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गोखले स्मरण! 150वां जन्मवर्ष : उम्र कम थी, पर उनके काम बड़े थे

हरिवंश क्या भारतीय समाज में विनम्रता, शालीनता, सुसंस्कृत होना, विद्वता, नैतिक ऊंचाई, विचारों की गहराई जैसे गुण अब अनुकरणीय नहीं रहे? क्या भारतीय मानस अतिवाद के दौर में है? आक्रामकता, किसी कीमत पर सफलता, जीवन में मूल्यों और आदर्शो के प्रति असंवेदनशीलता जैसे तत्व प्रभावी बन रहे हैं? क्या जिनके नाम पर वोट बैंक का […]

हरिवंश
क्या भारतीय समाज में विनम्रता, शालीनता, सुसंस्कृत होना, विद्वता, नैतिक ऊंचाई, विचारों की गहराई जैसे गुण अब अनुकरणीय नहीं रहे? क्या भारतीय मानस अतिवाद के दौर में है? आक्रामकता, किसी कीमत पर सफलता, जीवन में मूल्यों और आदर्शो के प्रति असंवेदनशीलता जैसे तत्व प्रभावी बन रहे हैं? क्या जिनके नाम पर वोट बैंक का जुगाड़ हो सकता है, वे ही आदर्श और पूज्य बनेंगे? या चिरस्मरणीय होंगे?
भारतीय समाज शायद इसी मन:स्थिति से गुजर रहा है. वरना वर्ष 2015, गोपालकृष्ण गोखले (जो लगभग भुला दिये गये हैं) का 150वां जन्मवर्ष है, उनके निधन के भी सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं, पर आज उनकी कहीं चर्चा नहीं है. यह ऐसा अवसर था कि गोखले का नाम भारत के हर घर में गूंजना चाहिए.
भारत में जिस तरह आक्रामकता, संकीर्णता, निजी राग-द्वेष और अतिवाद की चीजें हो रही हैं, इन सबके काट में जो मध्यमार्ग, शालीनता, श्रेष्ठ कार्य संस्कृति, सबको साथ लेकर चलने का मानस रखनेवाला रहा हो, या इन सद्गुणों का पुंज या जीवित प्रतिबिंब रहा हो, वह गोपालकृष्ण गोखले कैसे भुलाये जा सकते हैं?
गोपालकृष्ण गोखले, हिज लाइफ एंड टाइम, गोविंद तलवलकर की पुस्तक (रूपा द्वारा प्रकाशित) वर्ष 2006 में पढ़ी थी. पुस्तक में ग्यारह अध्याय थे. बिबिलोग्राफी (ग्रंथ सूची) के दो अध्याय. एक अंग्रेजी व दूसरा मराठी की संदर्भ सूची, साथ में इंडेक्स. यह प्रामाणिक पुस्तक है. पहले मूलत: मराठी में लिखी गयी. पुस्तक का नाम था, नेक नामदार गोखले.
इसके तीन वर्षो बाद तलवलकर जी ने अंग्रेजी में यह पुस्तक लिखी. पुस्तक को पढ़ते हुए वह याद आये. अत्यंत सम्मानित और सद्गुणों के पर्याय. टाइम्स ग्रुप में हमारा बैच जब प्रशिक्षणार्थी पत्रकार के रूप में गया (1977-78), तब वह हमारी प्रशिक्षण कक्षा के आगे के केबिन में बैठते थे. महाराष्ट्र टाइम्स, प्रसार में अन्य मराठी अखबारों से तब पीछे था, पर उसकी प्रतिष्ठा शिखर पर थी. वहीं पहली बार शरद पवार से लेकर महाराष्ट्र के जाने-माने नेताओं, लेखकों और कवियों को देखा, जो गोविंद तलवलकर जी से मिलने आते थे.
तलवलकर जी का नैतिक सम्मान और साख ऊंची थी. उन्होंने इस पुस्तक में लिखा कि पचास वर्ष से अधिक पहले उन्होंने श्रीनिवास शास्त्री की पुस्तक माई मास्टर गोखले पढ़ा. फिर उनके भाषणों का संकलन संयोग से मिला. उसे पढ़ा. इस आधार पर काफी लेख भी लिखे. वह मानते हैं कि गोखले का जीवन एक माडरेट (नरमपंथी नेता) का था, जिनका मकसद था, राजनीति का आध्यात्मीकरण करना. आप सोच सकते हैं, गरीब घर में जन्मे गोखले, राजनीति को अध्यात्म जैसा पवित्र और सात्विक बनाना चाहते थे.
मनुष्य की मुक्ति का यंत्र बनाना चाहते थे. सच यह है कि आज जब भारत की राजनीति में राजनीति के आध्यात्मीकरण की प्रक्रिया या धारा गोखले, गांधी या आजादी के अन्य शिखर नेताओं के साथ ठहर या अवरुद्ध हो गयी है, तो आज गोखले के स्मरण से पुन: राजनीति की गंगा के कायाकल्प की कोशिश हो सकती है. तलवलकर जी लिखते हैं कि गोपाल कृष्ण गोखले के निजी पत्र-दस्तावेज उन्हें देखने को मिले.
उम्र कम थी, पर उनके काम बड़े थे
सुधारक पत्रिका में छपे उनके लेख भी. उनके पत्रचार से यह तभी साफ हो गया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कभी भी अनुशासित संस्था नहीं रही. पहले दशक में यह लगभग सुप्त अवस्था में थी. दूसरे दौर में बंट गयी. गोखले के पत्रों से साफ होता है कि तब के कुछ बड़े नेताओं के निजी अहंकार से पार्टी को कितना नुकसान हुआ और संगठन तेजी से फल-फूल नहीं सका.
गोखले जब विद्यार्थी थे, तभी उनके पिता कम समय में गुजर गये. उन्हें उनके बड़े भाई ने पढ़ाया. गोखले आजीवन उनके प्रति ऋणी रहे. गणित पर लिखी उनकी किताब बहुत लोकप्रिय हुई. स्कूल पाठ्यक्रम में लगी, तो उससे जो रायल्टी मिली, वह सब उन्होंने भाई-भाभी को दे दी. तलवलकर जी कहते हैं कि जो लोग बड़ी मुसीबतों से गुजरते हैं, बचपन या युवा दिनों में या तो वे असंवेदनशील बन जाते हैं या अत्यंत तल्ख या बदला लेनेवाले. पर गोखले में ऐसा कुछ भी नहीं था. वह अंतरमुखी थे और लगातार अपने विकास में लगे रहते थे. कठोर परिश्रमी थे. इस कारण उनका स्वास्थ खराब रहा.
ईमानदारी और सच्चई उनके गहने थे. एक बार कक्षा में एक अध्यापक ने गणित का एक अत्यंत कठिन सवाल हल करने के लिए उन्हें बधाई दी, तो वह खड़े हो गये. कहा कि इसे समझने में उन्होंने बाहर किसी से मदद ली है. वह क्लास में रो पड़े. कहा कि वह इस सम्मान के अधिकारी नहीं हैं. अपने बड़ों के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी.
दादाभाई नौरोजी और जस्टिस राणाडे के प्रति पूर्ण समर्पण. फिरोजशाह मेहता के प्रति भी गहरा सम्मान. तिलक के प्रभाव में भी वह आये. गोखले हमेशा उन लोगों के आभारी रहे, जिन्होंने जीवन के कठिन दिनों में उनकी मदद की थी. पुणो का एक बैंक दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया. एक पारसी सज्जन ने गोखले से कहा कि वह उस बैंक में अपना खाता बंद कर दें. सारे पैसे निकाल लें. क्योंकि बैंक डूबनेवाला है. गोखले ने मना कर दिया. कहा कि इस बैंक के चेयरमैन ने उन्हें कठिनाई के दिनों में ब्लैंक चेक दिया था.
इन छोटी घटनाओं से उनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है. वह कभी भी प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी नहीं रहे, पर उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी. 1885 में उन्होंने अंग्रेजी भाषा में महारथ हासिल करने का फैसला किया. बर्क, जॉन मिल्टन वगैरह को उन्होंने याद करना शुरू किया. हूबहू उन्हें चीजें कंठस्थ होती थी. वह बड़े मन के इंसान थे.
बहुत दिन वह नहीं जीये. उनकी उम्र कम थी, पर उनके काम बड़े थे. आजादी के पहले ही वह गुजर गये. पर आजादी के निर्णायक योद्धाओं-नायकों पर उनका अद्भुत असर और प्रभाव रहा.
आज लोग भूल गये हैं, महात्मा गांधी और गोखले के बीच क्या रिश्ता था? गांधीजी ने गोखले पर एक पुस्तिका (नवजीवन प्रकाशन से छपी) लिखी, मेरे राजनीतिक गुरु. गांधी जी ने गोखले से अपने बहुआयामी रिश्तों का सुंदर चित्रण किया है. 1896 में पहली बार वह गोखले से पुणो में मिले. बड़े भावपूर्ण ढंग से. गांधी गोखले के बारे में कहते हैं कि वह कांग्रेस के अन्य नेताओं से कैसे अलग थे. बिल्कुल कविताई के अंदाज में.
उनके अनुसार गोखले गंगा थे. इस पवित्र नदी (गोखले) में स्नान करना, ताजगी भरा अनुभव था, किसी के लिए भी. हिमालय की ऊंचाई बड़ी थी, उस पर चढ़ना संभव नहीं था. कोई आसानी से समुद्र में नहीं उतर सकता था. पर गंगा तो अपनी गोद में बुलाती थी. गंगा नदी में चप्पू व पतवार के साथ अवगाहन का आनंद अद्भुत है. इतिहास का संयोग देखिए, गांधी, गोखले को महात्मा कह बुलाते थे. 1901 के कोलकाता अधिवेशन में गोखले और गांधी एक माह साथ रहे, तब गोखले ने गांधी को सुझाव दिया कि वह भारत लौट आयें. पर अगले 15 वर्षो तक यह मुमकिन नहीं हुआ, पर दोनों के बीच संपर्क और रिश्ता कायम रहा.
इस रिश्ते के कारण ही गोखले ने 1910 में द नटाल इंडेनचर बिल (द नटाल अनुबंध अधिनियम) बनाया. दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी जो संघर्ष कर रहे थे, उसके लिए यह बिल गोखलेजी ने तैयार किया. गांधी जी के अनेक प्रयासों और नये कामों में उन्होंने आर्थिक मदद भी दी. गोखलेजी दक्षिण अफ्रीका गये, तो गांधीजी उनके साथ रहे. पूरी यात्रा में. गांधी जब लौट कर भारत आये और साबरमती आश्रम की स्थापना की, तब भी गोखले ने उनकी मदद की.
मोहम्मद अली जिन्ना भी उनके प्रशंसक रहे. उनका ख्वाब था कि वह मुसलमानों के गोखले बनें. बाल गंगाधर तिलक उनके प्रतिस्पर्धी माने जाते थे. जब गोखले नहीं रहे, तो उनकी अंतिम क्रिया में मौजूद तिलक ने कहा, भारत का हीरा, महाराष्ट्र का गहना, कार्यकत्र्ताओं का राजकुमार अब चिता पर चिरनिद्रा में लेटा है. हम इन्हें देखें और इनका अनुकरण करें.
गोखले का जन्म 1866 में महाराष्ट्र के (कोटलपुका) रत्नागिरी में हुआ. आज के रायगढ़ जिले में. एक मामूली चित्तपावन ब्राrाण परिवार में. बंबई के एलिफेस्टन कालेज से उन्होंने डिग्री ली. पुणो की दक्कन एजुकेशन सोसायटी में शिक्षक के तौर पर जीवन शुरू किया.
अपने जीवन के इसी दौर में उनकी मुलाकात, न्यायमूर्ति महादेव गोविंद राणाडे से हुई, जो उनके मेंटर (परामर्शदाता) बने. राणाडे, गोखले के पिता के स्कूल सहपाठी थे. रानाडे और गोखले, मध्यमार्गी थे. इनका मकसद व्यवस्था को अंदर से सुधारना था. गोखले, मुंबई विधायिका के सदस्य बने. तब इसका नाम इंपिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल था. 1905 में वह कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये. बजट और सामाजिक सुधारों पर उनके भाषण अत्यंत प्रामाणिक और श्रेष्ठ माने गये. आंकड़ों, तथ्यों और साक्ष्यों से भरपूर. साफ दृष्टि और स्पष्ट तर्को के साथ, जिसे सामान्य आदमी भी आसानी से समझ ले. गोखलेजी, सविनय अवज्ञा आंदोलन के खिलाफ थे.
तिलक महाराज इसके पहले पैरोकार थे. बाद में गांधीजी ने इसे रणनीतिक हथियार के रूप में अपनाया और इस्तेमाल किया. गोखले लगातार विधायिका में भारत के चुने प्रतिनिधियों की अधिक से अधिक हिस्सेदारी की मांग करते रहे. न्यायपालिका और अकादमिक क्षेत्रों में भी अधिकाधिक भारतीयों की उपस्थिति की बात करते रहे. गोखले पहले आदमी थी, जिन्होंने सबके लिए मुफ्त प्राथमिक शिक्षा की मांग की.
पर आज गोखले भारत को याद नहीं हैं. वजह वह खुद अपनी शोहरत, प्रसिद्धि या नायकत्व के लिए नहीं लड़े. उन्होंने कभी अपने को केंद्र में नहीं रखा. वह मुद्दों, समस्याओं और चुनौतियों को बड़ा मानते थे. उनके निदान के लिए संघर्ष करते रहे. बगैर निजी महत्वाकांक्षा के.
वह मृत्युशय्या पर थे, तो सर्वेट्स आफ इंडिया सोसायटी के अपने साथियों से कहा, अपना समय मेरा जीवन वृत्तांत लिखने में नष्ट न करना या मेरी मूर्ति लगाने का व्यर्थ प्रयास मत करना. तुम्हारा पूरा वजूद और तुम्हारी आत्मा की ताकत भारत की सेवा में लगे. तभी तुम एक सच्चे सेवक के रूप में माने, जाने और गिने जाओगे. आज की भारतीय राजनीति, गोखले के इन विचारों की कसौटी पर खुद परख सकती है. वह जैसा कहते थे, मानते थे, जीते भी थे. स्वभावत: वह मध्यमार्गी थे. अत्यंत विनम्र.
तर्क और कारण (रीजन) के गणित से चलनेवाले. अंग्रेजों को नैतिकता और तर्को से समझा-बुझा कर सुधार के लिए राजी करनेवाले. यह गोखले ही थे, जिन्होंने गांधी के भारत लौटने पर चुपचाप एक बार पूरे देश की यात्रा करने की सलाह दी थी. फिर गांधी देश घूमे और नयी आभा के साथ उभरे. उनके अनुयायी गांधी ने ही आजादी की लड़ाई का फलक बड़ा बनाया.
आज जब धर्म, जाति, क्षेत्र और भावना का राजनीति में बोलबाला है, तब गोखले जैसे विनम्र, तार्किक, मूल्यों से चलनेवाले सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए समाज में कोई जगह है? क्या इसलिए आज गोखले हमारी राष्ट्रीय स्मृति में नहीं हैं?
आज गोखले को क्यों याद किया जाना चाहिए? सिर्फ इसलिए नहीं कि उनके न रहने के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं और उनके जन्म के 150 वर्ष. उनके परिवार का भी कोई व्यक्ति राजनीति में शिखर पर नहीं है, जिससे वह उनके महान कामों की याद दिलाये या उनको चर्चा में बनाये रखे. या उनके उत्तराधिकार की लड़ाई लड़े?
मन और मिजाज से आज भारतीय समाज अतिवादी हो रहा है. बुद्ध ने भी मध्यमार्ग के अनुसरण में ही जीवन की मुक्ति देखी थी. गोखले, मृदुभाषी थे. सुधारक थे. बहुत गहराई से विषय मंथन करते थे. आक्रामक नहीं, विनम्र थे.
चीजों की तह में जाते थे. व्यावहारिक समाधान निकालते थे. स्वभाव और विचार में संकीर्ण नहीं थे. उन्होंने सर्वेट आफ इंडिया सोसायटी बनायी, उसका मुख्य मकसद था, ऐसे लोगों को तैयार करना, जो समाज को अपनी अच्छी कार्यसंस्कृति से शीर्ष पर ले जा सकें. वह निजी यश, अपने परिवार को प्रतिष्ठित करने की धारा की राह के अनुयायी नहीं थे (उस दौर के लगभग सभी नेता ऐसे थे).
आज की सत्तामूलक भारतीय राजनीति में ऐसे सद्गुण, अवगुण और राजनीतिक बोझ मान लिये गये हैं. इसलिए कोई गोखले को याद नहीं कर रहा. पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि समाज विनम्रता, शालीनता, उत्कृष्टता और मूल्यों की सीढ़ी पर चढ़ कर ही हिमालय बन सकता है.
धर्म, उन्माद, जाति, क्षेत्र, ईष्र्या, द्वेष, संकीर्णता की पूंजी न देश को एक रख सकती है, न महान बना सकती है. इसलिए आज गोखले को और अधिक याद करने की जरूरत है. आज राजनीति बहस का मुख्य विषय एक बेहतर और शालीन राजनीति नहीं है. आक्रामकता व असहिष्णुता का दौर है, इसलिए गोखले को याद करना जरूरी है.
देश और समाज के हित में. इन्हें अमर बनाने के लिए नहीं. गांधी ने उनके बारे में कहा था, क्रिस्टल की तरह शुद्ध (पारदर्शी), मेमने की तरह शालीन और शेर की तरह बहादुर और राजनीतिक क्षेत्र में सबसे संपूर्ण, शालीन और साबुत इंसान थे, गोखले.
(द मिंट में 20.04.2015 को नारायण रामचंद्रन के छपे लेख से अनेक तथ्य लेकर तैयार)
लेखकर, राज्यसभा सांसद (जदयू) हैं.

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