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स्मॉग का कहर : चीन से भारत को सीख लेने की जरूरत

हाल के वर्षों में चीन ने जिस प्रकार वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने में कामयाबी पायी है, भारत उससे बहुत कुछ सीख सकता है. वर्ष 2008 के ओलिंपिक के दौरान चीन की प्रदूषित हवा की स्थिति पर दुनियाभर में सुर्खियां बनी थीं. लेकिन, चीन ने तेजी और प्रतिबद्धता दिखाते हुए हाल के वर्षों में […]

हाल के वर्षों में चीन ने जिस प्रकार वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने में कामयाबी पायी है, भारत उससे बहुत कुछ सीख सकता है. वर्ष 2008 के ओलिंपिक के दौरान चीन की प्रदूषित हवा की स्थिति पर दुनियाभर में सुर्खियां बनी थीं. लेकिन, चीन ने तेजी और प्रतिबद्धता दिखाते हुए हाल के वर्षों में इस पर काफी हद तक काबू पा लिया है. शहरों में वायु गुणवत्ता निगरानी की जांच, निगरानी तंत्र, पर्यावरणीय प्रभाव की निगरानी और नियमों के उल्लंघन पर भारी जुर्माने जैसे कदम उठाये. व्यापक स्तर पर ऊर्जा पर निर्भरता के बावजूद कोयला संचालित संयंत्रों और इस्पात कारखानों पर भी कड़ी निगरानी रखी गयी. वाहनों के प्रदूषण से निबटने के लिए कई कठोर फैसले किये गये. पर्यावरण सुरक्षा को प्राथमिकता देने की प्रक्रिया लंबी और अक्सर विवादित हो जाती है, जिससे सरकारें कड़े फैसले कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं.

क्या कहते हैं जानकार

शहरों और प्रशासन के लिए जरूरत इस बात की है कि वे उत्सर्जन में कमी लाने हेतु साहसिक निर्णय लें. पर्यावरण प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) प्राधिकरण (इपीसीए) द्वारा पिछले दिनों सुझाये तथा निर्देशित किये गये कदमों का उद्देश्य बिल्कुल यही है. अब यह दिल्ली तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के राजनीतिक नेतृत्व पर निर्भर है कि वे इनके क्रियान्वयन की दिशा में आगे काम करें. दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को निर्णायक कदमों पर गौर करना ही चाहिए, जिनके तात्कालिक के साथ ही दूरगामी प्रभाव भी होंगे. इस हेतु राजनीतिक नेतृत्व के आगे आने की जरूरत है, जिसका इस वक्त अत्यंत अभाव है.

– सुनीता नारायण, महानिदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट

यह अस्थायी कदमों का वक्त नहीं है. हम यह यकीन करते हैं कि स्कूलों को बंद करने का फैसला ज्यादा से ज्यादा सिर्फ एक अस्थायी कदम ही है. अहम यह है कि बच्चों को प्रदूषित हवा में जाने, उसे सांसों द्वारा अंदर लेने से बचाया जाये. सच्चाई यह है कि स्कूलों को बंद करने से बच्चे अपना खाली वक्त बिताने घरों से बाहर निकल खेलेंगे और इससे उन पर इस हवा का असर और अधिक ही होगा. ‘दिल्ली मेट्रो अकेले ही महानगर के प्रत्येक हिस्से को नहीं जोड़ सकता. जरूरत इसकी है कि नयी बसें लाकर उनके चलने की बारंबारता तत्काल ही बढ़ायी जाये. पिछले तीन वर्षों में एक भी नयी बस नहीं खरीदी गयी. इससे प्रदूषण का संकट और भी बढ़ गया है.

– अनुमिता रॉयचौधरी, कार्यकारी निदेशक-शोध एवं एडवोकेसी, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट

सार्वजनिक परिवहन में व्यापक बढ़ोतरी
दिल्ली सरकार ने डीटीसी बसों की संख्या बढ़ाने की बात कही है. वैसे तो दिल्ली में बसों की व्यवस्था कभी भी आदर्श नहीं रही, पर अभी तो यह भीषण संकट झेल रही है. यदि इसका समाधान न हुआ, तो यह एक ऐसी प्रणाली की क्रमशः मौत की वजह बन जायेगा, जो इस महानगरीय परिवहन की रीढ़ रही है. दिल्ली में वर्ष 2013 से ही बस यात्रियों की तादाद में गिरावट आ रही है, जो अब तक एक तिहाई से भी अधिक घट चुकी है. आज भी यहां बसें रोजाना 30.33 लाख यात्रियों को ढो रही हैं, पर नयी बसें न लाने के कारण उनकी संख्या लगातार घटती जा रही है.

प्रदूषित करनेवाले ईंधन पर पाबंदी

दिल्ली प्रशासन को एक अधिसूचना जारी कर यह स्पष्ट करना चाहिए कि कौन-से ईंधन प्रदूषित करनेवाले हैं, जिनकी दिल्ली में मनाही है. इस संबंध में कोई अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए. एनसीआर के अन्य राज्यों को भी ऐसे ही कदम उठाने चाहिए. पेट कोक तथा फर्नेस ऑयल पर तो तुरंत ही पूरे एनसीआर में रोक लगाने को कड़े कदम उठाये जाने चाहिए. इंडस्ट्रियल इस्टेटों और गैरकानूनी उद्योगों के उत्सर्जनों की कड़ाई से जांच होती रहनी चाहिए. मोटर गाड़ियों, ऊर्जा संयंत्रों तथा उद्योगों को गैस से चलाने पर तब्दील करने का काम भी बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए. विद्युत-चालित गाड़ियों के साथ ही बिजली मुहैया करने की भरोसेमंद व्यवस्था को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, ताकि जेनेरेटरों का इस्तेमाल बंद हो सके.

फसल अवशिष्ट को जलाने पर रोक
बार-बार फसल अवशिष्टों को जलाने और दिल्ली-एनसीआर या अन्य क्षेत्रों की वायु-गुणवत्ता पर इसके बुरे असर से यह स्पष्ट है कि जब तक उत्तरी राज्यों तथा एनसीआर के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा मजबूत प्रतिबद्धता नहीं दर्शायी जायेगी, इस समस्या को सुलझाया नहीं जा सकता. सीएसइ के शोधकर्ताओं के अनुसार, यह पूरी तरह अस्वीकार्य है कि फसल अवशिष्ट को, जो वस्तुतः एक संसाधन है, जला कर न सिर्फ बरबाद कर दिया जाये, बल्कि उसे इस क्षेत्र की वायु-गुणवत्ता को बदतर करने दिया जाये. कचरा जलाने और धूल फैलाने पर प्रतिबंध होना चाहिए. दिल्ली-एनसीआर में इनके द्वारा प्रदूषण फैलाने पर ज्यादा निगरानी, जुर्माने, सिलसिलेवार समाधान तथा विनियमों को कड़ाई से लागू करने की जरूरत है.

वायु प्रदूषण से भारत में लाखों मौतें

अतिसूक्ष्म कण पीएम-2.5 की 24 घंटे की अवधि में 25 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए, वार्षिक औसतन सघनता 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार.

दिल्ली और बीजिंग जैसे शहरों में पीएम-2.5 की सघनता का स्तर कई बार 1000 के आंकड़े को भी पार कर जाता है. इन शहरों में अमूमन आंकड़े प्रदूषण निगरानी यंत्र की क्षमता से कहीं ऊपर हो जाते हैं.

अतिसूक्ष्म कण पीएम-2.5 फेफड़े व रक्त में आसानी मिल जाते हैं, जिससे ब्रोंकाइटिस, अस्थमा और सूजन आदि का खतरा बढ़ जाता है.

नासा की रिपोर्ट के अनुसार, 2010 से 2015 के बीच भारत में अतिसूक्ष्म कणों की सघनता 13 फीसदी तक बढ़ चुकी है, जबकि चीन में 17 प्रतिशत तक कमी हुई है.

भारत में पीएम-2.5 की औसतन सालाना सघनता 150 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है, जबकि चीन में 60 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है यानी भारत में पीएम-2.5 की सघनता चीन के मुकाबले लगभग तीन गुना और डब्ल्यूएचओ के मानकों के मुकाबले 15 गुना अधिक है.

वर्ष 1952 का लंदन का ग्रेट स्मॉग

दिल्ली दुनिया का 11वां और लंदन 1389वां सबसे प्रदूषित शहर है. लेकिन, एक समय में लंदन में स्मॉग की वजह से हजारों लोग असामयिक मौत का शिकार हो गये थे. अमूमन, जनवरी माह में लंदन समेत दुनिया के कई शहर स्मॉग की घनी चादर में लिपट जाते हैं. वर्ष 1952 में ‘द ग्रेट स्मॉग’ की वजह से सड़क, वायु और रेल यातायात बाधित हो गया था. धुंध इतनी खतरनाक थी कि खेतों में चरती गायें दम घुटने से मर जाती थीं. माना जाता है कि बर्फबारी की वजह से लोग घरों में बड़ी मात्रा में कोयला जलाते थे, जिससे पूरा शहर धुएं की चपेट में आ जाता था.

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