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ट्रंप से अभिभूत न हो भारत

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार मतदान के नतीजे आने के साथ जैसे ही यह सुनिश्चित हुआ डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के अगले राष्ट्रपति बनेंगे, तभी से अटकलों का बाजार गर्म है. अनेक विद्वानों का मानना है कि ‘ओबामा युग’ के अंत के साथ जिस ‘युगादि’ का अवतरण हो रहा है, वह भयानक संभावनाओं के अशुभ संकेतों के […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
मतदान के नतीजे आने के साथ जैसे ही यह सुनिश्चित हुआ डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के अगले राष्ट्रपति बनेंगे, तभी से अटकलों का बाजार गर्म है. अनेक विद्वानों का मानना है कि ‘ओबामा युग’ के अंत के साथ जिस ‘युगादि’ का अवतरण हो रहा है, वह भयानक संभावनाओं के अशुभ संकेतों के कारण बेहद चिंताजनक है. सबसे बड़ा संकट यह लगता है कि तानाशाही तेवरों वाले ट्रंप अमेरिकी गणतंत्र की जड़ों को कमजोर ही नहीं, पूरी तरह नष्ट तक कर सकते हैं.
सत्ता भले ही वह जनतांत्रिक तरीके से हासिल कर रहे हैं, पर इस बात की क्या गारंटी है कि वह हिटलर की तरह गणतंत्र को भीतरघात से ध्वस्त नहीं कर देंगे? यह चिंता भी विकट है कि अब तक जितने भी अमेरिकी राष्ट्रपति हुए हैं, उनमें ट्रंप ही सबसे अयोग्य व कुपात्र नजर आते रहे हैं. यहां यह चर्चा व्यर्थ है कि कैसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पद्धति की विसंगतियों के कारण यह ‘बाहरी’ लगभग निर्दलीय खुदगर्ज उम्मीदवार दोनों राष्ट्रीय दलों के महारथियों को धूल चटा कर व्हाॅइट हाउस तक पहुंचा है. अब सवाल है कि क्या वास्तव में एक बड़ा बदलाव हो रहा है और इसका हम पर क्या असर हो सकता है?
अमेरिका के पैंतालीसवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले चुके डोनाल्ड ट्रंप बुरी तरह विभाजित राष्ट्र की कमान संभाल रहे हैं. कई देशी-विदेशी विश्लेषकों का मानना है कि वह इस पद का भार संभालने में असमर्थ हैं और उनका कार्यकाल अमेरिका तथा पूरी दुनिया के लिए जानलेवा संकट ही पैदा कर सकता है.
इन आशंकाओं को निराधार नहीं कहा जा सकता. अपने बड़बोले व बेशर्म चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने यही जहिर किया है कि वह धन के मद में चूर, नस्लवादी, रंगभेदी मानसिकता से ग्रस्त हैं और पितृसत्तात्मक दकियानूसी तथा कुनबापरस्ती से भी छुटकारा नहीं पा सकते. अपने विरोधी आलोचकों को ट्रंप पागल सिरफिरा कहने में कभी नहीं हिचकिचाते, पर खुद उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जिम्मेवार अमेरिकी नागरिक अपनी चिंता मुखर करते रहे हैं.
जो स्वभाव से आशावादी हैं, यह सुझा चुके हैं कि यह तमाम जुमलेबाजी चुनावी रणनीति थी. राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप बदल जायेंगे, उन्हें अपनी जिम्मेवारी और पद की गरिमा का एहसास होने लगेगा- वह अपने मंत्रिमंडल में सुयोग्य, ईमानदार विशेषज्ञों को नियुक्त करेंगे अत: हमें छाती कूटने की उतावली नहीं करनी चाहिए. आनेवाले वर्षों में अमेरिका के राष्ट्रहित और विश्व शांति निरापद रहेंगे आदि.
अमेरिकी परंपरा में नये राष्ट्रपति की औपचारिक ताजपोशी ‘इनॉगरेशन’ के समारोह से होती है. बीस जनवरी का दिन इसके लिए तय है. यह सोचा जाता है कि इस अवसर पर दिये अपने भाषण के माध्यम से नया राष्ट्रपति अपने प्रशासन की नीतियों का पूर्वाभास कराता है. इसी कारण ट्रंप के इनॉगरेशन पर दुनिया की दृष्टि गड़ी थी .
ट्रंप ने अपने भाषण में सिर्फ उन्हीं बातों को दोहराया, जिन्हें हम लगभग साल भर से सुनते आये हैं.हालांकि, मौके की ऐतिहासिक अहमियत को देखते हुए ट्रंप ने गाली-गलौज, धौंसध-धमकी से परहेज किया, परंतु जलसे में जिस तरह वह अपने घरवालों, कारोबारी दोस्तों और मौकापरस्त तथा अंधभक्त समर्थकों से घिरे आत्ममुग्ध दिखे, उससे इस बात का रत्ती भर भरोसा नहीं होता कि ट्रंप जरा भी बदले हैं या ऐसा करने की इनकी कोई मंशा है. न ही जो नवरत्न ट्रंप ने अपने दरबारी मंत्रिमंडल में जुटाये हैं उन्हें सुयोग्य, विशेषज्ञ या अपने विभागों के विषयों का पारंगत अनुभवी नाना जा सकता है. इन नामज़द लोगों की नियुक्ति की सीनेट द्वारा पुष्टि अभी बाकी है. व्यक्तिगत स्वार्थों और राष्ट्रहित के टकराव की शंका भी टली नहीं है.
‘हम आज से ही काम शुरू कर रहे हैं बिना वक्त गंवाये- अमेरिका का खोया आत्मसम्मान लौटा कर उसे विश्व का महानतम सबसे ताकतवर और खुशहाल देश बनाने का.’ यह ऐलान तो ट्रंप ने कर दिया पर लोकलुभावन वादे को वह पूरा किये जा सकनेवाले इरादे में बदलने की चुनौती मुंह बाये खड़ी रहेगी. यह देखने लायक होगा कि अमेरिका की जनता का उनसे मोहभंग कब होता है? ट्रंप ने यह भी दोहराया है कि इसलामी कट्टरपंथी से जंग को वह प्राथमिकता देंगे. उन्होंने अपने देशवासियों का आह्वान किया है कि वह अमेरिका में निर्मित वस्तुओं का ही उपयोग करें. स्वदेशी को बढ़ावा देनेवाली यह मुद्रा जीत के बाद भारतीय प्रधानमंत्री के तेवर याद दिलाती है.
याद रहे, मेड इन इंडिया को मेक फॉर इंडिया तथा मेड फॉर इंडिया में संशोधित करना पड़ा था. यह कहना आसान है कि अमेरिका का किसी देश से बैर नहीं, मगर अपने चारों तरफ दीवार खड़ी करने पर आमादा ट्रंप यह स्पष्ट करने में कामयाब ही रहे हैं कि भूमंडलीकरण के युग में वह अंतरराष्ट्रीय अंतर्निर्भरता को नुकसान पहुंचाये बिना ‘ना काहू से बैर’ कैसे साधेंगे? पर्यावरण की समस्या को कब तक वह चीनी साजिश कह खारिज कर सकते हैं?
भारत के लिए यही समझदारी होगी कि वह ट्रंप की मीडिया निर्मित छवि से अभिभूत न हो. जरा ठंडे दिमाग से कहनी और कथनी में भेद करते अमेरिका के साथ अपने सामरिक आर्थिक राजनय को संचालित करे.

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