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फिल्म ‘द हंट’ के बहाने

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया हाल ही में केरल में आयोजित नौवें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बीजू टोप्पो द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘द हंट’ को बेस्ट फिल्म अवाॅर्ड मिला है. बीजू टोप्पो आदिवासी समुदाय के संभवतः पहले फिल्मकार हैं, जिन्होंने फिल्म की दुनिया में आदिवासी जीवन और उनके अधिकारों को […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
हाल ही में केरल में आयोजित नौवें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बीजू टोप्पो द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘द हंट’ को बेस्ट फिल्म अवाॅर्ड मिला है. बीजू टोप्पो आदिवासी समुदाय के संभवतः पहले फिल्मकार हैं, जिन्होंने फिल्म की दुनिया में आदिवासी जीवन और उनके अधिकारों को केंद्र में लाने की कोशिश की है. उन्हें आदिवासी जीवन, दर्शन, और सौंदर्यबोध की गहरी समझ है. वे आदिवासी जीवन के संघर्ष को, उनके अस्तित्व संकट को चित्रित करते हुए भी सौंदर्य का जो दृश्य अपने कैमरे से उभार लेते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है.
आदिवासी जीवन में श्रम और आनंद अलग-अलग नहीं है. श्रम में संघर्ष होता है और संघर्ष का आनंद भले ही ‘ब्रह्मानंद’ की तरह न हो, लेकिन वह उससे बेहतर जरूर होता है. इस बात की वैचारिक समझ बीजू के कैमरे को मुखरता देती है. बीजू के द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लोहा गरम है’ को राष्ट्रपति सम्मान भी मिल चुका है. इस फिल्म में उन्होंने लौह उद्योग की वजह से आदिवासी जीवन और पर्यावरण के तबाह होने की मार्मिक कथा कही है. यह एक ऐसा यथार्थ है, जिससे समझौता करके मानव और प्रकृति कभी सुरक्षित नहीं रह सकती है. बीजू की फिल्मों का केंद्र यही है. इसी की अगली कड़ी है उनकी हालिया पुरस्कृत फिल्म ‘द हंट’.
‘द हंट’ फिल्म भारत सरकार द्वारा आंतरिक सुरक्षा के नाम पर माओवादियों के विरुद्ध चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ की पृष्ठभूमि पर आधारित है. साल 2009 से देश में ऑपरेशन ग्रीन हंट चल रहा है. चूंकि माओवादियों का जमीनी इलाका आदिवासी क्षेत्र ही है, इसलिए ऑपरेशन भी उन्हीं इलाकों में तेजी से चल रहा है.
खासकर छतीसगढ़, ओड़िशा, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में. विशेषज्ञों का भी मानना है कि संवैधानिक विफलताओं और हाल के दिनों में विदेशी निवेश की आक्रामकता ने आदिवासियों के बीच माओवादियों को जगह बनाने का अवसर दिया है. ऐसी परिस्थितियों में सरकार और पारा मिलिट्री फोर्स का दबाव आदिवासी क्षेत्रों में पड़ना स्वाभाविक था. लेकिन इसके साथ ही शुरू हुआ मानवाधिकारों के हनन का अंतहीन सिलसिला. ऑपरेशन के नाम पर आदिवासियों के साथ फर्जी मुठभेड़, बलात्कार, हत्या की शृंखला लंबी होती चली गयी और यह अब भी जारी है.
एक आदिवासी फिल्मकार का बेचैन मन इसे ही अपने कैमरे के लिए विषय बनाता है और बौद्धिक विमर्श के द्वारा बेहतर विकल्प की अपील करता है.
‘द हंट’ हमें कई मुद्दों पर बहस के लिए आमंत्रित करता है. क्या विकास और विस्थापन का अन्योन्याश्रित संबंध है? विस्थापित आदिवासियों की मांग सत्ता में कहां तक पहुंचती है? क्या लोकतांत्रिक प्रतिरोध का हिंसक दमन करनेवाली सत्ता कभी पश्चताप भी करती है? क्या इसका कोई लोकतांत्रिक हल नहीं है? ऐसे सवालों को ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौर में ही ओड़िशा में कलिंगनगर की घटना, छतीसगढ़ में बासागुड़ा की घटना, झारखंड में काठीकुंड और सारंडा की घटना, पश्चिम बंगाल में जंगल महाल की घटना अनायास ही खड़ी करती है.
इन घटनाओं में पारा मिलिट्री फोर्सेस की बर्बरता दिखी है. इन मामलों में दोषियों को चिह्नित कर सजा देने के बजाय आदिवासियों को ही ‘माओवादी’ घोषित कर दिया गया. आदिवासी मानवाधिकार संगठनों ने इस पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की है. बाद के दिनों में जांच के द्वारा यह बात सामने आयी कि जिन्हें ‘माओवादी’ कहा गया था, वे निर्दोष आदिवासी थे. चूंकि यह ‘ऑपरेशन’ एक तरह का युद्ध है और युद्ध सिर्फ हथियारों से नहीं लड़ा जाता है. इसके लिए बड़े पैमाने पर प्रसार और प्रोपेगंडा का सहारा लिया जाता है. प्रोपेगंडा के तहत ही प्रतिरोध करनेवाले आदिवासियों को ‘नक्सली’ या ‘माओवादी’ कह दिया जाता है.
इसी संदर्भ में आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी और लिंगाराम उडुपी की गिरफ्तारी और प्रताड़ना का मामला चर्चा में रहा है. चूंकि मुख्यधारा के मीडिया का पक्ष सरकार का पक्ष है. इसमें आदिवासियों की वास्तविकता खुल कर सामने नहीं आती है. ‘द हंट’ फिल्म ऐसी ही छुपी हुई वास्तविकताओं को न केवल उजागर करती है, बल्कि उसका आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करती है. आज जल, जंगल, जमीन, खनन, और विस्थापन ऐसी वास्तविकता बन गयी है, जिसका संबंध विकास से उतना नहीं रह गया है, जितना सत्ता और कॉरपोरेट के निजी हित और मुनाफे से है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी मानवाधिकारों के लिए काम करनेवाली संस्था ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ ने विकीलीक्स के खुलासे में सामने आये उन दस्तावेजों को सामने रखा था, जिसमें कहा गया था कि सरकारें आदिवासियों को विकास के मार्ग में बाधक मानती हैं. इसकी वजह सिर्फ यही है कि अपने जमीन से उजाड़े जाने का आदिवासी मजबूती से प्रतिरोध करते हैं.
अगर भारत में आठ प्रतिशत आदिवासियों को यहां की सत्ता विकास की बलिवेदी पर चढ़ा देना चाहती है, तो हैरान नहीं होना चाहिए. इसी फिल्म में एक क्लिप है, जिसमें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ‘मिशन सारंडा’ के संदर्भ में आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से यह कहते हुए दिखे हैं कि ‘मैं नहीं चाहता कि ऐसा हो, लेकिन हमारी सरकार में कई लोग हैं, जो चाहते हैं कि माइनिंग के लिए ठेका दिया जाना चाहिए, इसके लिए आप भी लड़ाई लड़िये मैं भी लड़ाई लडूंगा.’ कथित ‘विकास’ के प्रोपेगंडा में सरकार इतनी सफल हुई है कि आज बौद्धिक वर्ग भी इस बात पर बहस करना उचित नहीं समझता है कि क्या खनन देश की जनता की आवश्यकता के अनुरूप हो रहा है या सत्ता और कॉरपोरेट में बैठे कुछ लोगों के हित में? निस्संदेह आदिवासियों की प्रताड़ना और माओवाद का मुद्दा इस सवाल से गहरा जुड़ा हुआ है.
‘द हंट’ एक ज्वलंत बहस है. वरिष्ठ आदिवासी लेखक महादेव टोप्पो कहते हैं कि आदिवासियों को अपने संघर्ष में कलम, कूची और कैमरा से जवाब देना होगा. फिल्म ‘द हंट’ उसी का एक महत्वपूर्ण पक्ष है. आदिवासी समाज के साथ जो दोयम दर्जे का व्यवहार पुराने समय से ही चला आ रहा है, उससे भिड़ने का सबसे कारगर और बौद्धिक माध्यम यही हो सकता है.

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