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किताबों की दुनिया के मायने

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया अभी हाल में ही 15 जनवरी को नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का समापन हुआ है. पुस्तक प्रेमियों और प्रकाशकों के लिए यह सबसे बड़ा उत्सव होता है. नये लेखकों के लिए यह हमेशा एक नयी उम्मीद की तरह होता है. किताबों की दुनिया एक […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
अभी हाल में ही 15 जनवरी को नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का समापन हुआ है. पुस्तक प्रेमियों और प्रकाशकों के लिए यह सबसे बड़ा उत्सव होता है. नये लेखकों के लिए यह हमेशा एक नयी उम्मीद की तरह होता है. किताबों की दुनिया एक ऐसी दुनिया है, जहां हम एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य की सार्थक यात्रा कर सकते हैं.
मनुष्य का इतिहास चेतना के निरंतर विकास का इतिहास है. इस विकास में किताबों की दुनिया की सबसे बड़ी भूमिका रही है.जब तक हम किसी किताब में प्रवेश नहीं करते हैं, तब तक हमारे मानस में एक अंधेरा छाया रहता है. मनुष्य की चेतना का विकास निरंतर वाद-विवाद और संवाद से ही संभव हुआ है. इसके लिए चिंतकों, विचारकों और लेखकों ने अपनी कुर्बानियां तक दी हैं. यदि चार्ल्स डार्विन का ‘ओरिजिन ऑफ स्पेसीज’ नहीं होता, तो संभवत: विज्ञान का स्वरूप आज की तरह नहीं होता. हम सब जानते हैं कि डार्विन ने अपनी इस किताब में उस सिद्धांत का साहसिक प्रतिपादन किया था, जो तत्कालीन चर्च और धर्म की मान्यताओं के ठीक विपरीत था. इस सिद्धांत की वजह से डार्विन को चर्च के हमले भी सहने पड़े. यह अपने आप में एक क्रांतिकारी स्थापना थी कि प्रकृति में प्राणियों का अस्तित्व क्रमागत रूप में बनता या समाप्त होता है, न कि ईश्वर जैसी किसी अमूर्त सत्ता की इच्छा से. इसी तरह मार्क्स की किताब ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ और ‘पूंजी’ पूरी दुनिया में सामाजिक परिवर्तन का सबसे वैज्ञानिक आधार बनी. सिग्मंड फ्रायड ने मानव मन की अपरिचित दुनिया को हम सबके सामने अपनी किताबों के माध्यम से ही रखा. ऐसे विचारकों और उनकी किताबों ने ही मनुष्य जाति को जीवन जीने का आधुनिक संदर्भ दिया है.
आमतौर पर हम किताबों को या तो मनोरंजन मात्र का साधन मानते हैं, या स्कूली कोर्स और कैरियर संबंधी जरूरी सामग्री. हम अब भी किताबों को बहस का माध्यम नहीं बना पाये हैं, यह हमारी जड़ता का ही सूचक है.
यह बहुत स्वाभाविक है कि किसी लेखक के विचार उस समय की सामाजिक मान्यताओं और सत्ताओं के विरुद्ध हों, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह समाज के लिए उपयोगी नहीं है. हम जानते हैं कि प्रेमचंद की रचना ‘सोजे वतन’ को अंगरेजी सत्ता ने प्रतिबंधित कर दिया था. यह रचना तत्कालीन सत्ता के अनुकूल नहीं थी, लेकिन यह भारतीय जनता की मुक्ति की आवाज थी. किताबें हमारे अंदर भिन्न विचारों से सार्थक बहस कर संवाद कायम करने का विवेक विकसित करती हैं. लोकतांत्रिकता का आधार ही है ‘असहमति का साहस और सहमति का विवेक’. पिछले दिनों जिस तरह से कुछ लेखकों को खास धार्मिक संगठनों ने धमकियां दी है और कुछ लेखकों की हत्या तक हुई है, यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज का लक्षण नहीं है. गोविंद पनसारे या कलबुर्गी की हत्या इसलिए हुई, क्योंकि वे किसी खास धार्मिक मान्यता से असहमत होकर अपना तार्किक मत प्रस्तुत कर रहे थे. उसी तरह तस्लीमा नसरीन को अपने देश से निर्वासित होना पड़ा है. यह मानव समाज का लोकतांत्रिक चेहरा नहीं है. जब तक विचार स्वतंत्र रूप से नहीं आते रहेंगे, तब तक समाज में मौलिक परिवर्तन संभव नहीं है.
आज की जो जीवन शैली है, उसमें हम किताबों को लेकर बहुत कम सजग हैं. रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ ने चेतना के निर्माण के लिए दुनिया भर में पब्लिक लाइब्रेरी के निर्माण पर बल दिया था. उसी दौर में रूसी साहित्य को दुनियाभर में पहचान मिली, साथ ही शोषित समुदायों ने विचार के महत्व को जाना और खुद लेखन की दिशा में प्रेरित हुए. यद्यपि इसे खास तरह का प्रोपेगंडा कहा गया, लेकिन टॉलस्टॉय, मैक्सिम गोर्की, पुश्किन, रसूल हमजातोव या मायकोवस्की जैसे महान लेखक केवल किसी देश या वैचारिकी की विरासत नहीं हैं, बल्कि वे विश्व समुदाय के अमूल्य धरोहर हैं.
उसी दौर में हमारे देश में हरेक शहरों में सरकारी सहयोग से पब्लिक लाइब्रेरी बनी थी. वह ऐसा दौर था, जब विचार और चिंतन को उपभोग की वस्तुओं से ज्यादा महत्व दिया गया था. लेकिन, सोवियत संघ के पतन और वैश्वीकरण की ताकतों के उभार के साथ ही सामाजिक मूल्य भी बदल गये. वैश्वीकरण ने विचार और चिंतन से ज्यादा वस्तुओं के असीमित उत्पादन और उपभोग पर अपना ध्यान केंद्रित किया. अब विचार, चिंतन और तर्क की जगह वस्तुओं ने ले लिया है. अब किताबों की दुनिया को भी बाजार के उत्पाद की तरह देखा जा रहा है.
जीवन शैली में हुए बदलाव ने किताबों की दुनिया को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है. आज एक अच्छी किताब की जगह एक ब्रांडेड परिधान ने ले लिया है. अब वह दौर नहीं रहा, जब बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि ‘फटे पुराने कपड़े सिल-सिल कर पहनने चाहिए और नयी-नयी किताबें पढ़नी चाहिए’. अब हमारा समाज विचार और चिंतन की जगह वस्तुओं के संकलन का युद्ध मैदान बनता जा रहा है. आज किसी भी बाजार में कई बहुराष्ट्रीय उत्पादों के ब्रांड समान रूप से मिल जायेंगे, लेकिन शायद ही कोई ऐसा मॉल हो जहां ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, इतिहास और दर्शन की किताबें उपलब्ध हों. बाजार ने महंगी वस्तुओं को उपहार के रूप में देने का चलन तो बना दिया, लेकिन ज्ञान की चीजें भी उपहार में दी जा सकती हैं, इस सोच को बाजार ने विकसित होने ही नहीं दिया. इसके बावजूद किताबों की दुनिया अपना विकल्प बनाने में लगातर प्रयासरत है. हमें हर तरह से विचार और चिंतन को अभिव्यक्त होने और प्रकाशित होने का अवसर उपलब्ध कराते रहना चाहिए. इसी तरह हम अपनी भावी पीढ़ी को तार्किक और वैज्ञानिक सोच से संपन्न बना सकते हैं. हमें उन सत्ताओं और धारणाओं को तोड़ने की जरूरत है, जो हमारे समाज में पुरातनपंथी या यथास्थितिवाद का वृत्त बनाते हैं.
दुनियाभर में उपनिवेशवाद के विरुद्ध हुए संघर्षों ने वंचित समुदायों को अभिव्यक्ति का जो अवसर उपलब्ध कराया है, उससे हर दिन किताबों की दुनिया का निरंतर विस्तार हो रहा है. हमें उन तक पहुंच बना कर खुद की चेतना को समृद्ध बनाने का अवसर नहीं चूकना चाहिए. हमें अपने बच्चों के साथ पारिवारिक-सामाजिक अवसर पर या पुस्तक मेले के अवसर पर ही सही किताबों की दुनिया तक सैर करने का रास्ता जरूर निकालना चाहिए.

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