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आज के समय में ग्राम्शी

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार कार्ल मार्क्स (5 मई 1818- 19 मार्च 1883) के बाद वर्ग, संस्कृति और राज्य के प्रमुख सिद्धांतकार, इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक, बीसवीं सदी में मार्क्सवाद के विशिष्ट सिद्धांतवेत्ता, दक्षिणपंथी फासीवादी विचारधारा से सदैव संघर्षरत अंतोनियो ग्राम्शी (22 जनवरी 1891- 27 अप्रैल 1937) की अस्सीवीं पुण्यतिथि (27 अप्रैल 2017) पर आज […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
कार्ल मार्क्स (5 मई 1818- 19 मार्च 1883) के बाद वर्ग, संस्कृति और राज्य के प्रमुख सिद्धांतकार, इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक, बीसवीं सदी में मार्क्सवाद के विशिष्ट सिद्धांतवेत्ता, दक्षिणपंथी फासीवादी विचारधारा से सदैव संघर्षरत अंतोनियो ग्राम्शी (22 जनवरी 1891- 27 अप्रैल 1937) की अस्सीवीं पुण्यतिथि (27 अप्रैल 2017) पर आज के भारत में उनका स्मरण इसलिए जरूरी है कि आज संघ, भाजपा और मोदी बुद्धिजीवियों के बड़े विरोधी हैं.
‘हार्वर्ड’ से ज्यादा ‘हार्ड वर्क’ को महत्व देना बौद्धिक कर्म को गौण मानना है. केवल किसान और मजदूर ‘हार्ड वर्क’ या कठोर श्रम करते हैं, जिसकी आज भारत में पहले से कहीं अधिक दुर्दशा है.
इटली में मुसोलिनी (29 जुलाई, 1882- 28 अप्रैल, 1945) ने 23 मार्च 1919 को एक नये राजनीतिक संगठन- ‘फासी-दि-कंबात्तिमेंत्री’ का गठन किया था. दो वर्ष बाद 21 जनवरी, 1921 को ग्राम्शी ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इटली’ का गठन किया. फासिस्टों ने रोम पर 30 अक्तूबर, 1922 को कब्जा किया. ग्राम्शी 1924 में इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने थे. आठ नवंबर, 1926 को उन्हें गिरफ्तार किया गया. ‘राष्ट्रद्रोह’ का उन पर आरोप लगाया गया था. ग्राम्शी को आरंभ में पांच वर्ष की सजा सुनाई गयी थी. अगले ही वर्ष इसे बढ़ा कर बीस वर्ष किया गया.
जिस प्रकार ‘सिटी ऑफ दि सन’ की रचना कारावास में की गयी थी, उसी प्रकार ‘प्रिजन नोटबुक्स’ की रचना ग्राम्शी ने जेल में की. मार्च 1927 में इसकी योजना उन्होंने बनायी और विचारणीय चार विषयों में एक ‘इटली के बुद्धिजीवियों का इतिहास’ भी था. जून 1928 में उन्हें 20 वर्ष 8 महीने की सजा सुनाई गयी. उनकी गिरफ्तारी पर मुसोलिनी की प्रतिक्रिया थी- ‘हमें इसके दिमाग के सोचने पर लगाम लगा देनी चाहिए.’ अपने तानाशाह की इच्छा दोहराते हुए मुकदमे के दौरान माइकेल इसग्रो ने ‘स्पेशल ट्रिब्युनल’ में कहा था- ‘हमें इसके दिमाग के सोचने पर अगले बीस वर्षों तक अंकुश लगा देना चाहिए.’ यह संभव नहीं हुआ. हिंदी में भी ग्राम्शी के गंभीर अध्येता और प्रशासक हैं. जेल में ग्राम्शी ने 33 डायरियां लिखीं. लगभग 500 पत्र भी. बीसवीं शताब्दी के इस प्रमुख चिंतक-विचारक को आज के भारत में कहीं अधिक पढ़ने और समझने की जरूरत है.
ग्राम्शी ने ‘अर्थ’ और ‘धर्म’ से कहीं अधिक ‘संस्कृति’ पर बल दिया है. वे बुद्धिजीवियों के किसी भी ‘स्वतंत्र’ और ‘स्वायत्त’ समुदाय को नहीं मानते थे. प्रत्येक समाज अनेक समूहों में विभक्त होता है और सभी सामाजिक समूहों के अपने-अपने बुद्धिजीवी होते हैं. बुद्धिजीवियों की अपनी कोई स्वतंत्र श्रेणी नहीं होती. प्रत्येक सामाजिक समूह अपने-अपने बुद्धिजीवियों का निर्माण करता है.
भारत में बुद्धिजीवी शब्द का प्रयोग और व्यवहार जितने सतही, उथले ढंग से किया जाता है, उसका ‘बुद्धि’ से कोई संबंध नहीं है. यहां बुद्धिजीवियों की एक स्वतंत्र श्रेणी मानने का फैशन और चलन है. अभी तक ‘बुद्धिहीन बुद्धिजीवी’ का प्रयोग नहीं किया गया है.
श्रम के स्थान पर बुद्धिबल से कार्य करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिजीवी है, मुख्य सवाल यह है कि वह किस सामाजिक समूह का बुद्धिजीवी है. ग्राम्शी ने ‘परंपरापोषक बुद्धिजीवी’ की श्रेणी में प्रशासक, रूढ़िवादी, दार्शनिक, सिद्धांतकार, विधिवेत्ता, शिक्षक, प्रोफेसर, वैज्ञानिक सबको रखा था. वे बुद्धिजीवी को मात्र वक्ता और चिंतक नहीं मानते थे. महत्वपूर्ण ‘बुद्धिजीवी’ होना नहीं है, समाज में बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वाह करना है.
फरवरी, 1929 में ग्राम्शी ने ‘पहला नोटबुक’ लिखना आरंभ किया. 1932 में अपने आठवें नोटबुक में दस समूहों में पहला ‘बुद्धिजीवी और शिक्षा’ है. स्कूल को वे महत्वपूर्ण ‘साधन’ मानते थे, जहां विभिन्न स्तरों के बुद्धिजीवी विकसित होते हैं. हमारे देश के कई विश्वविद्यालयों पर हमला निर्मित हो रहे बौद्धिक मानस पर हमला है.
ग्राम्शी की ‘सांस्कृतिक आधिपत्य’ (कल्चरल हेजेमनी) वाली अवधारणा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. वे ‘आवयविक बुद्धिजीवी’ की बात करते हैं और ‘सांस्कृतिक आधिपत्यवाद’ को ‘पूंजीवाद का सुरक्षाकवच’ कहते हैं. यह ‘सांस्कृतिक आधिपत्य’ शोषण का सर्वप्रमुख कारण है.
वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की व्याख्या के लिए उन्होंने संस्कृति को आधार बनाया. हमारे यहां जो संगठन अपने को ‘सांस्कृतिक’ कहता है.’सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की जो बात की जाती है, उसके अभिप्रायों को समझा जाना चाहिए. सांस्कृतिक प्रतीकों-बिंबों को जिस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, उसकी काट समानांतर सांस्कृतिक निर्माण और विकास से ही की जा सकती है. ‘सांस्कृतिक आधिपत्य’ का सामना करने के लिए वैकल्पिक सांस्कृतिक मूल्यों और प्रतीकों के निर्माण में बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका है. ग्राम्शी की अस्सीवीं पुण्यतिथि हमें सोचने-सक्रिय होने को प्रेरित कर रही है.
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