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उनकी शख्सीयत में एक इत्मीनान था

अपूर्वानंद वरिष्ठ आलोचक अर्धेंदु भूषण बर्धन, या कॉमरेड बर्धन, जिन्हें उनके विरोधी भी जानते थे, के जाने के साथ दिल्ली के ‘अजय भवन’ का आकर्षण बाहरी लोगों के लिए लगभग खत्म हो गया. यह बहुत दिलचस्प है कि संसद में नगण्य उपस्थितिवाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता से बात करने और हर जरूरी राष्ट्रीय मसले […]

अपूर्वानंद
वरिष्ठ आलोचक
अर्धेंदु भूषण बर्धन, या कॉमरेड बर्धन, जिन्हें उनके विरोधी भी जानते थे, के जाने के साथ दिल्ली के ‘अजय भवन’ का आकर्षण बाहरी लोगों के लिए लगभग खत्म हो गया. यह बहुत दिलचस्प है कि संसद में नगण्य उपस्थितिवाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता से बात करने और हर जरूरी राष्ट्रीय मसले पर उनकी राय लेने के लिए पत्रकार इतना उत्सुक रहते थे! उनके लहजे में एक ठसक थी, जो उनमें दिलचस्पी बढ़ा ही देती थी, उनसे दूर नहीं होने देती थी. बर्धन कम्युनिस्ट नेताओं की उस पीढ़ी के आखिरी सदस्य थे, जो पढ़ी-लिखी थी और जिसका दिमागी फलक अत्यंत विस्तृत था. हिंदी, अंगरेजी, मराठी, बांग्ला तो वे समान प्रांजलता से बोल और इस्तेमाल कर सकते थे.
उनकी नब्बे साल से ज्यादा की उम्र में बड़ा हिस्सा सार्वजनिक जीवन का ही रहा, हालांकि वे कोई बिना परिवार वाले संन्यासी न थे. उनकी शख्सीयत में एक इत्मीनान था, जो जिंदगी को उसकी सारी पेचीदगियों में देखने और उससे अलग-अलग स्तरों पर जूझने के बाद ही आ पाता है. इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने ज़िंदगी से समझौता कर लिया था, सिर्फ यह कि वे उसे समझ गये लगते थे और इंसानी सीमा का अहसास भी उन्हें था.
कम्युनिस्ट अहंकार तो उनमें कतई न था, एक आत्मविश्वास अवश्य था जो कई बार लोगों को हैरान करता था कि बिना किसी राजनीतिक ताकत के आधार के वे कैसे इतने आश्वस्त तरीके से बात कर सकते हैं! यह विश्वास इस समझ से पैदा हुआ था कि भारतीय संसदीय राजनीति में जिस विकासातुर पूंजीवादी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को लेकर प्रायः सहमति है, वह मनुष्यता का विकल्प या भविष्य नहीं हो सकती.
बर्धन पीसी जोशी, एसए डांगे, हीरेन मुखर्जी, मोहित सेन, ईएमएस नंबूदरीपाद जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की उस परंपरा और पीढ़ी के सदस्य थे, जो किसी भी विषय पर उसके विद्वानों से आराम से न सिर्फ चर्चा कर सकती थी, बल्कि जिसे उतने ही आदर से सुना भी जाता था. यह बौद्धिक क्षमता बाद में कम्युनिस्ट आंदोलन में क्षीण और दुर्लभ होती चली गयी है.
बर्धन उस पार्टी के नेता थे, जिसके बाद उसके नाम पर बनी अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने हर बात में हीनता का अहसास कराने में कोई कसर न छोड़ी. यह मार्के की बात है कि बर्धन ने और सीपीआइ ने भी कभी अन्य कम्युनिस्ट दलों को नीचा दिखानेवाला न तो वक्तव्य दिया, न ऐसा कोई काम ही किया.
बर्धन का दृढ़ विश्वास कम्युनिस्ट एकता में था. इसका खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना पड़ा, ऐसा खुद पार्टी के भीतर एक मत है. लगभग तीन दशकों तक पार्टी के शीर्ष पर रहने के बावजूद उन्होंने उसके विस्तार और मजबूती के लिए कोई प्रभावी कार्यक्रम नहीं तैयार किया, पार्टी का वजूद बस बना रहा. उन पर एक आरोप यह है कि वे सीपीआइ को सीपीएम में मिला देना चाहते थे, लेकिन दूसरे पक्ष में इसे लेकर कोई उत्साह न था. कुछ लोगों की यह समझ भी है कि उनकी रुचि पार्टी के विस्तार में रह ही नहीं गयी थी.
बर्धन संभवतः वैसे पहले कम्युनिस्ट नेता थे, जिन्होंने मानवाधिकार को सिद्धांततः न सिर्फ स्वीकार किया था, बल्कि उस पर उन्हें गहरा यकीन था. इसका श्रेय उनकी पार्टी को भी मिलना चाहिए.
बिहार में उनकी पार्टी पर हमला करनेवाले और कई बार उसके सदस्यों की हत्या तक कर देनेवाले अतिवामपंथी दलों के सदस्यों की राज्य के द्वारा हत्या या उनकी गैरकानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ बोलने में बर्धन को कभी संकोच न हुआ. वे माओवादी दलों से पूरी तरह असहमत थे, लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता के अधिकार के पक्ष में बिला हिचक बोलते थे.
बर्धन के राजनीतिक जीवन में मजदूर आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है. वे ट्रेड यूनियन के रास्ते पार्टी के बड़े नेता बने. बाद में यह संगठित श्रमिक वर्ग जिस तरह खंडित हो गया और नये पेशों में बदल गया, उसे समझने में जरूर वे पीछे रह गये.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वह पहली कम्युनिस्ट पार्टी है, जिसने हथियारबंद क्रांति की किसी भी संभावना से खुद को अलग करते हुए संसदीय जनतांत्रिक राजनीति के माध्यम से सामजिक परिवर्तन के रास्ते को कबूल किया. यह किसी भी प्रकार का रणनीतिक निर्णय न था.
उसके इस नतीजे पर धीरे-धीरे अन्य कम्युनिस्ट दल पहुंचे, जो पहले इसी वजह से उसे संशोधनवादी और समझौतावादी कहते थे. यह भी कहा जा सकता है कि बर्धन उस कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे, जिसने हर तरह से अहिंसा को अपना आधार बनाया. कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास से मामूली परिचय रखनेवाला व्यक्ति भी जानता है कि यहां तक पहुंचना कितना कठिन है.
बर्धन अपनी तरुणावस्था में कम्युनिस्ट आंदोलन के रूमानी दौर में आये थे. बाद में यह रूमान धुंधला पड़ गया और पार्टी में बने रहने के लिए खासे यथार्थवादी जीवट की ज़रूरत थी. संख्या के लिहाज से अप्रासंगिक सी लगती पार्टी का नेता बने रहने के लिए असाधारण धीरज चाहिए था. बर्धन के बारे में कहा जा सकता था कि उनमें यह धीरजअपार था.
बर्धन धीरे-धीरे एक आदर्श संसदीय जनतांत्रिक राजनेता के रूप में बाकी राजनीतिक दलों में भी स्वीकृत हो गये. इस पर बात होना अभी बाकी है कि भारतीय जनतंत्र को मजबूती देने में और उसे उसकी जनपक्षी धर्मनिरपेक्षता की याद दिलाते रहने में बर्धन जैसे नेताओं की क्या भूमिका थी.
बर्धन के व्यक्तित्व में कुछ था कि उनके मुंह पर उनकी सख्त आलोचना की जा सकती थी. उनका लहजा अक्सर व्यंग्यात्मक होता था, लेकिन वह असहमति को धकेलते न थे. वे शायद खुद को बहुत गंभीरता से लेने के पक्ष में न थे. पिछले साल नब्बे पूरा होने पर एक पत्रकार को उन्होंने कहा था कि वे आत्मकथा नहीं लिखेंगे. इस मामले में बर्धन ने अपने अन्य पूर्ववर्तियों की तरह ही जो संकोच दिखाया, उसका नुकसान कम्युनिस्ट आंदोलन के स्मृति भंडार को हुआ है.
और कोई शिकायत हो न हो, यह शिकायत तो उनसे रह गयी. बर्धन की मृत्यु ने एक प्रसन्न, उन्मुक्त उपस्थिति से भारत के सार्वजनिक जीवन को वंचित कर दिया. आज के कटुता और घृणा के दौर में यह कितनी बड़ी क्षति है, यह क्या कहना पड़ेगा!

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