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अपने आंगन की सफाई

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार केंद्र और कुछ राज्यों की भाजपा सरकारें इन दिनों भ्रष्टाचार तथा अन्य गंभीर आरोपों से घिरे नेताओं और अफसरों के खिलाफ धुआंधार कार्रवाइयां कर रही हंै.करनी भी चाहिए. इस गरीब देश में भ्रष्टों को सबक देने के लिए यह जरूरी भी है. यह जाहिर बात है कि सरकारी भ्रष्टाचार ने विकास […]

सुरेंद्र किशोर

वरिष्ठ पत्रकार

केंद्र और कुछ राज्यों की भाजपा सरकारें इन दिनों भ्रष्टाचार तथा अन्य गंभीर आरोपों से घिरे नेताओं और अफसरों के खिलाफ धुआंधार कार्रवाइयां कर रही हंै.करनी भी चाहिए. इस गरीब देश में भ्रष्टों को सबक देने के लिए यह जरूरी भी है. यह जाहिर बात है कि सरकारी भ्रष्टाचार ने विकास की गति को धीमा कर रखा है. पर, साथ ही एक बात ध्यान रखने की है. ताजा इतिहास यही कहता है. दूसरों के घरों की सफाई के साथ-साथ भाजपा को अपना आंगन भी देखते रहना चाहिए.

पिछले दशकों का राजनीतिक इतिहास बताता है कि सत्ताधारी दलों ने बाहर सफाई की कोशिश तो की, लेकिन खुद अपने आंगन की अनदेखी कर दी, तो उन्हें अगले चुनावों में उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा.

पहले की भाजपा सरकारें भी इस मामले में कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सकी थीं. पर, प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे सत्ताधारी नेता भ्रष्टाचार के मामले में अन्य अधिकतर भाजपा नेताओं के मुकाबले कुछ अलग दिखने की कोशिश कर रहे हैं. नतीजतन कहीं पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा पर कार्रवाई हो रही है, तो कहीं सपा-बसपा नेता निशाने पर हैं. न तो छगन भुजबल के साथ कोई मुरव्वत हो रही है और न ही जगन मोहन रेड्डी के साथ. पी चिदंबरम और उनके पुत्र भी परेशानी में दिख रहे हैं. ऐसे कई अन्य उदाहरण भी हैं. आगे ऐसे कुछ अन्य नये मामले भी सामने आ सकते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि रोज ही कोई न कोई मुझसे नाराज हो जाता है. यदि कोई कानूनतोड़क व्यक्ति प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री से नाराज हो जाये, तो यह आम जनता के लिए शुभ संकेत है. आयकर महकमा दिल्ली की एक कपड़ा कंपनी के खिलाफ शिकायत की जांच कर रहा है. उस पर आरोप है कि उसने गत 8 नवंबर के बाद 500 और हजार के नोट में 17 करोड़ रुपये बैंक में जमा किये. यह कोई असामान्य बात नहीं है. असामान्य बात यह है कि उस कंपनी के मालिक संघ के एक प्रमुख नेता हंै. अब तक के संकेत तो यही हंै कि आयकर महकमे ने संघ का होने के बावजूद उनके प्रति कोई नरमी नहीं बरती है.

पर, यह देखना है कि ऐसे मामले में केंद्र सरकार अंततः कोई कमजोरी दिखाती है या नहीं. सरकार की साख उसी पर निर्भर करेगी. कमजोरी दिखाई कि फिसले! हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को ही लाल किले से यह साफ-साफ कह दिया था कि न तो हम खायेंगे और न ही किसी को खाने देंगे.

ऐसी ही बात उत्तर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री भी कह रहे हैं. लेकिन ऐसी ही बात ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल भी कहते रहे हैं. भ्रष्टाचार को लेकर उन्होंने अन्य दलों के अनेक नेताओं के खिलाफ गंभीर आरोप लगाये हैं. पर, जब ‘आप’ के ही कुछ विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे, तो उनमें से अनेक मामलों में केजरीवाल उनका बचाव करते दिखे. हालांकि, कुछ मामलों में उन्होंने कार्रवाइयां भी कीं. नतीजा, ‘आप’ आज राजनीतिक ढलान पर नजर आ रही है.

साठ के दशक में बिहार में भी ऐसा ही हुआ था. महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में 1967 में बिहार में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी थी. जनसंघ से लेकर सीपीआइ तक के तपे-तपाये नेता उस सरकार में मंत्री थे. पहले तीन महीने तक सरकारी दफ्तरों में किरानियों ने रिश्वत लेना बंद कर दिया था. पर, जब संयुक्त मोर्चा सरकार के कुछ मंत्रियों ने थोड़ी ‘कमजोरी’ दिखायी, तो बाबुओं ने भी अपना पुराना धंधा फिर से शुरू कर दिया था. बिहार विधानसभा के 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में गैरकांग्रेसी दल को जनता ने सत्ता नहीं सौंपी थी.

साल 1974 में भ्रष्टाचार तथा तत्कालीन सरकार के अन्य गलत कामों के खिलाफ सर्वोदय नेता जेपी नारायण के नेतृत्व में एक बड़ा खिलाफ आंदोलन हुआ था. तब की इंदिरा सरकार ने सर्वोदय नेताओं के खिलाफ अनियमितताओं के गंभीर आरोप लगाये. पर, वह अपनी सरकार के भ्रष्टाचारों और ज्यादतियों का लगातार बचाव करती रहीं. नतीजा, जनता ने 1977 में पहली बार केंद्र में गैरकांगेेसी सरकार बनवा दी. हालांकि, उस हार का बड़ा कारण आपातकाल था.

उस जनता सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गिरफ्तार भी किया. पिछली सरकार की ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग भी बनाया गया. पर, जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता सत्ता के लिए आपस में बुरी तरह लड़ने लगे. कुछ अन्य तरह की शिकायतें भी आने लगीं. भ्रष्टाचार के आरोप में एक मंत्री का विभाग भी बदला गया. पर, प्रधानमंत्री बनने के लिए चरण सिंह ने जनता पार्टी तोड़ दी.

आम लोगों ने इसे नापसंद किया. साल 1980 में कांग्रेस फिर केंद्र और राज्यों की सत्ता में आ गयी. ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं, जब नेताओं के दोहरे रवैये की सजा जनता ने उन्हें दी. बेहतर तो यही है कि भाजपा इन उदाहरणों को ध्यान में रखे.

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