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बड़े काम की हैं ये दवाएं

डॉ रवि कीर्ति हेड, डिपार्टमेंट आॅफ मेडिसिन, एम्स, पटना टाइप 1 डायबिटीज में एंटी बॉडीज के कारण पैंक्रियाज से इंसुलिन बनना बंद हो जाता है. यह रोग आनुवंशिक होने के कारण कम उम्र में ही हो जाता है. उपचार सिर्फ इंसुलिन है, जिसे जीवन भर लेना पड़ता है. टाइप 2 डायबिटीज में इंसुलिन होने के […]

डॉ रवि कीर्ति
हेड, डिपार्टमेंट आॅफ मेडिसिन, एम्स, पटना
टाइप 1 डायबिटीज में एंटी बॉडीज के कारण पैंक्रियाज से इंसुलिन बनना बंद हो जाता है. यह रोग आनुवंशिक होने के कारण कम उम्र में ही हो जाता है. उपचार सिर्फ इंसुलिन है, जिसे जीवन भर लेना पड़ता है.
टाइप 2 डायबिटीज में इंसुलिन होने के बावजूद ब्लड शूगर बढ़ जाता है. असल में शरीर इंसुलिन के प्रति असंवेदनशील हो जाता है. इस कारण पैंक्रियाज को अधिक इंसुलिन बनाना पड़ता है. अधिक काम करते-करते पैंक्रियाज थकने लगता है, तब डायबिटीज के लक्षण प्रकट होने लगते हैं. टाइप 2 में शुरू में इंसुलिन लेना जरूरी नहीं होता है. शुरू में कुछ टेबलेट से भी काम चल जाता है. मुख्य रूप से तीन या चार प्रकार के टेबलेट इस्तेमाल में लाये जाते हैं. आम तौर पर डायबिटीज की शुरुआत में मेटाफार्मिन या ग्लीटाजोन दवाएं दी जाती हैं.
ये दवाएं शरीर को इंसुलिन के प्रति संवेदनशील बनाती हैं. इनके अलावा दो अन्य तरह की दवाएं भी दी जाती हैं-सल्फोनाइल यूरिया और ग्लिप्टिन.
सल्फोनाइल यूरिया : यह पैंक्रियाज में पहले से मौजूद इंसुलिन को निचोड़ कर रक्त में पहुंचा देती हैं. प्रतिदिन इस पर आनेवाला औसत खर्च 10 रुपये के आस-पास है.
ग्लिप्टिन : यह भी पैंक्रियाज को इंसुलिन के स्राव के लिए प्रेरित करता है. इसका औसत खर्च लगभग 40 रुपये प्रतिदिन है.
इन दोनों में मुख्य अंतर यह है कि सल्फोनाइल यूरिया हर हाल में पैंक्रियाज से इंसुलिन का स्राव कराता है. मरीज ने खाना खाया है या नहीं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है. अत: कभी-कभी खाना नहीं खाने के कारण ब्लड शूगर का लेवल कम भी हो जाता है, जो खतरनाक हो सकता है.
ग्लिप्टिन का भी यही काम है, लेकिन यह दवा खाना खाने के बाद असर करती है. इस कारण ब्लड शूगर लो नहीं होता है. इस लिहाज से ग्लिप्टिन, सल्फोनाइल यूरिया की तुलना में अधिक सुरक्षित है लेकिन महंगे होने के कारण प्रयोग कम होता है. इस कारण से सल्फोनाइल यूरिया देना पड़ता है. मरीज को सावधानी बरतने के लिए कहा जाता है.
बातचीत : अजय कुमार
नोट : यह लेख िसर्फ मागदर्शन के िलए है. िबना चिकित्सीय सलाह के दवा न लें.
किस स्टेज में कौन-सी दवाई दी जाती है?
यदि मरीज प्री-डायबिटिक स्टेज में हो, तो उसे दवाई नहीं दी जाती. यह डायबिटीज होने से ठीक पहले की स्टेज है. इसमें मरीज को जीवनशैली में परिवर्तन करने के लिए कहा जाता है. इसका उद्देश्य ब्लड शूगर को कंट्रोल करना होता है. डायबिटीज हो जाने के बाद शुरुआत मेटाफार्मिन से की जाती है.
जब इससे ब्लड शूगर कंट्रोल नहीं होता है, तब सल्फोनाइल यूरिया का प्रयोग किया जाता है. बाद में ग्लिप्टिन का सहारा लिया जाता है. जब ये सभी दवाएं बेअसर हो जाती हैं, तब इंसुलिन का सहारा लिया जाता है.
यदि ब्लड शूगर लेवल सामान्य से कम हो जाये, तो क्या परेशानी हो सकती है?
कभी-कभी दवाओं से ब्लड शूगर लेवल सामान्य से कम हो जाता है. मरीज में पसीना आने, घबराहट व बेहोशी के लक्षण दिख सकते हैं.
अत: मरीज हमेशा पास में चीनी रखें. ऐसे लक्षण दिखने पर या स्थिति बिगड़ने लगे, तो थोड़ी-सी चीनी खा लें. इससे तुरंत सुधार होने लगता है. इस चीनी का असर ज्यादा देर तक नहीं रहता है. अत: स्थिति में सुधार होते ही मरीज को तुरंत रोटी या कुछ अन्य चीज खा लेनी चाहिए. इसका असर अधिक समय तक रहता है.
किन बातों का ध्यान रखें
डायबिटीज के इलाज का उद्देश्य सिर्फ ब्लड शूगर लेवल को कंट्रोल करना नहीं होता है. इसका उद्देश्य इसके कारण शरीर पर पड़नेवाले दुष्प्रभावों को भी कम करना है. ब्लड शूगर लेवल बढ़ने के कारण शरीर में मौजूद नसों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है. इससे सभी अंगों पर दुष्प्रभाव पड़ता है. इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए मरीज को समय-समय पर बीपी एवं साल में एक बार आंखों की जांच करानी चाहिए. रोज व्यायाम करना चाहिए और वजन नियंत्रित रखना चाहिए.
कभी-कभी जब ब्लड शूगर कंट्रोल में आ जाता है, तो मरीज खुद को स्वस्थ समझने लगता है और दवा खाना बंद कर देता है. इसका परिणाम गंभीर हो सकता है. मरीज के शरीर को अंदर से नुकसान होता रहता है. नुकसान ज्यादा हो जाने पर वह रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होता है. टेस्ट करवाते रहने से इसका पता चल जाता है.

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