड़ रुपये मूल्य के आयुध ऐसे हैं, जिन्हें मरम्मत की जरूरत है.

-13,390 करोड़ रुपये मंजूर किये जा चुके हैं एलसीए यानी लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट के लिए.

3,578 करोड़ रुपये का गोला-बारूद मौजूद है देशभर के विविध आयुध भंडारों में.

-1,618 करोड़ रुपये मूल्य के खराब गोला-बारूद को सेना ने रिजेक्ट कर दिया है.

-814 करोड़ रुपये मूल्य के गोला-बारूद को खराब गुणवत्ता के कारण सेना ने इस्तेमाल में नहीं ला सकने योग्य करार दिया है.

-2,109 करोड़ रुपये मूल्य के आयुध ऐसे हैं, जिन्हें मरम्मत की जरूरत है.

-संसद में पेश एक रिपोर्ट में कहा गया था कि तेजस जैसे युद्धक क्षमताओं से लैस लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट की व्यापक कमी है.

-आयुधों के घोर अभाव के बारे में ‘फर्स्ट पोस्ट’ की एक रिपोर्ट में तो यहां तक दावा किया गया है कि सभी प्रकार के आयुध के करीब 50 फीसदी गंभीर रूप से कम हैं, जो 10 दिनों के युद्ध के लिए भी पर्याप्त नहीं होंगे.

-युद्धक विमानों में इलेक्ट्रॉनिक क्षमतावाले उपकरणों की बेहद कमी है, जो अनुकूल माहौल में आसान लक्ष्य को भेदने में सफल हो सकते हैं.

-लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट में सेल्फ-प्रोटेक्शन जैमर्स पूरी तरह से फिट नहीं हैं और इनके रडार वार्निंग रिसीवर से जुड़ा मसला अब तक सुलझाया नहीं जा सका है. नतीजतन, पायलट संचालन में पूरी दक्षता के साथ इसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं.

-भारतीय वायुसेना 40 एलसीए मैक-1 एयरक्राफ्ट्स की सीमित संचालन क्षमताओं के साथ उनका इस्तेमाल करने को मजबूर है.

निर्माण और आपूर्ति में देरी

-एलसीए के निर्माण और उसकी आपूर्ति में होनेवाली देरी के कारण भारतीय सेना को उसके पास मौजूद मिग बीआइएस, मिग-29, जगुआर और मिराज एयरक्राफ्ट जैसे मौजूदा लड़ाकू विमानों को ही अपग्रेड करने जैसे अस्थायी समाधान करना होगा. इसके अलावा, अन्य उपायों के तौर मिग-21 को हटाने के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा.

1,300 करोड़ रुपये के खराब गोला-बारूद सेना ने लौटाये खराब बारूद के चलते केंद्रीय बारूद डिपो में लगी थी आग

इस वर्ष मई के महीने में महाराष्ट्र के पुलगांव स्थित केंद्रीय बारूद डिपो में लगी आग का कारण खराब बारूद था. इस दुर्घटना में 19 लोग मारे गये थे और आठ करोड़ से अधिक मूल्य के साजो-सामान बर्बाद हुए थे. इस हादसे की जांच के दौरान यह जानकारी सामने आयी कि सेना ने पिछले तीन सालों में 1,300 करोड़ से अधिक कीमत के हथियार और गोला-बारूद आयुध फैक्टरियों को लौटाये हैं, क्योंकि उनमें बहुत खामियां थीं. यह बात इस सूचना के संदर्भ में बहुत चिंताजनक हो जाती है कि सेना के पास युद्ध की स्थिति में साजो-सामान पर्याप्त नहीं हैं. रक्षा मंत्रालय के अनुसार, पिछले तीन सालों में लौटायी गयी सामग्री में 185 तरह के हथियार और 70 तरह के गोला-बारूद, छोटे हथियार, युद्ध में इस्तेमाल होनेवाले वाहन और औजार शामिल हैं, जिन्हें सुधारने के लिए वापस भेजा गया है, क्योंकि वे इस्तेमाल के लायक नहीं थे. सेना पुराने गोला-बारूद का प्रयोग प्रशिक्षण के लिए करती है, जबकि कार्रवाईयों में नयी चीजों को उपयोग में लाया जाता है.
(द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट का अंश. साभार)

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