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ऋषि वैज्ञानिक की स्मृति!

-हरिवंश- मंगल ग्रह पर ‘मॉम’ (भारतीय अंतरिक्ष उपग्रह) के सफल प्रक्षेपण के संदर्भ में, प्रोफेसर सतीश धवन के नाम की चर्चा हुई. दरअसल, इस सफलता की नींव में प्रोफेसर सतीश धवन जैसे वैज्ञानिक ही हैं. उनके चरित्र, जीवन और कर्म को जानना हर भारतीय के लिए जरूरी है, ताकि वह इस उपभोक्तावादी माहौल में सफलता […]

-हरिवंश-

मंगल ग्रह पर ‘मॉम’ (भारतीय अंतरिक्ष उपग्रह) के सफल प्रक्षेपण के संदर्भ में, प्रोफेसर सतीश धवन के नाम की चर्चा हुई. दरअसल, इस सफलता की नींव में प्रोफेसर सतीश धवन जैसे वैज्ञानिक ही हैं. उनके चरित्र, जीवन और कर्म को जानना हर भारतीय के लिए जरूरी है, ताकि वह इस उपभोक्तावादी माहौल में सफलता का मर्म जान सकें. आज हर भारतीय, खासतौर से युवा सफलता के एवरेस्ट पर पहुंचने को आतुर है, पर उसके प्रयास कैसे हैं? मानस क्या है? यह प्रोफेसर धवन के प्रसंग में जानना जरूरी है.

भारत के वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर आज दुनिया स्तब्ध है. पहले प्रयास में मंगल पर सफलतापूर्वक स्थापित उपग्रह. इस मिशन का नाम ‘मॉम’ रखा गया है. इसने 66.6 करोड़ किलोमीटर की दूरी तय की है. यह सबसे कम लागत का अंतरिक्ष उपग्रह है. इससे पहले अब तक सिर्फ तीन मुल्क ही मंगल पर अपने उपग्रह भेज पाये हैं. भारत चौथा है.

इस उपलब्धि की नींव में प्रोफेसर सतीश धवन जैसे मनीषी रहे हैं. जो कर्म से तो वैज्ञानिक थे, पर अपने जीवन और चिंतन में ऋषि परंपरा के थे. उन ऋषियों की तरह जो बिना नाम लिये उपनिषद जैसे ग्रंथ लिख गये. पहले संक्षेप में प्रोफेसर सतीश धवन का परिचय. वह 1920 में लाहौर में जनमे. इंजीनियरिंग और अंगरेजी साहित्य में डिग्री ली. याद रखिए, साहित्य और विज्ञान का संगम. फिर आगे पढ़ने के लिए अमेरिका गये. कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी से पीएचडी की. एरोनाटिकल इंजीनियरिंग में. 1951 में भारत लौटे. इंडियन इंस्टीट्यूट अॅाफ साइंस, बेंगलुरु में नौकरी शुरू की. यहां अनेक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोध किये. 1962 में वह इस महान संस्था के निदेशक बने. इसके एक दशक बाद, आग्रह पर इसरो यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए सहमत हुए. 1981 में वह दोनों पदों से रिटायर हुए. उन्हें पद्मश्री और पद्म भूषण से नवाजा गया. प्रोफेसर सतीश धवन, श्रेष्ठ वैज्ञानिक तो थे ही, द्रष्टा (विजनरी) और मनीषी भी थे. वह संस्थाओं के निर्माता रहे. पर, अत्यंत उच्च आदर्शों से प्रेरित इंसान. 2002 के पहले सप्ताह में बेंगलुरु में उनका निधन हुआ. उनके जीवन से जुड़े ये मोटे तथ्य हैं, पर उनके कार्यकाल में इंडियन इंस्टीट्यूट अॅाफ सांइस, अंतरराष्ट्रीय स्तर का संस्थान बना. कई तरह के नये शोध और प्रयोग को उन्होंने बढ़ावा दिया. विज्ञान में उच्च स्तर के काम को बढ़ाया. साथ ही भारतीय संदर्भ में कई प्रासंगिक मुद्दों पर शोध को उन्होंने वरीयता दी.

पर्यावरण, ग्रामीण इलाकों की तकनीक, कम दर पर घर बनाने की विधि और रिन्यूएबुल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा स्रोत) पर काम आरंभ कराया. पर्यावरण और ग्रामीण तकनीक में उनकी खास रुचि रही. वह उपग्रह तकनीक को भी इसलिए बढ़ाना चाहते थे, ताकि इससे खेती में मदद मिल सके.

स्पष्ट है, प्रोफेसर सतीश धवन, तब के माहौल में भारत की प्रगति के संकल्प से बंधे वैज्ञानिक थे. मानवीय सोच के वैज्ञानिक. पर यहां उद्देश्य उनके वैज्ञानिक उपलब्धियों का उल्लेख करना नहीं है. विशिष्ट प्रतिभा के बावजूद वह अमेरिका से पढ़ कर भारत लौटे. भारत में रह रहे, संस्थाओं को गढ़ा. आज वैसी ही एक संस्था इसरो की देन है कि भारत का नाम दुनिया में रोशन हो रहा है. लेकिन प्रोफेसर सतीश धवन की इस खूबी का उल्लेख भी इस टिप्पणी का मकसद नहीं है.

वह कैसे इंसान थे, यह जानना आवश्यक है. पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने उनके बारे में क्या कहा है, यह सुनिए – ‘1979 का वर्ष था. एसएलवी-3 उपग्रह छोड़ा जाना था. मैं प्रोजेक्ट डायरेक्टर था. साथ इस मिशन का भी डायरेक्टर था. मेरा मिशन था, इस उपग्रह को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करना. दस वर्षों तक हजारों लोगों ने मेरे साथ दिन-रात काम किया. मैं श्रीहरिकोटा पहुंचा. यहीं से इस उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजा जाना था. गिनती शुरू हो गयी. .. चार मिनट .. तीन मिनट .. दो मिनट .. एक मिनट .. अब 40 सेकेंड शेष थे कि कंप्यूटर पर संदेश आ गया कि इस उपग्रह को उड़ान पर न भेजें. अंतिम क्षण कंप्यूटर कह रहा था कि इसे लांच न करें. मैं इस मिशन का प्रमुख था. मुझे निर्णय लेना था.

सेकेंड में. सबकुछ तैयार था. अगले ही क्षण उपग्रह को अंतरिक्ष में उड़ान भरना था. मेरे पीछे छह विशेषज्ञ थे. उन्होंने कंप्यूटर पर आंकड़े (डाटाबेस) देखे और कहा, कोई उलझन-समस्या नहीं है. .. यह सही है कि विशेषज्ञों ने मुझे राय दी और मैं उनके निष्कर्ष पर आगे बढ़ा. पर आगे बढ़ने का फैसला मेरा था. मैंने निर्णय लिया था. मैंने कंप्यूटर के संदेशों को दरकिनार किया और इस उपग्रह को लांच कर दिया. पहला चरण सफल रहा, पर दूसरे स्टेज में गड़बड़ी हो गयी. यह उपग्रह घिरनी की तरह चक्कर काटने लगा और अंतरिक्ष में जाने के बदले बंगाल की खाड़ी में गिर पड़ा.. 1979.. यह विफल वर्ष था. मैं पहली बार विफल हुआ था.. पर इस विफलता को कैसे संभाले, यह सवाल था? सफलता तो हम आसानी से संभाल (मैनेज करना) लेते हैं. पर असफलता का प्रबंधन क्या है?

‘उसी क्षण एक महान इंसान, एक अद्भुत नेता, प्रोफेसर सतीश धवन मेरे पास आये. मैं बहुत थका था. कई महीनों से दिन और रात काम करने के कारण पस्त था. स्तब्ध भी. उन्होंने मुझे हिलाया और कहा, आओ प्रेस कान्फ्रेंस में जाना है. बाहर देश-विदेश के मीडिया के लोग, पत्रकार-छायाकार हमारा इंतजार कर रहे थे. मैं बहुत डरा और सहमा था. मैंने सोचा, इस विफलता का जिम्मेवार मैं ही माना जाऊंगा. प्रोजेक्ट डायरेक्टर और मिशन डायरेक्टर के रूप में यह मेरी विफलता थी.

‘ठीक उसी क्षण भारतीय उपग्रह शोध संस्थान (इसरो) के चेयरमैन, प्रोफेसर सतीश धवन आगे आये और मीडिया से कहा, मित्रों आज हम विफल हुए हैं. मैं अपने वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों और अपने मातहत सभी लोगों के प्रयास की सराहना करता हूं. उन्होंने मीडिया को यह भी बताया कि हमारी इस टीम ने कठिन परिश्रम किया, पर इन्हें और तकनीकी सहायता चाहिए थी. अंत में उन्होंने मीडिया को आश्वस्त किया कि यही टीम अगले साल सफल होगी. इसरो के चेयरमैन के रूप में उन्होंने पूरी विफलता की जिम्मेवारी खुद ली.’ इस तरह कलाम कहते हैं कि विफलता की जिम्मेवारी लेने के बाद पत्रकारों ने प्रोफेसर धवन की तीखी आलोचना की. फिकरे कसे. कहा कि कितने सौ करोड़ बंगाल की खाड़ी में बहा दिये? कौन जिम्मेवार है, इसका? वगैरह-वगैरह. पर यह अलग प्रसंग है. फिर अगले साल, 18 जुलाई, 1980 को यह अभियान दोबारा लांच होना था. इस बार टीम सफल रही. एसएलवी भारतीय उपग्रह, अंतरिक्ष में प्रक्षेपित हो चुका था. तब वहीं खड़े प्रोफेसर सतीश धवन ने मुझे (डॉक्टर कलाम को) बुला कर कहा, ‘आप जाओ और प्रेस कान्फ्रेंस को संबोधित करो.’ कलाम आगे कहते हैं कि यह उनके जीवन का एक बड़ा पाठ था. नेतृत्व की ऊंचाई की झलक. कलाम कहते हैं कि इस प्रकरण का संदेश साफ था कि अगर टीम विफल हो, तो नायक आगे बढ़ कर इसकी जिम्मेदारी लेता है. लेकिन जब सफलता मिलती है, तो वह पूरी टीम को देता है.

एसएलवी-3 की विफलता के बाद डॉ कलाम ने प्रोफेसर सतीश धवन से अपने इस्तीफे की पेशकश की थी. लेकिन प्रोफेसर धवन ने साफतौर से मना कर दिया. दरअसल यह चरित्र, यह त्याग और यह स्व अनुशासन ही किसी संस्था या मुल्क को महान बनाते हैं. गढ़ते हैं. आज इस बाजार की दुनिया में प्रचलित मुहावरा है, सफलता के सौ बाप और विफलता अनाथ. क्या प्रोफेसर सतीश धवन जैसे मूल्य आज भारतीय जीवन में हैं? शिक्षण संस्थानों में हैं?

प्रोफेसर रामचंद्र गुहा, उनके बारे में बताते हैं कि प्रोफेसर धवन, प्रोफेसर एमएन श्रीनिवास जैसे महान समाजशास्त्री की तरह यह माननेवालों में से थे कि मीडिया का आकर्षण या प्रचार, योग्यता या विद्वता का दुश्मन है. मीडिया से उनका बहुत संपर्क नहीं रहा. भारतीय आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर कुछेक लोगों ने उनका इंटरव्यू किया. उन्होंने दो बातें कहीं. भारतीय, सिंगापुर की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? वे भारत जैसी अलग-अलग संस्कृति की पृष्ठभूमि वाले मुल्क, जहां मजबूत लोकतंत्र है, उसके बदले एक उबाऊ, एकरसा और अधिनायकवादी व्यवस्था को क्यों पसंद करते हैं? अनिवासी भारतीयों को संबोधित (वैसे लोगों को संबोधित करते हुए, जो अपनी मातृभूमि की आलोचना में लगे रहते हैं) करते हुए उन्होंने एक बार कहा कि आप भारत लौटें और देश की संस्थाओं को बेहतर बनाने में योगदान दें.

प्रोफेसर रामचंद्र गुहा ने प्रोफेसर धवन पर लिखे अपने स्मृतिलेख में कहा कि जब प्रोफेसर धवन बेंगलुरु में अपना घर बना रहे थे, तो सीमेंट की आपूर्ति कम थी. तब सीमेंट सरकार द्वारा नियंत्रित था. लेकिन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक और इसरो के चेयमैन प्रोफेसर सतीश धवन लाइन, सार्वजनिक लाइन में खड़े थे और धैर्यपूर्वक अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे, ताकि उन्हें सीमेंट का आवंटन मिल सके. उनकी मृत्यु के कुछ सप्ताह पहले की घटना है. इसरो के एक बड़े अफसर उनके घर गये. उन्हें देखने के लिए. उस अफसर को सूचना मिली कि उनके पूर्व बॉस यानी प्रोफेसर धवन चेकअप के लिए अस्पताल जानेवाले हैं. उस अफसर ने ड्राइवर व गाड़ी भेजने की बात कही. प्रोफेसर सतीश धवन ने यह कह कर कार लेने से मना कर दिया कि यू आर आलवेज टेम्पटिंग मी (आप हमेशा मुझे अच्छे प्रस्ताव देते हैं).

आज इसरो की सफलता पर देश नाज कर रहा है. सही है, पर इसरो जैसी संस्था की बुनियाद में जिस स्तर का चरित्र, मूल्य, त्याग और मनीषी आचरण रहा है, उसकी स्मृति देश को है? देश के युवावर्ग को है? देश की राजनीति को है? होना तो यह चाहिए था कि हर भारतीय के लिए प्रोफेसर सतीश धवन जैसे लोगों का चरित्र अनिवार्य पाठ्यक्रम में शामिल होता. मुल्क, धन से या अधिक आबादी या समृद्ध बाजार से बड़े, महान या ताकतवर नहीं होते. श्रेष्ठ संस्थाओं से, श्रेष्ठ जनों के आचरण से, श्रेष्ठ जनों के मूल्य से मुल्क महान हुआ करते हैं. बेहतर होता कि मंगल पर भेजे गये उपग्रह की इस सफलता की धुन या संगीत के समय प्रोफेसर सतीश धवन जैसे लोगों के यश भी इस मुल्क के घर-घर में गूंजते. यह इसलिए जरूरी है कि आज सरकारें या अन्य संस्थाएं बेहतर इंसान नहीं पैदा कर सकती. बेहतर इंसान की प्रेरणा से ही समाज में श्रेष्ठ जनों की संख्या बढ़ती है.

(प्रोफेसर सतीश धवन पर इस टिप्पणी से जुड़े अधिकतर तथ्य प्रो रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘द लास्ट लिबरल एंड अदर्स एसे’ से ली गयी हैं.)

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