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यात्राएं अब भीतर नहीं, बाहर

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका अपने ही भीतर का दरवाजा खोलने के लिए अक्सर बाहर से जाना पड़ता है. मैं कौन हूं और क्यों हूं का शाश्वत सवाल किसी न किसी मोड़ पर सामने आकर खड़ा होता ही है. अक्सर स्त्रियां इससे बच निकल जाना चाहती हैं भीतरी यात्राओं पर और जब बाहर आती हैं, […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
अपने ही भीतर का दरवाजा खोलने के लिए अक्सर बाहर से जाना पड़ता है. मैं कौन हूं और क्यों हूं का शाश्वत सवाल किसी न किसी मोड़ पर सामने आकर खड़ा होता ही है. अक्सर स्त्रियां इससे बच निकल जाना चाहती हैं भीतरी यात्राओं पर और जब बाहर आती हैं, तो और समंजित, संतुलित, एड्जस्टेड. ऐसे में यात्राओं पर तो निकलना होता है, लेकिन भीतर नहीं, बाहर.
सबके साथ नहीं, अकेले. पर्यटक की तरह नहीं, यात्री की तरह. ‘तुम मुझे कितना प्यार करते हो’ के अलावा भी न जाने कितने सवाल एक जिंदगी में उठाये जाने जरूरी हैं खुद को पाने के लिए, खुद से प्यार करने के लिए. इसलिए कभी निकलना चाहिए खुद से बाहर. तयशुदा जवाबों को घर पर छोड़ कर सिर्फ सवालों को पाने के लिए.
क्या यह हैरानी की बात है कि ‘घर जाने की जल्दी’ न होना नौकरी करती किसी मां के लिए असंभव और हसीन कल्पना है?
अजीब है न कि एक चौहद्दी में रहते दैनंदिन काम करते हुए जीवन के पचास बरस बिता चुकने और बाल-बच्चेदारी से बेरोजगार होने के बाद कोई औरत अचानक बंजारन हो जाना चाहे? किसी दिन भर के शैक्षणिक ट्रिप के लिए स्कूल की लड़कियां एड़ी-चोटी का जोर भला क्यों लगा सकती हैं? झूठ बोल कर भी वे जाना चाहती हैं किसी छोटे से वक्फे के लिए बाहर. अजीब यह भी है कि किसी अनजान शहर में दोस्तों के साथ नदी में कश्ती की सवारी किसी चालीस पार की औरत की जिंदगी की पहली और आखिरी खूबसूरत शाम कैसे हो सकती है! सब अजीब है, इसलिए कि घुमक्कड़ी से औरत का कोई नाता नहीं है. औरतें अकेली भटकनेवाली यात्री नहीं हैं. फ्रांसीसी स्त्रीवादी सीमोन द बोउवा लिखती हैं कि उनकी मां यह इच्छा जाहिर करती थीं कि मुझे खानाबदोश होना चाहिए था.
स्त्री की यात्राएं आसान नहीं. बाहर से बचते हुए स्त्री अक्सर अपनी देह में कैद हो जाती है. शायद यही वजह है कि स्त्रियों के लिए यात्रा संस्मरण और यात्रा डायरियां भी हमें अधिक पढ़ने को नहीं मिलतीं. सिएरा नेवादा के पहाड़ों में 28 दिन की अपनी बगैर तैयारी की यात्रा के बाद लिखे गये यात्रा संस्मरण ‘ऑलमोस्ट समव्हेयर’(1993) में सुजेन रॉबर्ट्स यही बात कहती हैं- ‘हम स्त्रियां उस तरह से बीहड़, निर्जन में नहीं भटकतीं कभी, जैसे कि पुरुष. हम अपनी देह में सिमट जाती हैं और उस देह को होनेवाले खतरों की कल्पना में; खतरा किसी कीड़े-मकोड़े या भालू से नहीं, पुरुष से.
हमारी देह प्रकृति और हमारे बीच एक फिल्टर की तरह हो जाती है और तब हम न देह का आनंद पा पाते हैं कभी, न प्रकृति का.’ लद्दाख यात्रा पर निकलती हैं कृष्णा सोबती तो लिखती हैं- ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’. एक शाम सर्किट हाउस लौट कर खिड़की खोल देती हैं जान-बूझ कर, हवाओं का रुख आक्रामक है, हिमालय-पुत्रियों के झंझाते मूड को स्वीकार करती हैं. कृष्णा जानती हैं कि ‘दिल्ली में ये हवाएं कहां!’
हिंदी के यात्रा संस्मरण याद करना चाहें, तो काका कालेलकर, अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, रेणु, अमृतलाल वेगड़ के बीच कृष्णा सोबती का नाम सुनाई देता है.
गगन गिल, नासिरा शर्मा भी. दस में एक और तीस में तीन नाम सुनाई देते हैं स्त्री यायावरी के किस्सों के. घुमक्कड़ी के लिए कितना जरूरी है खो जाने के भय से निजात पाना, सबसे बड़े भय- ‘कोई क्या सोचेगा’ से निजात पाना. अपने आस-पास की परवाह के लिए प्रशिक्षित की गयी और सदा निगरानी में सुरक्षा महसूस करनेवाली स्त्री घुमक्कड़ी का कलप्नातीत सुख नहीं जानती. डेरवला मर्फी की दुस्साहसी एकल साइकिल यात्रा यूरोप, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से होते हुए भारत तक का विवरण उनकी किताब ‘फुल टिल्ट’ (1963) में दर्ज है. बचपन में मिली पुरानी साइकिल और एटलस का असर यह था कि दुनिया भर में अकेले, खाली हाथ घूमते, स्थानीय लोगों की मदद लेते हुए डेरवला ने घूमने के जुनून में खूब खतरे उठाये और खूब किताबें लिखीं.
2006 में आयी एलिजाबेथ गिलबर्ट की किताब ‘ईट, प्रे, लव’ एक यात्रा संस्मरण होने के साथ बाहर की दुनिया में निकल कर खुद तक पहुंचने की यात्रा की कहानी भी है. एलिजाबेथ ने सफर के जो तीन पड़ाव पाये उनकी शुरुआत इसी सवाल से हुई थी कि आप जीवन में करना क्या चाहते हैं, आपकी पहचान क्या है.
और इस सफर में न केवल वह खुद को पाती है, बल्कि एक आध्यात्मिक शांति, आत्मिक संतुलन और प्रेम भी पाती है. एलिजाबेथ और डेरवला की यात्राएं ऐसे में स्वयं तक पहुंचने की यात्राएं हो जाती हैं, जिसे दर्ज करके वे दुनिया को बताती हैं कि औरत में मुश्किलों से पार पाने की ताकत है. कभी बेमानी निकलना घर से, निष्प्रयोजन, शुद्ध आवारगी के लिए, जीवन में कितना मानी भर देता है यह किनारे पर खड़े रह कर मालूम नहीं किया जा सकता. अनुराधा बेनीवाल ने अपनी किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ में अपनी ऐसी ही एकल यात्राओं के अनुभवों को दर्ज किया है.
वहां शुद्ध घुमक्कड़ी है और एक रूढ़िवादी समाज में औरत की यायावरी ही अपने आप में एक गैर-परंपरागत बात है, जिस पर मुच्छड़ समाज का भ्रूभंग हो जाता है.
घर से अकेले निकल सकने का सपना किस औरत का नहीं होता होगा. लेकिन, खुद में गलती ढूढ़ने के प्रशिक्षण के चलते पहला सवाल यही परेशान करता है उसे कि यह खयाल आना गलत तो नहीं?
ऐसे ही बिना किसी काम के, बिना किसी नौकरी या पढ़ाई के प्रोजेक्ट-असाइनमेंट के भी अकेले घूमने जाने का खयाल मूर्खता तो नहीं? धन एक समस्या हो सकती है, लेकिन जहां वे कमाती हैं, वहां भी घर में खर्च करने के बजाय और धन जोड़ने के बजाय अपने अकेले के घूमने पर उसे खर्च करना हमारी ‘संस्कृति’ में नहीं है. कई तरह के स्पष्टीकरण देने हो सकते हैं. उससे निबट भी लिया जाये, तो सुरक्षा की चिंता सताने लगती है.
हमारी भाषिक अभिव्यक्तियों में चार लड़कियां भी एक-साथ हों, तो उन्हें ‘अकेली लड़कियां’ माना जाना अजीब बात नहीं. लेकिन, अंतत: अकेले घूमने पर एक सामान्य सुरक्षा प्रोटोकॉल पालन करना ही होता है, चाहे स्त्री हो या पुरुष. इसलिए घुमक्कड़ी के लिए यदि कोई औरत घर से निकलना चाहती है, तो उसे ऐसा चाहना चाहिए और निकलना ही चाहिए.

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