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महुआ और चिरौंजी का अर्थतंत्र

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया जब भी मैं अपने गांव से दूर किसी राजधानी या मुख्यालय में होता हूं, तो मुझे यह सवाल परेशान करता है कि अगर आज गांधीजी होते तो महुआ, चिरौंजी और केंदु के पत्तों के बारे में उनकी क्या राय होती? यह सवाल इसलिए, क्योंकि आदिवासी […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
जब भी मैं अपने गांव से दूर किसी राजधानी या मुख्यालय में होता हूं, तो मुझे यह सवाल परेशान करता है कि अगर आज गांधीजी होते तो महुआ, चिरौंजी और केंदु के पत्तों के बारे में उनकी क्या राय होती? यह सवाल इसलिए, क्योंकि आदिवासी समाज का अर्थतंत्र इन सबसे बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़ा है और इसका सांस्कृतिक और दार्शनिक महत्व है.
हम सब जानते हैं कि महात्मा गांधी का स्वराज लघु-कुटीर और स्वदेशी उद्योगों पर आधारित स्वराज है. गांधीजी का यह चिंतन उस समय की उपज है, जब देश में साम्राज्यवादी शक्तियां यहां के देसी अर्थतंत्र को ध्वस्त कर अपना व्यवसाय और अपनी अर्थनीति स्थापित कर रही थीं. महुआ और चिरौंजी के अर्थतंत्र की बात ऐसे समय में मेरे जेहन में आ रही है, जब देश में देसी शासक हैं और नव-साम्राज्यवादी शक्तियां आदिवासी समाज-तंत्र को ध्वस्त कर देना चाहती हैं.
जो जंगल को सिर्फ मनोरम दृश्य की तरह देखते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि हमारे जीवन के बड़े हिस्से को वन उत्पाद प्रभावित करते हैं. केवल आयुर्वेद ही नहीं, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी वनों पर निर्भर है. हर प्रकार के उद्योगों का संबंध किसी-न-किसी रूप में वनों से है.
इसके बावजूद भी मुख्यधारा की अर्थव्यस्था में वनों की हिस्सेदारी को शामिल नहीं किया जाता है. अंगरेजों ने जो वन अधिनियम बनाये थे, उसका सीधा संबंध राजस्व से था. आजादी के बाद भी जंगलों को राजस्व के रूप में ही देखा गया और आदिवासी अंचलों में बहुत बड़े पैमाने पर जंगलों की ठेकेदारी दी गयी. इस व्यवस्था ने आदिवासी अंचलों में बिचौलियों की जमात तैयार की और धीरे-धीरे आदिवासी समाज से वहां का अर्थतंत्र छिनना शुरू हो गया. यह दो तरह से हुआ है- एक तो राज्य सत्ता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से.
दूसरा, उसकी मशीनरी और उसके प्रतिनिधि ठेकेदारों के द्वारा. जहां-जहां भारी उत्पाद की बात थी, वहां राज्य ने सीधा हस्तक्षेप किया. जैसे- खनन और बांध परियोजनाएं. और जहां छोटे व खुदरा उत्पाद थे, उसकी ठेकेदारी दी गयी. जैसे- लकड़ी, केंदु के पत्ते, इत्यादि. आज जब वन उत्पाद की बात कही जाती है, तो सिर्फ केंदु, महुआ, चिरौंजी, सखुआ, जड़ी-बूटी इत्यादि की बात की जाती है. खनन वन उत्पाद में शामिल नहीं है, जबकि खनन जंगलों के बीच से ही होता है. यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि एक ओर तो आदिवासी समाज को वन उत्पादों पर आधारित समाज कहा जाता है, लेकिन दूसरी ओर उसी समाज को वन के अंदर होनेवाले खनन के उत्पाद का हिस्सेदार नहीं माना जाता है.
महुआ और चिरौंजी के अर्थतंत्र का मतलब उन सभी वस्तुओं से है, जिसका उत्पादन आदिवासी समाज करता है. आमतौर पर जिन्हें हेय नजरिये से देखा जाता है, लेकिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जिनकी बड़ी मांग है और इनके बाजार की कोई स्पष्ट नीति नहीं है.
बनारस में पढ़ाई के दिनों में जब मेरे दोस्तों ने चिरौंजी की कीमत चार-पांच सौ रुपये प्रति किलोग्राम बताया तो मैं हैरान रह गया था, क्योंकि हमें स्थानीय बाजार में प्रति किलोग्राम चिरौंजी के बदले में कुछ नमक या चावल दिया जाता था. स्थानीय बाजार में लाह की कीमत अधिकतम हजार रुपये प्रति किलोग्राम है, लेकिन बाहर के बाजारों में उसकी कीमत उससे कई गुना अधिक है. प्रतिवर्ष अरबों रुपये लगा कर जंगल की उपज की अवैध मार्केटिंग होती है. भारी मात्रा में वन उत्पाद के साथ-साथ आदिवासियों की कला-शिल्प बिचौलियों के माध्यम से बाहर के बाजारों में चली जाती है.
ये उत्पाद आदिवासी समाज की अप्रत्यक्ष मुद्रा हैं. आदिवासी इनका भंडारण करते हैं और जरूरत के हिसाब से इन्हें मुद्रा में बदल देते हैं. यह ऐसी व्यवस्था है, जो आदिवासी समाज में कृषि के साथ-साथ चलती है.
जब-जब आदिवासियों की यह व्यवस्था ध्वस्त हुई है, वे भूख, बेगारी और पलायन के शिकार हुए हैं. औपनिवेशिक समय में जब पहली बार वन अधिनियम बना और जब आदिवासियों की खेती पर अंगरेजों और दिकुओं का कब्जा हो गया, तभी आदिवासी समाज बहुत बड़े पैमाने पर चाय बागानों में पलायन के लिए मजबूर हुआ. आदिवासियों के विद्रोह की वजह भी यही थी. आज भी आदिवासी समाज की परिस्थितियां इससे अलग नहीं हैं. आजादी के बाद भी वन अधिनियम के तहत वन विभाग की क्रूरता ने आदिवासियों की उत्पादन प्रक्रिया को न केवल ध्वस्त किया, बल्कि वह शोषण की नयी संस्था ही बन गया. उदारवाद के इस दौर में आदिवासियों के जंगल और जमीन को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप कर उनकी अर्थव्यवस्था पर अंतिम चोट किया जा रहा है.
एक ओर आदिवासियों के इन उत्पादों को परंपरागत और पिछड़ा कह कर उन्हें छोड़ देने का विचार दिया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उन्हीं उत्पादों और वनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप कर देश की जनता को ‘ग्लोबल’ होने का सपना दिखाया जा रहा है.
आदिवासियों की समाज-व्यवस्था में उनकी अपनी अर्थव्यवस्था भी होती है, इस बात को शायद ही कथित मुख्यधारा का कोई अर्थशास्त्री स्वीकार करे. हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि इसी अर्थव्यवस्था को समझ कर ही नक्सल आंदोलन ने आदिवासी समाज के बीच अपना विश्वास कायम किया है. आदिवासी समाज की आर्थिक प्रक्रियाएं आजादी के बाद भी वन विभाग, सरकरी तंत्र और क्रूर बिचौलियों से दमित थी. नक्सल आंदोलन ने आदिवासियों की इसी आर्थिक प्रक्रिया को सबसे पहले संगठित करने का काम किया था.
फागुन और चैत के महीने से ही वन उत्पादों की भरमार शुरू हो जाती है. इस समय हर कोई जंगलों की गोद में आर्थिक उत्पादन में शामिल रहता है. यहां गांधीजी का जिक्र इसलिए किया गया, क्योंकि विकास का पूंजीवादी मॉडल आदिवासी समाज के अर्थतंत्र को स्वीकार नहीं करता है.
आज भले ही गांधीजी को उनके चश्मे तक सीमित कर दिया गया हो, लेकिन आनेवाली पीढ़ी उन्हीं के विचारों की ओर लौटने को विवश होगी, क्योंकि प्रकृति किसी के लालच को पूरी नहीं कर सकती है. महुआ और चिरौंजी का आदिवासी अर्थतंत्र प्रकृति के साथ सहजीविता पर आधारित है. जैसे-जैसे यह सहजीविता ध्वस्त हो रही है, वैसे-वैसे आदिवासी समाज और प्रकृति दोनों संकटग्रस्त हो रहे हैं.

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