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दलाली ऐसी कि जाती ही नहीं

अिनल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काॅम अपने समाज में हर तरफ दलाली का बोलबाला है. जिधर भी देखिये, दलाल ही दलाल. पेशे की दलाली को छोड़ दीजिये. अब तो हर पेशे में दलालों ने ठौर बना लिया है. जो जितना बड़ा दलाल है, वह उतना ही रसूख और दौलत वाला है. लेकिन, किसी को गलती से भी […]

अिनल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
अपने समाज में हर तरफ दलाली का बोलबाला है. जिधर भी देखिये, दलाल ही दलाल. पेशे की दलाली को छोड़ दीजिये. अब तो हर पेशे में दलालों ने ठौर बना लिया है. जो जितना बड़ा दलाल है, वह उतना ही रसूख और दौलत वाला है. लेकिन, किसी को गलती से भी दलाल कह दो, तो उखड़ कर आपको जाने क्या-क्या कह डालता है. कारण, दलाली के लिए छवि का बड़ा साफ-शफ्फाफ होना जरूरी है. वरना, उसका सारा धंधा मटियामेट हो सकता है.
लेकिन, रक्षा सौदों की दलाली एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें जन-चौकसी न बरती गयी, तो जिस देश के चलते हम सभी का वजूद है, वही खोखला हो जायेगा. नोट करें कि बोफोर्स कांड तब सामने आया, जब मिस्टर क्लीन देश के प्रधानमंत्री थे. उसके बाद जॉर्ज फर्नांडीज से लेकर एके एंटनी और मौजूदा रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर तक की छवि बड़ी साफ-शफ्फाफ रही है.
इधर, पाकिस्तान से बढ़ते तनाव और युद्धक विमानों से लेकर मिसाइलों व पनडुब्बियों की खरीद के बीच एक बार फिर रक्षा सौदों में दलाली के मुद्दे ने सिर उठाना शुरू किया है. न्यायिक हिरासत में चल रहे हथियारों के सौदागर अभिषेक वर्मा के पूर्व पार्टनर अमेरिकी वकील एडमंड्स एलेन ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर आरोप लगाया है कि भाजपा सांसद वरुण गांधी ने रक्षा संबंधी संवेदनशील जानकारियां लीक की हैं. यह पत्र प्रधानमंत्री को 16 सितंबर को मिल चुका है. लेकिन, उन्होंने इस पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है. वरुण गांधी ने इन आरोपों का खंडन किया है. भाजपा ने कहा है कि वरुण की सफाई के बाद इस मामले पर किसी टिप्पणी की गुंजाइश नहीं है.
लेकिन, इससे भी ज्यादा संगीन आरोप केंद्र सरकार व रक्षा मंत्री पर्रिकर पर लगा है कि उन्होंने स्कॉर्पियन पनडुब्बी घोटाले में लिप्त कंपनी थेल्स को काली सूची में नहीं डाला. ऊपर से उस फ्रांसीसी कंपनी दासॉल्ट एविएशन से 36 राफेल लड़ाकू विमान दोगुनी कीमत पर खरीदे हैं, जिसका 25.3 प्रतिशत मालिकाना थेल्स में है.
पर्रिकर ने इस आरोप पर भयंकर नाराजगी जताते हुए कहा कि राफेल विमानों का सौदा किसी भी देश के साथ हुआ अब तक का सर्वश्रेष्ठ सौदा है. हालांकि, मंत्री जी कुछ भी कह लें, लेकिन संदेह का कांटा तो जनता के मन में चुभ ही गया है. इस बीच सीबीआइ ने साल 2008 में किये गये तीन विमानों के सौदे में ब्राजील की कंपनी एम्ब्रायर से कथित तौर पर 57 लाख डॉलर से ज्यादा की रिश्वत लेने के मामले में ब्रिटेन में रह रहे एक प्रवासी भारतीय के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली है.
असल में हथियारों के धंधे में किसके तार कहां-कहां से जुड़े हैं, पता लगाना बेहद मुश्किल है. दुनिया में हथियारों की बहुत बड़ी लॉबी है. उसका बड़ा शातिर और आपराधिक किस्म का तंत्र है, जो सरकारों से लेकर विपक्षी दलों तक को हमेशा साध कर रखता है. यहां तक कि तमाम राष्ट्र-प्रमुख भी इसके एजेंट की तरह काम करते हैं. भारत पर इस लॉबी की गिद्ध-दृष्टि हमेशा लगी रहती है. कारण, एक तो यह कि भारत अब भी दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना हुआ है. दूसरे, हमारे केंद्रीय बजट का सबसे बड़ा हिस्सा रक्षा पर खर्च किया जाता है.
जैसे, चालू वित्त वर्ष 2016-17 के केंद्रीय बजट में कुल 19,78,060 करोड़ रुपये खर्च का प्रावधान है. इसमें से 3,40,922 करोड़ रुपये (17.24 प्रतिशत) रक्षा के लिए है. पुलिस व आंतरिक सुरक्षा के लिए 75,219 करोड़ रुपये (3.8 प्रतिशत) रखे गये हैं. दूसरी तरफ, रेलवे के लिए 45,000 करोड़ रुपये (2.27 प्रतिशत), सड़क परिवहन व राजमार्गों के लिए 57,816 करोड़ रुपये (2.92 प्रतिशत), ग्रामीण विकास के लिए 87,678 करोड़ रुपये (4.43 प्रतिशत), शहरी विकास के लिए 24,130 करोड़ रुपये (1.22 प्रतिशत), बिजली के लिए 12,253 करोड़ रुपये (0.62 प्रतिशत) और पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस के लिए 26,161 करोड़ रुपये (1.47 प्रतिशत) का आवंटन किया गया है.
ये तमाम क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें सरकारी ठेकों के लिए भयंकर मार होती है. जाहिर है कि जहां चीनी ज्यादा होगी, वहां चींटियां ज्यादा आयेंगी. इसलिए रक्षा क्षेत्र में दलालों की भरमार है. खास बात यह है कि इसमें दलालों का नेटवर्क देश-दुनिया में दूर-दूर तक फैला हुआ है. इनके नुमाइंदे मौका देख कर टीवी चैनलों पर भी पहुंच कर युद्ध की हुंकार भरने लगते हैं. हम परेशान हैं कि विकास का मुद्दा कहां चला गया.
समझने की बात है कि जहां रक्षा पर केंद्रीय बजट का 17.24 प्रतिशत खर्च किया जा रहा है, वहीं शिक्षा पर यह खर्च 3.64 प्रतिशत (72.039 करोड़ रुपये), स्वास्थ्य पर 1.92 प्रतिशत (38,026 करोड़ रुपये) और कृषि व किसान कल्याण पर 2.25 प्रतिशत (44,469 करोड़ रुपये) है. आप कह सकते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि राज्यों का मसला है. इसलिए इनके केंद्रीय खर्च की तुलना रक्षा आवंटन से नहीं की जा सकती है. लेकिन, यहां बात ‘चीनी और चींटियों’ की रही है.
दूसरे, केंद्र सरकार को बजट में न सही, तो राज्यों के बजट आ जाने के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य व कृषि जैसे क्षेत्रों के राष्ट्रीय सरकारी खर्च का सम्मिलित विवरण दे देना चाहिए, ताकि जनता को राष्ट्रीय विकास की गति का भान हो सके. नहीं तो विकास का गुब्बारा उड़ता रहेगा और देश वहीं खड़ा कदमताल करता रह जायेगा.
आप पूछेंगे कि विकास को लाने और दलाली पर टिके इस ‘क्रोनी पूंजीवादी’ तंत्र को खत्म करने का क्या उपाय हो सकता है? इसका जवाब हाल ही में देश के सबसे बड़े अमीर व उद्योगपति मुकेश अंबानी ने एक टीवी कार्यक्रम में दिया. उनका बड़ा स्पष्ट और संक्षिप्त उत्तर था कि इसे पारदर्शिता लाकर खत्म किया जा सकता है. अब लगभग हरेक देशवासी के पास मोबाइल है और कनेक्टिविटी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसमें उनकी नजरों का पहरा बहुत सुधार ला सकता है.
रक्षा मंत्री पर्रिकर को इसकी पहल राफेल जैसे सौदों का विवरण कम-से-कम संसदीय समिति के सामने रख कर करनी चाहिए. अन्यथा, रक्षा क्षेत्र को गाय बना कर रखा गया, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में ऐसे फर्जी गौरक्षक पनपते रहेंगे, जो ‘पूरी रात असामाजिक कार्यों में लिप्त रहते हैं और दिन में गोरक्षक का चोला पहन लेते हैं.’

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