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राजनीतिक षड्यंत्र की देन है सहारनपुर हिंसा

उत्तर प्रदेश में जातीय हिंसा कोई बड़ी बात नहीं. जिस राज्य में आजादी के इतने साल बाद भी ‘विकास और जनकल्याण’ नहीं, बल्कि ‘जाति’ ही सियासत और सत्ता संचालन का प्रमुख कारक हो, वहां जाति के नाम पर हिंसा अब चौंकाती नहीं. फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो जाट और जाटव टकराव का गढ़ रहा है. […]

उत्तर प्रदेश में जातीय हिंसा कोई बड़ी बात नहीं. जिस राज्य में आजादी के इतने साल बाद भी ‘विकास और जनकल्याण’ नहीं, बल्कि ‘जाति’ ही सियासत और सत्ता संचालन का प्रमुख कारक हो, वहां जाति के नाम पर हिंसा अब चौंकाती नहीं. फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो जाट और जाटव टकराव का गढ़ रहा है. आगरा, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, शामली… कौन कहां जातीय कट्टरता में कितना और क्यों आगे है, बताना मुश्किल है. ऑनर कीलिंग, लव जिहाद और खाप पंचायत…
जो लोग भारतीय जाति-व्यवस्था के ताने-बाने को नहीं जानते और हमारे समाज के मानस को नहीं समझते, उनके लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि जब समूची दुनिया में आर्थिक विकास रंग, लिंग और जाति के घेरे को तोड़ रहा था, तब इस समूचे परिक्षेत्र में आजादी के बाद हुई चहुमुंखी तरक्की ने उल्टा असर क्यों दिखाया? जातिगत गौरव और पिछड़ेपन का अहसास यहां कुंठा के स्तर तक इस कदर पल्लवित हुआ है कि मध्य और पिछड़ी जातियों के बीच जातीय टकराव अब धर्मांतरण से होता हुआ हिंसक टकराव में तब्दील हो गया है. यह कम अचरज की बात नहीं कि मुसलिम समुदाय को छोड़ इस इलाके में हिंदू धर्म से संबद्ध तमाम पिछड़े- दलित तबकों ने तेजी से बौद्ध और ईसाई धर्म अपना लिया है, पर इससे उनकी समस्या का हल नहीं निकला. दरअसल, माली समृद्धि और धर्मांतरण के बावजूद जातीय सियासत ने इस इलाके का पीछा कभी नहीं छोड़ा. सियासतबाजों ने जातीय कुनबा बनाये रखा और सियासत काे खाद-पानी दे उसे जब भी मौका मिला बढ़ाया. सहारनपुर की घटना इसी माहौल की उपज है.
कहने के लिए सहारनपुर में समरसता इलाके के दूसरे जिलों से ज्यादा है. पर यह अतीत की बात हो चुकी. जातीय हिंसा की आग में यहां आपसी रिश्ते झुलस चुके हैं. शब्बीरपुर में ग्राम प्रधान की अगुवाई में 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती पर रैदास मंदिर में डॉ भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित की जानी थी. जिस पर दूसरे पक्ष ने यह कह कर ऐतराज जताया कि इसके लिए प्रशासन से अनुमति नहीं ली गयी है. कायदे से जिला प्रशासन को तभी जाग जाना चाहिए था, पर वह सोता रहा और दलितों के बीच नाराजगी बढ़ती गयी. अपने भड़काऊ कारनामों को लेकर चर्चा में आयी भीम सेना ने आग में घी डालने का काम किया. दलितों के बीच कुप्रचार कर उन्हें इस कदर भड़काया गया कि तनाव बढ़ता गया.
जब खून-खराबा बढ़ा, तब प्रशासन ने आनन-फानन में हिंसा रोकने में नाकाम रहे डीएम, एसएसपी को निलंबित व कमिश्नर और डीआइजी को हटा दिया. मारे गये दलित के परिजनों को 15 लाख रुपये की मदद और घायलों को 50-50 हजार की मदद का ऐलान किया. यही नहीं सहारनपुर हिंसा की जांच के लिए प्रमुख सचिव गृह एमपी मिश्रा की अध्यक्षता में एडीजी कानून-व्यवस्था आदित्य मिश्रा, आइजी एसटीएफ अमिताभ यश, डीआइजी सुरक्षा विजय भूषण का एक चार सदस्यीय जांच दल भी गठित कर दिया. जांच दल ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट में बेहद चौंकानेवाले तथ्य बयान किये हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 34 दिन में इलाके में पांच बार जातीय हिंसा की साजिश रची गयी, इसमें घटनास्थल, हिंसा का प्रारूप, समय-सीमा और पात्र, सब कुछ तय था. साजिश को परवान चढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया. रिपोर्ट के अनुसार, चौदह अप्रैल के बाद 20 अप्रैल को सड़क दूधली में हुई जातीय हिंसा के बाद भी हालात शांत थे, लेकिन पांच मई को थाना बड़गांव क्षेत्र के शब्बीरपुर-महेशपुर में हुआ बवाल राजनीतिक षड्यंत्र की देन है. नौ मई को सहारनपुर में आठ स्थानों पर हिंसा केवल गांधी पार्क में धरना-प्रदर्शन करने की अनुमति न देने पर हुई. यदि हिंसा अचानक होती तो गांधी पार्क या किसी एक स्थान पर हो सकती थी, लेकिन आठ स्थानों पर हिंसा बताती है कि सब कुछ सुनियोजित था.
याद रहे कि राज्य विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले भाजपा ने सहारनपुर से ही परिवर्तन यात्रा शुरू की थी. उसकी सर्वसमाज को जोड़ने की पहल का असर भी सर्वव्यापी हुआ और चारों दिशाओं से निकली यात्रा में इसका संदेश भी गया. अब सहारनपुर में पहली बार नगर निगम के चुनाव होने हैं. लोकसभा के चुनाव में भी बस दो साल बाकी हैं. भीम सेना को शिखंडी बना भाजपा को कोई और ही घेरना चाहता है. भीम सेना को आर्थिक सहायता देनेवाले विभिन्न दलों के छह नेताओं के नाम भी उजागर हुए हैं, जिनमें एक अल्पसंख्यक कद्दावर नेता भी हैं.
मायावती का सहारनपुर दौरा भी काफी कुछ कह देता है. बसपा से भीम सेना के रिश्तों पर काफी कुछ उजागर हो चुका है. हालांकि, ऐसी खबरों पर सफाई देते हुए मायावती ने कहा है कि, ‘मेरे भाई और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का भीम सेना से कोई कनेक्शन नहीं है. बल्कि हमारा मानना है कि भीम सेना पूरी तरह से भाजपा का ही प्राेडक्ट है.’ लेकिन, भाजपा ऐसा क्यों करेगी? खुफिया रिपोर्ट बताती है कि बसपा भीम सेना को समर्थन दे रही है. षड्यंत्रकारियों का मकसद साफ है कि दलित समाज के लोग उग्र रहें, ताकि भविष्य में दलित-मुसलिम गठजोड़ की मंशा परवान चढ़ सके. मतलब सत्ता की खातिर सियासत की वेदी पर तमाम निर्दोषों की कुर्बानियां अभी बाकी हैं, शायद.
जय प्रकाश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार

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