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ना, ना करते प्यार नहीं होता
सुजाता युवा कवि एवं लेखिका एक पिता सोचता है कि स्त्री-शक्ति का अर्थ है कि लड़कियां चंडी का रूप धर दुष्टों का संहार करेंगी और हाइस्कूल में पढ़ती बेटी को एक ऐसी ही फिल्म दिखाने ले जाता है. लेकिन, फिल्म की लड़कियां देवियां नहीं निकलीं. यहां तक कि नियम-कानून जाननेवाली और अपने हकों के लिए […]
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
एक पिता सोचता है कि स्त्री-शक्ति का अर्थ है कि लड़कियां चंडी का रूप धर दुष्टों का संहार करेंगी और हाइस्कूल में पढ़ती बेटी को एक ऐसी ही फिल्म दिखाने ले जाता है. लेकिन, फिल्म की लड़कियां देवियां नहीं निकलीं. यहां तक कि नियम-कानून जाननेवाली और अपने हकों के लिए मुस्तैद आधुनिक स्त्रीवादी भी नहीं थीं. पढ़ी-लिखी साधारण कामकाजी लड़कियां थीं, सामान्य मनुष्य की ताकतों और कमजोरियों वाली, पढ़े-लिखे, साधारण कामकाजी और पुलिस के पचड़ों से डरनेवाले पुरुषों की तरह, जो कानून की बारीकियां तब तक नहीं जान पाते, जब तक कि खुद किसी कोर्ट-केस में फंसते नहीं हैं. फिल्म में लड़की एक लड़के की बदतमीजी से क्रोधित होकर उस पर बोतल से वार करती है.
वह लड़का एक सांसद का बेटा है. लड़की यह नहीं जानती कि अपनी मर्जी से किसी लड़के के साथ जाने के बावजूद उसे आगे बढ़ने से मना करना उसका कानूनी हक है. बेटी को फिल्म दिखाने लाया पिता उस कोर्ट दृश्य से आहत हो सकता है, जिसमें वकील पूछता है- आप कुमारी (वर्जिन) हैं? और क्या इस केस से पहले आपके जो संबंध रहे, वे आपकी मरजी से हुए थे? लड़की ने पहले सवाल में ‘नहीं’ और फिर ‘हां’ का जवाब दिया. यह सब सुनते हुए जैसे कठघरे में खड़ी लड़की का कोर्ट में बैठा पिता उठ कर बाहर चला जाता है, ठीक ऐसे ही फिल्म देखता पिता भी अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर िसनेमाहॉल से बाहर आता है कि यह एक भ्रष्ट फिल्म है.
यह फिल्म थी ‘पिंक’, जिसे आज से दस साल पहले तक हमारा समाज मुख्यधारा सिनेमा के रूप में न बनाने के लिए और न देखने के लिए ही तैयार था. शूजित सरकार ने आज यह विषय उठाया है, जबकि लड़की की ‘ना’ सुनने पर आहत पुरुष-दंभ सरेआम सड़क पर उसकी कैंची से गोद-गोद कर हत्या कर देता है या उसके बातचीत बंद करने पर उसे उसी के घर की बालकनी से धक्का दे देता है.
जिस समाज में लड़कियों की ‘ना’ को कोई महत्व न देने का प्रशिक्षण पाये पुरुष-दंभ के तेजाब से आहत लड़कियां अपने चेहरे पर जीवनभर के घाव और दाग लिये दिन-रात जीने का संघर्ष करती हों, वहां पिंक जैसी फिल्म की जरूरत बहुत पहले से थी. हम ‘डेट रेप’ जैसी घटनाएं सुनते-पढ़ते आ रहे हैं, जब लड़की विवाह पूर्व अपने मित्र या होनेवाले पति के साथ एकांत में जाती है और जबरन वह पुरुष खुद को उस पर थोप देता है.
फिल्म में लड़कों के जज के पास वे सारे मर्दवादी तर्क हैं, जो हमारे आम घरों में किसी के भी माता-पिता, रिश्तेदार के हो सकते हैं. लड़कियां अपनी मरजी से लड़कों के साथ गयीं. वे खराब लड़कियां थीं. वे शराब पीने लगीं. वे खराब लड़कियां थीं. वे तीनों अपने परिवारों से दूर शहर में एक फ्लैट में अकेली रहती हैं. वे खराब लड़कियां हैं. वे लड़कों से हंस-हंस के बात करती हैं. वे खराब लड़कियां हैं. वे अपनी मरजी से किसी रिश्ते में हैं. वे खराब लड़कियां हैं. यहां तक कि एक लड़की जो मेघालय से है, उसे उपलब्ध स्त्री समझने लगते हैं.
आखिर, इस तर्क प्रणाली से निष्कर्ष यह निकलता है कि ऐसी खराब लड़कियों के साथ उनकी मरजी के खिलाफ उनके साथ कुछ भी किया जाना लड़कों का पुश्तैनी हक है और एक नियम-पुस्तिका स्त्री के जीवन के लिए अनिवार्य है, जिसके हिसाब से उसे न किसी पुरुष से हंस कर बात करनी चाहिए (हंसी तो फंसी) न शराब पीनी चाहिए, क्योंकि इसे न जाने किस प्रशिक्षण की वजह से पुरुष दैहिक आमंत्रण समझ सकता है.
यहीं वह वकील याद आता है, जिसने 16 दिसंबर, 2012 की बदनुमा तारीख को हुए निर्भया कांड के बाद यह कहा था कि यदि विवाह पूर्व किसी संबंध में मेरी बेटी होती, तो मैं उसे जिंदा जला देता. यह सामंती मानस ही है कि अपने घर की स्त्री को ऐसा करते पाया, तो उसकी हत्या कर दी और किसी दूसरी लड़की को अपने लिए उपलब्ध वस्तु समझ कर साधिकार भोग किया. इस कबीलाई सोच के साथ जब कोई पिंक फिल्म को देखने जाता है, तो निश्चित ही उसे लगता होगा कि ऐसी लड़कियों को सबक सिखाना ही चाहिए- जैसा कि सांसद का बेटा और उसके दोस्त करते ही हैं.
किसी भी सड़क चलते आम भारतीय के मन में स्वतंत्र स्त्री की ऐसी ही छवि निर्मित होती है कि जिसकी भर्त्सना की जाती है, लेकिन किसी पुरुष को यह किस तर्क से लगता है कि वही स्त्री उसे स्वयं को उपलब्ध हो, तो पहले अवसर में उसे भोग किया जाना चाहिए. समाज के मर्दवादी नियंत्रण से बाहर जाती स्त्री को देख कर न जाने कितनी कुंठाएं किस-किस रूप में व्यक्त होती हैं. यह सोच एक वकील की है, एक सांसद की है, किसी मुख्यमंत्री की हो सकती है.
यह एक बेहद व्यावहारिक समस्या है कि आये दिन, सरेआम लड़कियां अश्लील हरकत करते मनोरोगियों से बचते हुए, छेड़खानी, बलात्कार के भय के साये में पलती और बड़ी होती हैं; और इस सबके बीच उसे स्कूल जाना है, सीबीएससी टॉप भी करना है, कॉलेज जाना है, रिसर्च करना है, पर्चा पढ़ना है, नौकरी करनी है, घर चलाना है. आखिर वह दिन में कितनी बार चिल्ला सकती है? एक हफ्ते में? एक जीवन में? सड़क पर, घर में, पार्टी में? उसे सामान्य जीवन जीना है. वह भरसक कोशिश करके अपने एक जीवन में अनेक बार किसी एक अप्रिय घटना से बचने की कोशिश करती है. लेकिन, जब आवाज उठाती है, तो सबसे पहले चरित्र-हनन की शिकार होती है.
लड़कियां बढ़ रही हैं, बदल रही हैं. जिन्हें बदलना बाकी है, वे पुरुष हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी स्त्री के चरित्र आचार-विचार, रहन-सहन के बारे में क्या सोचते हैं.
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह दलित है, सवर्ण है, आदिवासी है या पूर्वोत्तर भारत से है या यौन-कर्मी है, यदि उसने ‘ना’ कहा है, तो उसका मतलब सिर्फ ‘ना’ है, उसके साथ आगे बढ़ना अपराध ही है. ना, ना करते प्यार नहीं होता, जबरदस्ती ही होती है. यह समय पिताओं के लिए भी पिंक के मुद्दों को ‘भ्रष्ट’ कह कर बच के निकल जाने का नहीं, अपनी बड़ी होती बेटियों को उनके लिए जरूरी कानूनों से अवगत कराने का है.
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