33.1 C
Ranchi
Thursday, March 28, 2024

BREAKING NEWS

Trending Tags:

शोर के दौर में खो गया विमर्श

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार संसद के बजट सत्र का पहला दौर अब तक शांति से चल रहा है. उम्मीद है कि इस दौर के जो चार दिन बचे हैं, उनका सकारात्मक इस्तेमाल होगा. चूंकि देश के ज्यादातर प्रमुख नेता विधानसभा चुनावों में व्यस्त हैं, इसलिए संसद में नाटकीय घटनाक्रम का अंदेशा नहीं है, पर समय […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
संसद के बजट सत्र का पहला दौर अब तक शांति से चल रहा है. उम्मीद है कि इस दौर के जो चार दिन बचे हैं, उनका सकारात्मक इस्तेमाल होगा. चूंकि देश के ज्यादातर प्रमुख नेता विधानसभा चुनावों में व्यस्त हैं, इसलिए संसद में नाटकीय घटनाक्रम का अंदेशा नहीं है, पर समय विचार-विमर्श का है.
बजट सत्र के दोनों दौरों के अंतराल में संसद की स्थायी समितियां विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर विचार करेंगी. जरूरत देश के सामाजिक विमर्श की भी है. जरूरत इस बात की है कि संसद वैचारिक विमर्श का प्रस्थान बिंदु बने. और वह बहस देश के कोने-कोने तक जाये.
विचार का सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि हमारे प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं? संसदीय कर्म के लिहाज से शीत सत्र बेहद निराशाजनक रहा. पीआरएस के आंकड़ों के अनुसार लोकसभा की उत्पादकता 16 फीसदी और राज्यसभा की 18 फीसदी रही. हंगामे की वजह से समूचे शीतकालीन सत्र में केवल चार विधेयक ही पारित हो सके थे. बेशक राजनीतिक दलों की वरीयताएं जनता के हितों से जुड़ी हैं, पर ऐसी क्या बात है, जो उन्हें अपनी बातें संसद में कहने से रोकती है?
पिछले सत्र के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों कहते रहे कि हमें संसद में बोलने से रोका जा रहा है. यह बात वे सड़क पर कह रहे थे, संसद में नहीं. इतने महत्वपूर्ण नेताओं को संसद में बोलने से कौन रोक रहा था? राहुल गांधी ने कहा, मुझे बोलने दिया गया, तो भूचाल आ जायेगा. उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के बनासकांठा में हुई किसानों की रैली में कहा, मुझे लोकसभा में बोलने नहीं दिया जाता, इसलिए मैंने जनसभा में बोलने का फैसला किया है.
जनसभा में भाषण देना और संसद में बोलना एक बात नहीं है. संसद में बोलने की अपनी मर्यादाएं और अनुशासन है. अफसोस देश की राजनीति इस बात को महत्व नहीं दे रही है. हंगामा भी एक सीमा तक संसदीय कर्म है, पर तभी जब स्थितियां ऐसी हो जाएं कि उनके अलावा कोई रास्ता नहीं बचे. पर हम पिछले दो-तीन दशकों में इस प्रवृत्ति को लगातार बढ़ते हुए देख रहे हैं.
पिछले साल के बजट सत्र के अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस तरफ इशारा भी किया. उन्होंने कहा, सांसद अपनी जिम्मेवारी निभायें. आपको संसद में चर्चा करने के लिए भेजा गया है, पर आप हंगामा कर रहे हैं. साल 2015 के शीत सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने अपने वक्तव्य में संसदीय कर्म के लिए जरूरी अनुशासन का उल्लेख किया था और इसमें आ रही गिरावट पर अफसोस जताया था.
बेशक राजनीति संसद से सड़क तक होनी चाहिए. पर संसद, संसद है. वह सड़क नहीं है. दोनों के फर्क को बनाये रखना जरूरी है. यह शोर का दौर है. सड़क पर संसद में और चैनलों में शोर है. विडंबना है कि जनता खामोशी से कतारों में खड़ी है. या तो नोट पाने के लिए या वोट देने के लिए. उसे इस बहस में शामिल करने की जरूरत है. पर उसके पास मंच नहीं है. मीडिया उसका मंच होता था, पर वह भी अपनी भूमिका से भागता नजर आ रहा है.
लगता है कि विचार करने, और सुनने का वक्त गया. अब सिर्फ शोर ही विचार और हंगामा ही कर्म है. लोकसभा और राज्यसभा चैनलों में संसदीय कार्यवाही का सीधा प्रसारण यदि आप देखते हैं, तो असहाय पीठासीन अधिकारियों के चेहरों से आपको देश की राजनीति की दशा-दिशा का पता लग सकता है.
बजट सत्र हमारी संसद का सबसे महत्वपूर्ण सत्र होता है और इसीलिए यह सबसे लंबा चलता है. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और बजट प्रस्तावों के बहाने महत्वपूर्ण प्रश्नों पर जन-प्रतिनिधियों को अपने विचार व्यक्त करने का मौका मिलता है. इस साल राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा है कि सरकार राजनीतिक पार्टियों से चर्चा के बाद लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए निर्वाचन आयोग के किसी भी फैसले का स्वागत करेगी.
बार-बार चुनाव होने से विकास कार्य रुकते हैं, जन-जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है, सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और लंबी चुनाव ड्यूटी से मानव संसाधन पर बोझ पड़ता है. चुनाव-सुधार पर व्यापक राष्ट्रीय बहस की जरूरत है. सरकार ने इस बार के बजट में राजनीतिक चंदे के बाबत एक फैसला किया है. पर, वह राजनीतिक बांडों की जो योजना पेश कर रही है, उसमें पारदर्शिता नहीं है. देश के लगभग सभी राजनीतिक दल अमूमन ऐसे मामलों में एक हो जाते हैं और चुनाव सुधारों को बजाय आगे बढ़ाने के, रोकने का काम करते हैं. जरूरत इस बात की है कि इस बहस को बड़े स्तर पर चलाया जाये और संसद इस प्रस्ताव को पास करे.
संसद के इस सत्र में बजट के अलावा नोटबंदी और जीएसटी से जुड़े मामलों पर अलग से भी विचार होगा. जीएसटी से संबद्ध तीन विधेयक संसद से पास होने हैं. दोनों सदनों के सामने 14 विधेयक पहले से पड़े हैं और इस सत्र में 23 नये विधेयक और पेश करने का विचार है. इनमें से कुछ इन पंक्तियों के छपने तक पेश हो गये होंगे. हरेक सत्र के पहले इस प्रकार का कार्यक्रम बनाया जाता है और अक्सर वह पूरा नहीं होता.
संसदीय कर्म के पूरा न हो पाने की चोट सीधे देश को लगती है, जिसकी कराह भी सुनायी नहीं पड़ती. आप कुछ विधेयकों पर ध्यान दें. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक विधेयक 20 नवंबर 2013 को राज्यसभा से पास हुआ था, जो लोकसभा के पास विचाराधीन है. उपभोक्ता संरक्षण विधेयक अगस्त 2015 में लोकसभा में पेश हुआ था. अभी तक वह पास नहीं हुआ है. ह्विसिल ब्लोअर संरक्षण विधेयक 13 मई 2015 को लोकसभा से पास हुआ था, अभी राज्यसभा में विचाराधीन है. मातृत्व लाभ से जुड़ा विधेयक 11 अगस्त 2016 को राज्यसभा से पास हुआ, अभी लोकसभा में लंबित है. अनेक विधेयक स्थायी समितियों के सामने विचाराधीन हैं.
किसी भी विधेयक को पास करने के पहले उससे जुड़े हर पहलू पर गंभीर विमर्श जरूरी है. इसलिए विचार की यह पद्धति जरूरी है. हमारे काम इसकी वजह से नहीं रुकते, बल्कि सायास पैदा किये गये गतिरोध के कारण रुकते हैं. शिकायत इसे लेकर है.
You May Like

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

अन्य खबरें