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राम मंदिर मुद्दा अब अप्रासंगिक

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक पुरानी कहावत है कि इतिहास खुद को पहली बार तो एक दुखद घटना और फिर उसकी भी अगली बार प्रहसन के रूप में दोहराया करता है. पर कुछ राजनीतिक दल मानो इस सत्य से परिचित नहीं होते. उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए होनेवाले आगामी चुनावों में राम मंदिर […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

पुरानी कहावत है कि इतिहास खुद को पहली बार तो एक दुखद घटना और फिर उसकी भी अगली बार प्रहसन के रूप में दोहराया करता है. पर कुछ राजनीतिक दल मानो इस सत्य से परिचित नहीं होते. उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए होनेवाले आगामी चुनावों में राम मंदिर निर्माण को एक मुद्दे के रूप में उभार कर भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों ने यह साफ कर दिया है कि वे न तो इतिहास को याद रख सके हैं, न ही उसके सबक आत्मसात कर पाये हैं.

इस संबंध में पिछले अनुभव कट्टरवादी राजनीति के घटते फायदों के अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. 1990 के दशक की शुरुआत में भाजपा को राम मंदिर आंदोलन से फायदा पहुंचा, मगर यह स्थिति टिकी न रह सकी. 1993 के चुनावों के नतीजतन भाजपा ने सरकार तो बना लिया, पर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा मतदाताओं के लिए तब से ही लगातार ठंडा पड़ने लगा.

1996 के चुनावों में भाजपा एक साधारण बहुमत हासिल करने में और उसके बाद तो सबसे बड़ा दल हो पाने में भी विफल रही. अगस्त 2003 में, जब राम मंदिर आंदोलन की स्मृति जनता के मन में ताजा थी, राष्ट्र का मिजाज भांपने के लिए ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में लगभग 50 फीसदी हिंदुओं ने यह बताया कि उनका मत अयोध्या के मुद्दे से तय नहीं होगा.

स्वयं अयोध्या में भी, जहां भाजपा उम्मीदवार हमेशा अच्छा प्रदर्शन करते रहे थे, उनकी जीत का अंतर तथा उनके मतों का हिस्सा मोटे तौर पर घटता ही रहा है.

शहर के दुकानदार भी, जो परंपरागत रूप से भाजपा के मजबूत समर्थक रहे हैं, अब राम मंदिर निर्माण से बढ़ कर अपने कारोबार के घटते जाने से चिंतित हैं. 2002 में भाजपा छोड़ चुके इस क्षेत्र के एक प्रमुख राजनेता वेद प्रकाश गुप्ता ने कहा कि मंदिर के लिए बार-बार होनेवाले आंदोलनों से बनिया समुदाय के लोगों को नुकसान पहुंचा है.

यदि भाजपा राम मंदिर निर्माण का इस्तेमाल मतों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करना चाहती है, तो यह जानना दिलचस्प होगा कि मुसलिम भी इस मुद्दे पर उत्तेजित होने के अनिच्छुक हैं.

2002 में ‘आउटलुक’ द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में 40 फीसदी मुसलिम उत्तरदाताओं ने यह बताया कि वे बाबरी मसजिद के मामले के लिए लड़नेवालों को मुसलिम समुदाय के सच्चे प्रवक्ता नहीं मानते, जबकि 52 फीसदी मुसलिम अयोध्या विवाद का समाधान बातचीत से करने के हामी थे. बाकी बचे 48 फीसदी ने बताया कि वे अदालत के फैसले को खुशी-खुशी मानेंगे. एक भी उत्तरदाता हिंसा का पक्षधर नहीं निकला. निष्कर्ष यह है कि बाबरी विध्वंस के बाद से लेकर अब तक एक सामान्य व्यक्ति, चाहे वह हिंदू हो या मुसलिम, एक-दूसरे से संघर्ष करना नहीं चाहता.

भाजपा-संघ के कट्टरवादी मतदाता इस भावना को कमजोर करने के लिए यह अथवा ऐसे ही अन्य मुद्दे उभारते रहते हैं. वे यह नहीं समझ पाते कि स्वयं हिंदू मत कोई एकाकार नहीं, बल्कि जातियों के उन धड़ों में बंटा हुआ है, जो खुद आर्थिक, सामाजिक, व्यक्तिगत गरिमा एवं राजनीतिक नजरिये की लंबी और बद्धमूल भिन्नताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. भाजपा इन भिन्नताओं को कट्टर राष्ट्रवाद की भावनाएं उभार ढांपने की कोशिश कर रही है. ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को दलगत आधार से ऊपर उठ कर समर्थन मिला, पर प्रधानमंत्री, उनके वरीय मंत्री एवं भाजपा कार्यकर्ता जिस तरह उसका चुनावी इस्तेमाल करना चाहते हैं, वह निंदनीय है.

मतदाताओं के सामने वास्तविक मुद्दा आर्थिक हालात के बुरे होते जाने का ही है. जीडीपी में सात प्रतिशत से ऊपर वृद्धि दर का केंद्र का दावा जमीन पर कहीं नहीं दिखता. निर्यात घट रहे हैं, औद्योगिक उत्पादन निम्न है, विनिर्माण क्षेत्र ह्रासोन्मुख है, बैंकिंग क्षेत्र में अव्यवस्था व्याप्त है और कीमतें और बेरोजगारी की दर ऊपर जा रही हैं. प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगारों का सृजन एक जुमला सिद्ध हो चुका है.

कृषि क्षेत्र की स्थिति तो सबसे बुरी है. पिछले वर्ष राष्ट्र की कृषि वृद्धि दर एक प्रतिशत थी. किसानों से किया गया यह वादा सुविधापूर्वक भुला दिया गया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत पर पचास प्रतिशत मुनाफे के आधार पर तय किये जायेंगे. उर्वरक सब्सिडी घटा दी गयी एवं सिंचाई बजट का आकार छोटा कर दिया गया. देश के किसानों की आधी तादाद प्रति व्यक्ति 47,000 रुपये की कर्जदार है, मगर उन्हें और अधिक कर्ज उपलब्ध कराने के वादे के सिवा भाजपा को और कोई उपाय नहीं सूझ रहा.

ऐसी स्थिति में यदि भाजपा यह यकीन करती है कि एक बार फिर मंदिर कार्ड खेल कर, सांप्रदायिक खाई खोद कर अथवा छद्म राष्ट्रवाद उभार कर वह मतदाताओं को आर्थिक परेशानियां और सामाजिक गैर-बराबरी जैसे उनके जीवन से संबद्ध मुद्दे भूल जाने के लिए भरमा लेगी, तो वह इतिहास को दुखद तथा प्रहसन बना डालने की हद तक दोहराने को अभिशप्त है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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