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Thursday, March 28, 2024

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चुनाव में दल, मुद्दे और मीडिया

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार उत्तर प्रदेश कोई साधारण प्रदेश नहीं है. जितनी उसकी आबादी है, उससे ज्यादा आबादी के दुनिया में सिर्फ चार ही देश हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजे के बारे में मैं बहुत सारे मित्र-संपादकों की तरह अटकलें नहीं लगाऊंगा, न ही कोई भविष्यवाणी करूंगा. इस धंधे में पहले से ही बहुतेरे संगठन-संस्थान लगे […]

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश कोई साधारण प्रदेश नहीं है. जितनी उसकी आबादी है, उससे ज्यादा आबादी के दुनिया में सिर्फ चार ही देश हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजे के बारे में मैं बहुत सारे मित्र-संपादकों की तरह अटकलें नहीं लगाऊंगा, न ही कोई भविष्यवाणी करूंगा. इस धंधे में पहले से ही बहुतेरे संगठन-संस्थान लगे हुए हैं.

मुझे यहां यह पहलू खासतौर पर विचारणीय लग रहा है कि किस तरह लड़ा गया यूपी का चुनाव, राजनीतिक दलों-नेताओं, जनता और मीडिया, इन सबके लिए चुनाव के क्या मायने थे और इन सबने किस तरह अपनी भूमिका निभायी? 2014 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने संसदीय चुनाव को ‘भ्रष्टाचार-मुक्त शासन’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के एजेंडे पर चुनाव लड़ा था. इस एजेंडे ने लोगों को आकर्षित किया और इसके आगे सारे दलों के वायदे फीके साबित हुए. भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला और मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने. इस बार के चुनाव में विभिन्न दलों के क्या मुद्दे रहे और उन्होंने कैसे अभियान चलाया?

यूपी चुनाव में विकास और काम की बात सबसे ज्यादा मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके सपा-कांग्रेस गंठबंधन ने की. राहुल गांधी ने भी अखिलेश का भरपूर साथ दिया.

गंठबंधन का मुख्य नारा था- ‘काम बोलता है.’ भाजपा ने विकास की बात तो की, लेकिन उसका ज्यादा जोर सामाजिक समीकरणों पर रहा. उसने धर्म के साथ जाति के मसलों और संवेदनाओं का भी इस्तेमाल करने की कोशिश की. बनारस में उसके शीर्ष नेता एक मंच पर धर्म का छाता पकड़ गायों को केला खिलाते दिखे, तो दूसरे मंच पर ‘सबके विकास’ का भाषण करते दिखे. वहीं बगल के रोहनिया क्षेत्र जाकर धर्म का छाता छोड़ किसी जाति-विशेष के खिलाफ अन्य पिछड़ी जातियों की गोलबंदी सुनिश्चित करने की कवायद करते दिखे. बसपा ने शुरू में ही मुसलिम समुदाय का उल्लेख करते हुए आह्वान किया कि अल्पसंख्यक इस बार एकमुश्त बसपा को ही वोट दें. इन तीनों धड़ों की तुलना करें, तो सपा-कांग्रेस गंठबंधन चुनाव एजेंडे और प्रचार अभियान के स्तर पर अपेक्षाकृत शालीन दिखा. चुनाव प्रचार के बाद अखिलेश ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘इस चुनाव में अगर जाति-धर्म के एजेंडे की जीत होती है, तो हमें सोचना पड़ेगा कि एक्सप्रेस-वे और विकास के क्या मतलब हैं?’

सवाल है कि यूपी या भारत के ज्यादातर राज्यों के लिए विकास के क्या मायने हैं? सिर्फ एक्सप्रेस-वे, चमकदार सड़कें, पार्क या एक-दो शहरों की जगमगाती रोशनी? अखिलेश यादव, मायावती और मोदी, सबसे एक सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में कितना विकास हुआ या इनके पास कितनी योजनाएं हैं? यूपी में ग्रामीण क्षेत्रों के भी 52 फीसदी बच्चे आज निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. अस्सी फीसदी से ज्यादा लोग स्वास्थ्य सेवा के लिए निजी क्षेत्र का सहारा लेते हैं. फिर भी यूपी के चुनाव में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का सवाल अहम चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बना? एक्सप्रेस-वे वाला विकास नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद, आगरा और लखनऊ से कितना आगे बढ़ा है?

मोदीजी बनारस को क्योटो बना रहे थे, लेकिन हर बरसात में शहर की ज्यादातर सड़कों के कई हिस्से नाला में तब्दील हो जाते हैं! बीते तीन साल में बनारस को एक भी नया उपक्रम या नया कारोबारी-प्रोजेक्ट मिला क्या? यूपी का हर शहर-हर जिला यही सवाल अपने नेताओं से पूछ सकता है!

हमारे लोकतंत्र का यही दुर्भाग्य है कि लोग अपने वास्तविक सवाल भी नेताओं से नहीं पूछते. कहीं ‘जयश्रीराम’ का शंखनाद होता है और सारे गरीब-गुरबे, निम्न-मध्यवर्गीय और आम लोग अपना हर दुख भूल कर झंडा लहराती, शंख बजाती भीड़ में तब्दील हो जाते हैं. कोई बिरादरी के नाम पर तो कोई संप्रदाय के नाम पर वोट का जुगाड़ कर लेता है. नेता खुश हो जाते हैं. जनता का वोट पाकर वे सत्ता में आ जाते हैं. लंबे समय से यही दुष्चक्र जारी है.

इस दुष्चक्र के लिए क्या सिर्फ सियासत और हमारे सियासतदान ही जिम्मेवार हैं? मुझे लगता है, इसके लिए कहीं-न-कहीं मीडिया भी जिम्मेवार है. नोबल-विजेता अर्थशास्त्री प्रो अमर्त्य सेन ने भी अपनी किताब ‘एन अनसर्टेन ग्लोरीः इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शंस’ में भारतीय समाज, विकास और लोकतंत्र को लेकर भारतीय मीडिया के रवैये की आलोचना की है.

यूपी के चुनाव में ‘फेक-न्यूज’ और ‘पोस्ट-ट्रूथ’ का प्रवाह जितना तेज दिखा, वह ‘पेड न्यूज’ के सारे पुराने कीर्तिमानों को लांघ चुका है. चुनाव में ज्यादातर न्यूज चैनलों ने खुलेआम पक्षधरता दिखाई. बीते एक सप्ताह के दौरान सिर्फ एक दल के कवरेज को देश के प्रमुख चैनलों में 59 फीसदी से ज्यादा समय मिला. दूसरे दलों की रैलियों या रोड-शो को उस तरह का कवरेज नहीं मिला. चुनाव के दौरान ध्रुवीकरण या सनसनी पैदा करनेवाले मुद्दों को भरपूर उछाला गया. मतदान के बाद अब केंद्रीय गृह मंत्रालय और यूपी पुलिस भी कह रहे हैं कि बगैर किसी पड़ताल के ठाकुरंगज मामले में आइएसआइएस का हौव्वा खड़ा करना अनुचित था! तो क्या यह ‘पोस्ट-ट्रूथ’ था? क्या ऐसे में अवाम के असल मसले गुम नहीं हुए?

इसलिए जनतंत्र के विकृतिकरण के लिए कोई एक पक्ष या कोई एक वर्ग ही जिम्मेवार नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक अैर बौद्धिक जीवन के बहुत सारे धड़े जाने-अनजाने इस दुश्चक्र के हिस्सेदार और शिकार हैं. कोई बड़ा जनजागरण ही इस दुश्चक्र से लोकतंत्र को बचा सकेगा.

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