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काहे रे नदिया तू बौरानी!

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काॅम पानी गले तक आ जाये, तो औरों का भरोसा छोड़ कर खुद ही सोचना और खोजना पड़ता है कि बचने का क्या रास्ता है. दो साल के सूखे के बाद सामान्य माॅनसून ने पूरब से लेकर उत्तर भारत के तमाम इलाकों में यही हालत कर दी है. शहरों, कस्बों व गांवों […]

अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
पानी गले तक आ जाये, तो औरों का भरोसा छोड़ कर खुद ही सोचना और खोजना पड़ता है कि बचने का क्या रास्ता है. दो साल के सूखे के बाद सामान्य माॅनसून ने पूरब से लेकर उत्तर भारत के तमाम इलाकों में यही हालत कर दी है. शहरों, कस्बों व गांवों में लोग घरों से निकल कर सड़कों पर आ गये हैं. नदियां बावली हो गयी हैं. कई जगह तो गांव के गांव बाढ़ में डूब गये हैं. पानी जब उतरेगा तो बीमारियों व महामारियों का दौर अपने पीछे छोड़ जायेगा.
आखिर सूखे और बाढ़ की यह क्या जुगलबंदी है, जिसकी काट आजाद भारत की सरकारें करीब सात दशकों में भी नहीं खोज पायीं? सिक्के का दूसरा पहलू भी कम चिंताजनक नहीं है. सतह पर पानी ही पानी, लेकिन नीचे ‘जल बीच मीन पियासी’ की हालत. देश में भूजल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. दस साल पहले जहां 30 से 40 फुट की बोरिंग पर पानी निकल आता था, वहीं अब 80-85 फुट तक भी पानी के दर्शन नहीं होते. यही नहीं, देश के भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, पारा व यूरेनियम जैसे खतरनाक रसायन भारी मात्रा में पाये जाने लगे हैं.
ऐसी विकट चिंताएं योजना आयोग के पूर्व सदस्य मिहिर शाह की अध्यक्षता में बनी सात सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में व्यक्त की हैं. देश में पानी की स्थिति और सुधार कार्यक्रमों से जुड़ी यह रिपोर्ट पिछले महीने केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्रालय को सौंपी गयी है. रिपोर्ट में बड़े साफ शब्दों में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर पानी की मांग का मौजूदा पैटर्न जारी रहा, तो 2030 तक लगभग आधी मांग अधूरी रह जायेगी. समिति ने स्थापित तंत्र और सोच में ऐसे बदलावों का सुझाव दिया है कि तभी से मंत्रालय में चोटी से लेकर एड़ी तक के तमाम विभागों में बेचैनी फैल गयी है.
समिति ने कहा है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) और केंद्रीय भूमि जल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) को खत्म कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये पूरी तरह अप्रासंगिक हो गये हैं. सीडब्ल्यूसी का गठन 1945 और सीजीडब्ल्यूबी का गठन 1971 में हुआ था. समिति का कहना है कि ये संगठन तब के हैं, जब ‘बांधों का निर्माण और ट्यूबवेल की खुदाई समय की मांग थी.’ इस पर सीडब्ल्यूसी के बाबू लोग इस कदर भड़क गये कि उन्होंने समिति को बांध और विकास विरोधी बता डाला. उन्होंने बड़ा सीधा समाधान सुझाया है कि देश के जिन इलाकों में ज्यादा पानी है, उनका अतिरिक्त पानी कमी वाले इलाकों तक पहुंचाया जाये, तो बाढ़ और सूखे की समस्या एक साथ हल हो जायेगी.
गौरतलब है कि कुछ ऐसी सोच के साथ देश की सारी बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव सबसे पहले ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1858 में आया था. उसके बाद 1970 से लेकर 1980 और 1982 में केंद्र सरकार की तरफ से इस तरह के प्रस्ताव आते रहे. फिर 2001 में तब की अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने नदी जोड़ परियोजना को अमलीजामा पहनाने का काम शुरू किया. लेकिन, तीन साल बाद 2004 में यूपीए सरकार आ गयी, तो यह योजना ठंडे बस्ते में चली गयी. अब मोदी सरकार बनने के बाद इस पर काम शुरू हो गया है. इसके शुरुआती चरण में मध्य प्रदेश की केन-बेतवा नदी को जोड़ा जा रहा है. जल संसाधन मंत्री उमा भारती इस परियोजना को लेकर इतनी समर्पित हैं कि उन्होंने पर्यावरणविदों द्वारा इसका विरोध किये जाने को ‘राष्ट्रीय अपराध’ घोषित कर दिया है.
दिक्कत यह है कि मिहिर शाह समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यह ‘राष्ट्रीय अपराध’ किया है. उसका कहना है कि 2001 में ही इस नदी जोड़ परियोजना की अनुमानित लागत 5.60 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि इसमें इलाकों के जलमग्न होने और विस्थापितों के पुनर्वास की लागत शामिल नहीं थी. दूसरे, मध्य और पश्चिमी भारत के तमाम सूखे इलाके समुद्र तल से 300 मीटर ऊपर हैं, जहां इस जोड़ का कोई फायदा नहीं होगा. तीसरे, नदियों को जोड़ने से भूमि की उर्वरता का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ सकता है.
साथ ही, सामान्य माॅनसून पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है. जाहिर है, उमा भारती के मंत्रालय द्वारा इस रिपोर्ट को स्वीकार किये जाने की कोई गुंजाइश नहीं दिखती.
फिर उपाय क्या है? गुजरात में चार साल पहले मुख्यमंत्री रहने के दौरान एक प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया था. कल 30 अगस्त, मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी वही सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण सिंचाई परियोजना राष्ट्र को समर्पित करने जा रहे हैं. इस परियोजना में नर्मदा नदी में बारिश के दौरान आये ज्यादा पानी को भूमिगत पाइपों के जरिये सौराष्ट्र के 11 जिलों में स्थित 115 तालाबों तक पहुंचाया जा रहा है.
इससे भूमि-अधिग्रहण और विस्थापन की मुसीबत खत्म हो गयी. लेकिन इसमें पानी को जमीन के भीतर से उठाने पर हर महीने 28 लाख यूनिट बिजली खर्च होगी, जिससे गुजरात के सिंचाई विभाग का अकेले इस परियोजना का मासिक बिजली बिल 7.56 करोड़ रुपये आ सकता है. वैसे तो सरकार किसानों से कोई पैसा नहीं लेगी, लेकिन जानकारों के मुताबिक, इसमें एक बोतल पानी की लागत डिस्टिल वॉटर जितनी पड़ेगी. सवाल उठता है कि आखिर यह परियोजना लंबे समय में आर्थिक रूप से कितनी व्यवहार्य होगी?
बड़ी मुसीबत है. धरती के ऊपर बहता पानी कैसे संभाला जाये! धरती के भीतर के पानी का तो और भी बुरा हाल है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, धरती के भीतर से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी आबादी वाले देश के सम्मिलित दोहन से ज्यादा पानी अकेले भारत निकालता रहा है. साल 2010 में भारत ने 251 घन किमी भू-जल निकाला था, जबकि चीन ने 112 घन किमी और अमेरिका ने भी 112 घन किमी भूजल निकाला था.
इस विषम स्थिति और उलझाव के बीच बस इतना समझ में आता है कि देश में हर कुछ साल पर आनेवाली बाढ़ मूलतः भ्रष्टाचार, सरकारी अदूरदर्शिता व लापरवाही का परनाला है, जो फूट कर बह निकलता है. अन्यथा, आजादी के बाद के 69 सालों में भारतीय अवाम ने अब तक जो बूंद-बूंद टैक्स दिया है, उससे दशकों पहले ही ऐसा पुख्ता इंतजाम हो चुका होता कि बाढ़ तबाही व बरबादी नहीं, बल्कि जमीन की नयी ऊर्वर सतह की ही संवाहक बन गयी होती.

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