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मीडिया से दूरी रखें पीएम मोदी

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ऐसे कई लोग हैं, जिनका मानना है कि भारत लंबे समय से आतंक के मामले में जान-बूझ कर पाकिस्तान के प्रति नरमी का रवैया अपनाता रहा है. इन लोगों का यह भी मानना है कि जब भी भारत के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई हो, तो भारत को भी हिंसा […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
ऐसे कई लोग हैं, जिनका मानना है कि भारत लंबे समय से आतंक के मामले में जान-बूझ कर पाकिस्तान के प्रति नरमी का रवैया अपनाता रहा है. इन लोगों का यह भी मानना है कि जब भी भारत के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई हो, तो भारत को भी हिंसा के साथ उसका जवाब देना चाहिए.
उन घटनाओं में भी, जिनमें स्पष्ट रूप से पाकिस्तानियों की भागीदारी थी, भारत ने बदले की कार्रवाई नहीं की. उदाहरण के रूप में मुंबई हमले में इस तरह की भागीदारी की बात पाकिस्तान ने स्वीकार भी की थी. जिस समूह का मैं उल्लेख कर रहा हूं, उनकी नजर में यह एक भूल थी.
इस तरह की सोच के मुताबिक, पाकिस्तान द्वारा अपने नागरिकों पर मुकदमा चलाना काफी नहीं था और भारत इस मामले में बहुत कुछ कर सकता था. कार्रवाई नहीं करने का निर्णय जान-बूझ कर लिया गया था और यह कायरता थी. तब बदला लेने का विकल्प हमारे सामने मौजूद था.
जब भारत में आतंकी हमले हुए, तब युद्ध नहीं छेड़ने की नीति को ‘रणनीतिक संयम’ कहा गया. इस सिद्धांत के अनुसार, संकट को नहीं बढ़ाने का निर्णय लेकर भारत जान-बूझ कर अपने क्रोध को दबा रहा है, क्योंकि नफा-नुकसान का विश्लेषण युद्ध करने के विकल्प के पक्ष में नहीं है.
इस रास्ते को अटल बिहारी वाजपेयी ने उस समय चुना था, जब जैश-ए-मुहम्मद ने साल 2001 में भारतीय संसद पर हमला किया था और मनमोहन सिंह ने तब चुना था, जब लश्कर-ए-तैयबा ने साल 2008 में मुंबई में हमला किया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से उस समूह में शामिल हैं, जो कार्रवाई की वकालत करता है. उड़ी हमले के बाद ऐसा लगता है कि उन्होंने बदला लेने के पहले के अपने वादों से किनारा कर लिया है या फिर अपने पहले के बयानों के अनुरूप कार्रवाई करने में उन्हें हिचक हो रही है. इसके अनेक कारण हो सकते हैं. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने वे बातें सीखी होंगी, जिनकी जानकारी उन्हें उसके पहले नहीं थी.
नरेंद्र मोदी के इस रुख के पीछे चाहे जो भी कारण हों, उन्हें अपने समर्थकों से भारी आलोचना का सामना करना पड़ा है. उनके समर्थकों का मानना है कि उनके साथ जो वादे किये गये थे, उन्हें पूरा नहीं किया गया है. समाचार वेबसाइटों पर आ रही टिप्पणियों को देखना अजीब लग रहा है, जिनमें उस मोदी की आलोचना है, जिनकी देश में लोकप्रियता बहुत है. लेकिन पाकिस्तान के मामले पर उनके प्रशंसकों के तेवर बिल्कुल अलग हैं और अधिकतर लोगों की टिप्पणियां बता रही हैं कि वे अपने वादे पर खरे नहीं उतर रहे हैं. आखिर प्रधानमंत्री मोदी को क्या करना चाहिए?
जो लोग इस मसले पर अपनी टिप्पणी दे रहे हैं, उन्हें वे जानकारियां नहीं हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी के पास हैं. सैन्य बलों, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त मंत्रालय आदि से प्राप्त सूचनाएं मोदी के पास हैं.
विदेश मंत्रालय से उन्हें तनाव बढ़ने के अंतरराष्ट्रीय असर का तथा गृह मंत्रालय और इंटेलीजेंस ब्यूरो से देश के भीतर पड़नेवाले प्रभाव का संभावित विश्लेषण उपलब्ध कराया गया होगा. भारत के सामने मौजूद विकल्पों, उनकी कीमत, उनके नतीजों और फायदों के बारे में विस्तृत विवरण तक पहुंच गिने-चुने लोगों को ही होगी.
नरेंद्र मोदी इन सभी बिंदुओं पर गौर करते हुए एक काम कर सकते हैं. और, वह है मीडिया को नजरअंदाज करना. जैसा कि मैंने कहा है, मीडिया के पास वे सूचनाएं नहीं हैं, जो मोदी को उपलब्ध हैं.
लेकिन, इसके बावजूद हम सलाह देने तथा दिशा-निर्देश करने से बाज नहीं आते. और, जब वे हमारे नजरिये के मुताबिक कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हम उन्हें भला-बुरा कहने से भी गुरेज नहीं करते हैं. हममें से बहुत लोगों में यह अकड़ है कि हम ही भारत के राष्ट्रीय हितों के संरक्षक हैं. वास्तविकता तो यह है कि मीडिया के लिए रेटिंग से बढ़ कर और कोई हित नहीं है. भले ही हमारा दावा कुछ और होता है, परंतु सच यही है. एंकरों के आक्रामक तौर-तरीकों का आधार यह विश्वास है कि उनके दर्शक और देश की यही इच्छा है. मुझे भरोसा है कि उनकी नीयत ठीक है, पर वे किसी सोशलाइट द्वारा अपनी बेटी की हत्या करने के मामले को उतना ही कवरेज देते हैं, जितनी बहस वे भारत को युद्ध की ओर ले जाने के लिए करते हैं.
उन्हें स्वयं को इतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, और सरकार को निश्चित रूप से उन्हें भाव नहीं देना चाहिए.दूसरी चीज, जिससे नरेंद्र मोदी परहेज कर सकते हैं, वह है सोशल मीडिया. वे इस मीडिया के एक चैंपियन रहे हैं और ट्विटर पर उनके दो करोड़ से अधिक फॉलोवर हैं. उन्होंने शानदार तरीके से इसका उपयोग किया है और वे सचमुच यह मानते हैं कि सोशल मीडिया ने उनके प्रति व्याप्त उस पूर्वाग्रह को समाप्त करने में मदद की है, जो कि उन्हें लगता है कि पारंपरिक मीडिया में रहा था या अभी भी है. लेकिन यहां भी उनको क्रोधित फॉलोवरों का सामना करना पड़ रहा है, जो उनके पहले के कठोर बयानों का वीडियो लगा कर उन्हें युद्ध के लिए उकसा रहे हैं.
उड़ी हमले पर प्रारंभिक प्रतिक्रिया देने के बाद नरेंद्र मोदी ने दो-तीन दिनों तक कोई ट्वीट नहीं किया. ऐसे समय में उन्हें कुछ और दिनों तक इससे अलग रहना चाहिए. आखिरकार, यह सब थम जायेगा, और किसी गंभीर मसले पर सोच-विचार करते हुए सोशल मीडिया और मीडिया से लापरवाही भरे सुझाव लेना समझदारी नहीं होगी.
कुछ सप्ताह पहले, जिस संगठन में मैं काम करता हूं, वह खबरों में था तथा उस पर ‘राष्ट्र-विरोधी’ होने का आरोप था. जब यह सब हुआ, तब मैं देश के बाहर था और शुरू के कुछ दिन क्रोधित चैनलों को देख नहीं सका. मेरे पिताजी मेरे लिए चिंतित थे और उन्होंने फोन कर अपनी चिंता से मुझे अवगत भी कराया. मैंने उनसे कहा कि टेलीविजन सेट के भीतर हो रही घटनाओं से वास्तविकता बिल्कुल अलग है. अगर वे टीवी बंद कर दें, परेशानियां खुद ही दूर हो जायेंगी. मैं प्रधानमंत्री मोदी से भी यही बात कहना चाहूंगा.

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