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आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता

राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर कभी आपने सोचा है कि पिछले 30-35 वर्षों में समाज कितना बदल गया है? इसका अनुभव 1970 से पहले पैदा हुई पीढ़ी ही स्वयं कर सकती है और अपने से बाद वाली पीढ़ी को बता सकती है. सोचिए, इस समय सोचना बहुत जरूरी है. सोचिए उन राजनीतिक फैसलों के […]

राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
कभी आपने सोचा है कि पिछले 30-35 वर्षों में समाज कितना बदल गया है? इसका अनुभव 1970 से पहले पैदा हुई पीढ़ी ही स्वयं कर सकती है और अपने से बाद वाली पीढ़ी को बता सकती है. सोचिए, इस समय सोचना बहुत जरूरी है. सोचिए उन राजनीतिक फैसलों के बारे में, जिनकी आग में हम झुलसते जा रहे हैं और रोज तपिश बढ़ती ही जा रही है.
सोचिए, स्वर्ण मंदिर पर हुई कार्रवाई के बारे में, इंदिरा गांधी की हत्या के बारे में, सिख विरोधी दंगों के बारे में, शाहबानो प्रकरण के बारे में, राम जन्मभूमि का ताला खुलने के बारे में, राम जन्मभूमि आंदोलन के बारे में, बर्लिन की दीवार गिरने के बारे में, सोवियत संघ के ढहने के बारे में, अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बारे में, कुवैत पर इराकी हमले के बारे में, मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के बाद की आर्थिक दिशा के बारे में, अयोध्या में विवादित इमारत को ढहा दिये जाने के बारे में, न्यूयार्क पर हुए आतंकी हमले के बारे में,
गोधरा कांड और उसके बाद हुए दंगों के बारे में, संसद पर हुए हमले के बारे में, न्यूक्लियर डील और उस समय हुए वोट फॉर कैश कांड के बारे में, राडिया टेप्स के बारे में, अन्ना आंदोलन के बारे में, अफजल गुरु की फांसी के बारे में, मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में, पिछले आम चुनाव के बारे में, कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या के बारे में, दादरी में अखलाक के मारे जाने के बारे में, हरियाणा में पिछले दिनों हुई घटनाओं के बारे में, अपने देश में हो रही हर उस हत्या के बारे में, जिनके पीछे किसी सोच का हाथ है, इस समय चल रहे बिहार चुनाव में जिम्मेवार लोगों के बयानों के बारे में, हर उस घटना और घटनाक्रम के बारे में जो आपको अपनी जिंदगी पर असर डालनेवाला लगे. सोचिए अपने पूर्वाग्रहों को किनारे रख कर. सोचिए एक इंसान के तौर पर.
यह भी सोचिए कि इन घटनाओं और घटनाक्रमों से पहले जिंदगी कैसी थी और इनकी वजह से जिंदगी कैसे बदलती गयी. याद करिए कि तब आपके पड़ोसी से रिश्ते कैसे होते थे? त्योहार उस समय कैसे मनाये जाते थे? अपने स्कूल के दिनों को, अपनी पाठ्य-पुस्तकों को. सोचिए उन कविताओं के बारे में जो आपको बचपन में याद थीं. सोचिए उन कहानियों के बारे में जो आपको अच्छी लगती थीं.
याद करिए उस चाट वाले को जो आपके मोहल्ले में या स्कूल के बाहर ठेला लगाता था. याद करिए सरकारी बसों को जिनमें बैठ कर हम एक जगह से दूसरी जगह की यात्रा करते थे. याद करिए उत्तीर्ण की गयी एक-एक कक्षा को, उनमें पढ़ानेवाले शिक्षकों को और साथ पढ़नेवाले बच्चों को भी. याद करिए मेलों को जहां हर समुदाय के लोग होते थे. याद करिए होली मिलन और ईद मिलन के तौर-तरीकों को.
याद करिए कि जब हम छोटे थे, तब हमारे बड़े नेता अपने भाषणों में किन मुद्दों और किस भाषा का इस्तेमाल करते थे? याद करिए उन डाॅक्टरों को जिनसे आप इलाज कराते थे, उन अस्पतालों को जहां पट्टी-प्लास्टर बंधवाते थे. याद करिए कौन दूध देने आता था? याद करिए आपके पिता, ताऊ, चाचा या दादा (यदि नौकरीपेशा थे) कितना समय दफ्तर में गुजारते थे? याद करिए आपके गांव, कस्बे या शहर में धार्मिक आयोजनों को और उनमें की जानेवाली बातों को. याद करिए कोई ऐसी परंपरा, व्यवहार या मान्यता जो आपको अच्छी लगती थी, लेकिन बाद में गुम हो गयी.
याद करिए आपके पिता या परिवार के अन्य वयस्क लोग अपने परिवार, पड़ोस, गांव, शहर, देश के बारे में क्या सोचते थे, दूसरी आस्थाओं के लोगों से कैसा व्यवहार करते थे? सोचिए आज आप और आपके आसपास के लोग कैसे सोचते हैं और कैसा व्यवहार करते हैं? सोचिए कि तब सुरक्षाबोध और सुकून ज्यादा था या अब? यह भी सोचिए कि यह बदलाव आया क्यों?
सोचिए क्योंकि सोचना जरूरी है. यह मत सोचिए कि जब, तब नहीं सोचा, तो अब सोचने से क्या होगा? यह मत सोचिए कि मेरे अकेले के सोचने से क्या होगा? यह मत सोचिए कि मेरी कौन सुनेगा? बस यह सोच कर सोचिए कि सोचना मनुष्य होने की पहली शर्त है.
हर उस किस्से को सोचिए जो बचपन की यादों से निकला, हर उस किस्से को सोचिए जो आपको बचपन में बहुत पसंद था, हर उस किस्से को सोचिए जो किस्सा बन कर रह गया, लेकिन आप उसे आज भी जीना चाहते हैं.
और, इन किस्सों को अपने मित्रों से शेयर कीजिए, चिट्ठियों में लिखिए, अपने बच्चों से शेयर कीजिए, एसएमएस पर शेयर कीजिए, ब्लॉग पर लिखिए, फेसबुक पर पोस्ट कीजिए, कमेंट बाक्स में लिखिए, ट्वीट कीजिए, व्हॉट्सएप पर डालिए. सोचिए और शेयर कीजिए क्योंकि-
आदमी मरने के बाद / कुछ नहीं सोचता / आदमी मरने के बाद/ कुछ नहीं बोलता / कुछ नहीं सोचने / और कुछ नहीं बोलने पर / आदमी मर जाता है… (उदय प्रकाश की कविता)
– और अंत में
पढ़िये उदय प्रकाश की ही एक और कविता- ‘दो हाथियों का लड़ना’. इस कविता के तमाम अर्थ हैं. आप अपना अर्थ निकालिए. पढ़िए और सोचिए…
सिर्फ दो हाथियों के समुदाय से/संबंध नहीं रखता दो हाथियों की लड़ाई में/सबसे ज्यादा कुचली जाती है/घास, जिसका/हाथियों के समूचे कुनबे से/कुछ भी लेना-देना नहीं/जंगल से भूखी लौट जाती है गाय/और भूखा सो जाता है/घर में बच्चा/चार दांतों और आठ पैरों द्वारा/सबसे ज्यादा घायल होती है/बच्चे की नींद, सबसे अधिक असुरक्षित होता है/हमारा भविष्य/दो हाथियों कि लड़ाई में/सबसे ज्यादा/टूटते हैं पेड़/सबसे ज्यादा मरती हैं चिड़ियां/जिनका हाथियों के पूरे कबीले से कुछ भी लेना देना नहीं/दो हाथियों की लड़ाई को/हाथियों से ज्यादा/सहता है जंगल/और इस लड़ाई में/जितने घाव बनते हैं/हाथियों के उन्मत्त शरीरों पर/उससे कहीं ज्यादा/गहरे घाव/बनते हैं जंगल/और समय की छाती पर/’जैसे भी हो, दो हाथियों को लड़ने से रोकना चाहिए’ .

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