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उत्तर प्रदेश में क्या होगा

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार उत्तर प्रदेश में क्या होगा? किसकी सरकार बनेगी? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू और अमित शाह की रणनीति फिर रंग दिखायेगी? क्या मायावती वापस आयेंगी? कांग्रेस के साथ मिल कर अखिलेश की सपा कोई करामात दिखा पायेगी? इस वक्त के ये सबसे बड़े राजनीतिक सवाल हैं. और लाख टके का सवाल […]

नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश में क्या होगा? किसकी सरकार बनेगी? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू और अमित शाह की रणनीति फिर रंग दिखायेगी? क्या मायावती वापस आयेंगी? कांग्रेस के साथ मिल कर अखिलेश की सपा कोई करामात दिखा पायेगी? इस वक्त के ये सबसे बड़े राजनीतिक सवाल हैं.
और लाख टके का सवाल है- वोटर क्या कह रहा है?
उत्तर प्रदेश में चुनाव हो और देश की नजरें न टिकी हों, यह मुमकिन नहीं है. वजह भी है. सदस्यों के लिहाज से यूपी विधानसभा देश में सबसे बड़ी है. यह प्रदेश सबसे ज्यादा लोकसभा सदस्य भी देता है. इसी लिहाज से इसके चुनाव न सिर्फ यूपी के लिए, बल्कि देश की राजनीति के लिए भी काफी अहम होते हैं. और यह विधानसभा चुनाव तो कई मायनों में अहम है.
पिछले कुछ चुनाव मुख्यत: समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच ही हुए हैं. मगर, इस बार हालात बदले और काफी दिलचस्प हैं. यह बदलाव मुख्यत: 2014 की लोकसभा चुनाव के बाद आया. उस वक्त, अरसे से निचले पायदान पर टिकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यूपी की इन दोनों बड़ी पार्टियों को न सिर्फ पछाड़ा, बल्कि काफी आगे भी निकल गयी. इ‍सलिए, कई चुनावों बाद इस बार दो की जगह तीन मजबूत राजनीतिक खेमा आमने-सामने है. हां, कांग्रेस यहां सालों से वापस पैर जमाने की कोशिश में है.
भाजपा की नजर से अगर देखा जाये, तो इस बार का विधानसभा चुनाव उसके लिए काफी अहम है. उसके सामने पैमाना साल 2014 का लोकसभा चुनाव है. इस पैमाने के मुताबिक, उसे विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी सीटों से काफी ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए. मगर क्या ऐसा होगा? लोकसभा और विधानसभा चुनावों के नतीजे एक जैसे ही हों, यह जरूरी नहीं है. मगर लोकसभा चुनाव में लगभग सवा तीन सौ सीट पर आगे रहनेवाली भाजपा पौने तीन साल में कहां पहुंची, इसका मूल्यांकन तो होगा.
ऐसा माना जाता है कि सत्ता की ओर बढ़ती पार्टी में चुनाव के वक्त सबसे ज्यादा गहमागहमी होती है. इस लिहाज से सबसे ज्यादा पाला बदल कर आनेवाले नेता भाजपा के पास हैं. यही उसके लिए सबसे बड़ी परेशानी की वजह भी बन गयी है. कैडर वाली पार्टी में चुनाव के वक्त जुड़नेवालों को तवज्जो देने से अंदरूनी तनाव बढ़ गया है. टिकट बंटवारे के बाद कई जगह टकराव, इसी तनाव का नतीजा है.
इन सबके बीच अभी तक वह प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के साथ ही मैदान में है. वह ‘राम और मंदिर’ याद कर रही है. पश्चिमी यूपी में उसके कुछ नेताओं ने धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश की है. केंद्र सरकार का कामकाज भी उसके साथ चिपका है. लोकसभा चुनाव में मजबूत रणनीतिकार के रूप में उभरे अमित शाह इस बार कितना कारगर होंगे, यह देखना दिलचस्प होगा.नतीजा, भाजपा अपने ही बोझ तले ज्यादा दबी नजर आ रही है.
दूसरी ओर, बसपा एक ऐसी पार्टी है, जिसकी राजनीति की धुरी खुद मायावती हैं. उनके खाते में उनकी पिछली सरकार की छवि है. मगर बसपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने उन समर्थक वोटरों को वापस लाने की है, जो लोकसभा चुनाव में उससे छिटक गये थे. ऐसा लग रहा है कि मायावती बहुत हद तक इसमें कामयाब हैं. मगर उन्हें सरकार बनाने के लिए कुछ और मजबूत समर्थक वोट चाहिए. इसलिए मायावती का जोर इस बार मुसलमान वोटरों पर ज्यादा है. मगर यह वोट कितनी बड़ी तादाद में आयेगा, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि मायावती के साथ बाकी समर्थक कितने जुटते हैं. हालांकि, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक बसपा और मायावती के मामले में आमतौर पर गच्चा खाते रहे हैं.
अब बात समाजवादी पार्टी की. सत्ता में रहने का भार इसके कांधे पर है. सभी इस पर ही हमलावर हैं. हालांकि, पिछले छह-सात महीने में अखिलेश यादव का ग्राफ बेहतर हुआ है. इसलिए जब सपा में नये और पुराने का टकराव हुआ, तो ज्यादातर ने पुराने ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव की तुलना में नये ‘लड़के’ को चुना.
अखिलेश की छवि, सपा की पिछली दबंग छवि पर भारी साबित हो रही है. अखिलेश की छवि स्वभाव से शालीन, नयी सोच, विकास से जुड़ी है. इसलिए व्यक्तिगत छवियों के सहारे राजनीति करनेवालों में अखिलेश का नाम भी जुड़ गया है. कांग्रेस के साथ गंठबंधन ने इस छवि को मजबूत करने का ही काम किया है. ज्यादातर को लगता है कि कांग्रेस के पास क्या था, जो उसे गंठबंधन के तहत मिलता. मगर, कांग्रेस के पास कुछ हो न हो, विश्वसनीयता है और उसके पास थोड़े ही सही, लेकिन प्रतिबद्ध वोटर हैं.
गंठबंधन के जरिये ये वोट मिल कर बढ़ेंगे. अगर फायदा होगा, तो दोनों को होगा. इसलिए भाजपा और बसपा दोनों के लिए अब यह गंठबंधन परेशानी का सबब बन सकता है. हालांकि, यह गंठबंधन और असरदार होता, अगर इसमें जयंत चौधरी के साथ राष्ट्रीय लोकदल भी आ जाता. ऐसा लगता है कि सपा जमीनी बदलाव को महसूस नहीं कर पायी.
इन सब के बीच वोटरों की सुध लेना जरूरी है. सभी पार्टियों के पास खास वोटरों का एक तबका है. मगर, अकेले वह तबका किसी को जीत दिला पाने की हालत में नहीं है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि कौन सी पार्टी अपना सामाजिक आधार बढ़ा पाने में कामयाब होती है. वैसे ध्यान रहे, पार्टियों के शोर के बीच वोट डालनेवालों की खामोशी बहुत तगड़ी चोट करती है. खामोश वोटरों की तादाद काफी बड़ी है.
समाज में मुखर वही है जो ताकतवर है. ताकतवर वोटर ही अपनी बात खुल कर जाहिर करता है. मगर ज्यादातर खामोश वोटर हैं. इनमें बड़ी संख्या दलित और अल्पसंख्यक वोटरों की है.
एक बड़ा खामोश वोटरों का वर्ग महिलाओं का है. आमतौर पर इन्हें मूक मान लिया जाता है. चुनावी गहमागहमी में इन्हें उस तरह शामिल भी नहीं किया जाता है, जिस तरह मर्द शामिल होते हैं. इनके वोट का रुझान चुनाव के दिन पता चले तो चले, लेकिन आमतौर पर ये बहुत मुश्किल से अपने पत्ते खोलते हैं. इनके वोट, नतीजे के दिन ही बोलते हैं. इसलिए इनके मन की बात ही चुनावी नतीजे की असली कुंजी है.

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