26 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

भीड़ द्वारा हत्या और जनतंत्र

मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com आम तौर पर किसी जनतंत्र की सफलता इस बात से आंकी जाती है कि समय पर चुनाव होते हैं या नहीं, राजनीतिक संस्थाएं सुचारू रूप से काम कर रहे हैं या नहीं. सच तो यह है कि यह केवल राजनीतिक मापदंड हैं. जंततंत्र की सफलता को मापने के […]

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
आम तौर पर किसी जनतंत्र की सफलता इस बात से आंकी जाती है कि समय पर चुनाव होते हैं या नहीं, राजनीतिक संस्थाएं सुचारू रूप से काम कर रहे हैं या नहीं. सच तो यह है कि यह केवल राजनीतिक मापदंड हैं. जंततंत्र की सफलता को मापने के कुछ सामाजिक मापदंड भी होते हैं. किसी जनतंत्र के स्वास्थ्य की परीक्षा इस बात से भी की जा सकती है कि उस में बच्चे, बूढ़े और औरतें कितनी सुरक्षित हैं? इन सामाजिक मापदंडों को देखने से लगता है कि हमारे देश में जनतंत्र पर चिंतित होने की जरूरत है. निर्भया कानून के बावजूद देश की राजधानी में भी औरतों की जो हालत है, उससे जनतंत्र की प्रकृति पर सवाल उठाया जाना लाजिमी है.
वृद्धों और बच्चों की सुरक्षा भी परिवार की दया पर ही निर्भर करती है. जनतंत्र की बदहाली का एक नया सूचकांक सामने आ रहा है- देश के अलग-अलग कोने में भीड़ के द्वारा किसी छोटे-से कारण से सामूहिक हत्या.
आश्चर्य है कि दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र का दंभ भरनेवाले देश में भीड़ के द्वारा की जानेवाली हत्या की संख्या बढ़ रही है. हाल के दिनों में गोरक्षकों के द्वारा या गोमांस के आरोप पर लोगों द्वारा सारेआम मारे जाने की घटना केवल इस प्रवृत्ति का व्यापक और विकृत रूप ही है. ऐसी घटनाओं के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं. बिहार के वैशाली को दुनिया के पहले जनतंत्र के लिए जाना जाता है.
इसी वैशाली में 2007 में भीड़ ने आठ चोरों को जान से मार कर नदी के किनारे फेंक दिया था. बिहार के ही नवादा जिले में मोटरसाइकिल चोरी के आरोप में भीड़ ने तीन लोगों की आंखें निकाल ली थीं. भागलपुर में सोने की चेन छीन लेने के आरोप में एक व्यक्ति को भीड़ ने मार डाला था. 2015 में बिहार में भीड़ ने एक पुलिस कर्मी को ही मार डाला था. बात केवल बिहार की नहीं है. नागालैंड में बलात्कार के एक आरोपी को जेल से निकाल कर भीड़ ने मार डाला. बाद में सरकार ने उस व्यक्ति को निर्दोष पाया. आगरा के एक मजदूर को नागालैंड में किसी लड़की के सामने अश्लील हरकत के आरोप में भीड़ ने मार डाला. राजस्थान के गंगा नगर में भी ऐसी ही घटना घटी. हाल के झारखंड की घटना ने तो सबको हिला कर रख दिया. पुलिस देखती रही और दो भाइयों को बच्चा चुराने के आरोप में भीड़ ने मौत के हवाले कर दिया. ऐसी अनेक घटनाओं और उसके पीछे के विभिन्न कारणों का उदाहरण दिया जा सकता है.
सवाल है कि हमारे समाज में हो क्या रहा है? समाज में यह दानवता बढ़ कैसे रही है? क्या जनतंत्र की सफलता का दंभ भरनेवालों को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है? एक सीधी-सी बात तो यह समझ में आती है कि भीड़ का विश्वास न्याय प्रणाली और पुलिस व्यवस्था पर कम हो गया है.
जिस तरह से चोर, गुंडे, लफंगे उन्मुक्त भाव से समाज में विचरण ही नहीं करते हैं, बल्कि उनके राजनीतिक आका उन्हें प्रोत्साहन भी देते हैं, उससे लोगों को सरकारी न्याय पर विश्वास कम हो गया है और यह राज्य की स्वीकृत के लिए खतरनाक है. जनतंत्र की अस्मिता के लिए खतरे का संकेत है. आम लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है कि वे बाहुबलियों का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकते, लेकिन छोटे-मोटे अपराधी यदि उनके हत्थे चढ़ जायें, तो अपना गुस्सा निकाल लेते हैं. कई बार इसमें बेगुनाह लोग भी मारे जाते हैं.
इससे भी ज्यादा सोचने की बात यह है कि भीड़ के द्वारा की जानेवाली ये हत्याएं समाज में गहराये संकट का परिचायक तो नहीं हैं? मेरा मतलब केवल आसपास हो रहे अन्याय से उपजे असंतोष से नहीं है, बल्कि एक तरह की मनोवज्ञानिक बीमारी से है, जिसके मूल में जीवन से गहरा असंतोष है. उस असंतोष को हिंसा में परिणत करना एक तरह का बचाव है.
ऐसी स्थिति खतरनाक है, क्योंकि यह हिंसा को आत्मसात करना है. इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है. घरेलू हिंसा से लेकर फासीवाद के समर्थन तक. ‘इस देश में कुछ भी नहीं हो सकता है’ का भाव केवल एक जुमला नहीं है, बल्कि एक सामाजिक बीमारी का लक्षण है. सड़क पर छोटी सी बात पर किसी को मार डालना से लेकर हिंसात्मक बलात्कार तक इसका रूप हो सकता है.
गौर करने की बात यह है कि लैटिन अमेरिका में यह सामाजिक महामारी नब्बे के दशक में चरम पर थी. अमेरिका में 19वीं शताब्दी के अंत में और जर्मनी में हिटलर के समय. यदि उस समय की तुलना से हमारे समाज की स्थिति को समझने की कोशिश करें, तो सामूहिक हत्या या भीड़ द्वारा की जानेवाली हत्या को गंभीरता से लेने की जरूरत है.
इसे पार्टी के संकीर्ण दायरे से ऊपर उठ कर राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. यदि कोई पार्टी किसी सरकार में रह कर ऐसी घटना पर सचेत नहीं होती, तो वह राष्ट्र का और जनतंत्र अहित कर रही है. और यदि उस पार्टी की विचारधारा से ऐसी घटना को बल मिलता हो, तो पार्टी पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाना लाजिमी होगा.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें