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Friday, March 29, 2024

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हां, लूट से लड़ने का रास्ता है

इलाज केवल गांधी के पास है. स्वरोजगार, स्वावलंबन और स्वाभिमान. इन लुटेरों का बहिष्कार करो और साथ में विकल्प दो. देने की भी जरूरत नहीं, सब आपके पास मौजूद है. ‘ये भाई, बड़ा नाकिस ज़माना आ गया है. भूख लगेगी पेट में, उमेठा जायेगा कान. बात करिये कीमतों में हो रही बेइंतहा इजाफे की, जवाब […]

इलाज केवल गांधी के पास है. स्वरोजगार, स्वावलंबन और स्वाभिमान. इन लुटेरों का बहिष्कार करो और साथ में विकल्प दो. देने की भी जरूरत नहीं, सब आपके पास मौजूद है.
‘ये भाई, बड़ा नाकिस ज़माना आ गया है. भूख लगेगी पेट में, उमेठा जायेगा कान. बात करिये कीमतों में हो रही बेइंतहा इजाफे की, जवाब आयेगा तुम देश से प्रेम नहीं करते और डंडा आ गिरेगा, वहीं बैठ कर करिये बप्पा माई. बात करिये बेरोजगारी की, तो डिब्बा मुंह खोल देगा और एक दमदार हीरोइन नमूदार होगी, बदन पर पानी की झरती हुई बूंदें, मुट्ठी में एक साबुन और वो मुस्कुरा कर बोलेगी- हमारी ख़ूबसूरती का राज है हम ‘यही साबुन’ लगाते हैं. वायदा था चलेगी बुलेट, निभाया जा रहा है खीसे को खाली कर के. जवाब मांगिये तो जेरे बहस हो जायेंगे आमिर खान! यह वक्त है मुंहबंद का’ मद्दू पत्रकार की बात खत्म होते ही कयूम मियां ने टुकड़ा जोड़ा- नहीं भाई! बात इतनी ही नहीं है कि जुबान बंद रखना है, कुछ भी नहीं बोलना है, वरना सियासी बयान मान लिया जायेगा. यह ज़माना और आगे निकल गया है. मुंहजोर का ज़माना आ रहा है. जो मन में आये अनाप-सनाप बोलते जाइये. और लोगों से कहिये- सुनो, बस सुनो. कोई सवाल नहीं पूछना. सुनानेवाला कितना भी बड़ा झांसा दे जाये, मीन-मेख मत निकालिये.
एगो नयी वारदात हुई है. पहली नजर में तो इस पर खुल कर ठहाका लगाने का मन करेगा, लेकिन इसके तासीर में जाकर देखिये, ताना-बाना बहुत दूर तक फैला है. वाकया यूं है कि एक दिन एक साहब न्यायालय पहुंच गये और अदालत के सामने अर्जी दे मारे कि माननीय अदालत जी! एक क्रीम के बारे में हमें बताया गया कि इसे नियमित रूप से एक हफ्ते लगाइये, आप गोरे हो जायंगे. हुजूर! हम हफ्ते नहीं महीनों लगाते रहे, नियमित रूप से. सुबह, दोपहर, सांझ. लेकिन चेहरे का रंग कत्तई नहीं बदला, उलटे जहां तक लगाते रहे, चमड़ी खुरदुरी जरूर हो गयी है. हमारे साथ धोखा हुआ है. इसका फैसला आपके हाथ है. अदालत ने टका सा जवाब दे दिया, अदालत को अब यही सब देखना बाकी रह गया है? मुंह लटका कर वह साहब वापस अपने घर को आये.
‘हम होते तो का करते, मालूम है?’ खैनी मलते हुए नवल उपाधिया ने विषय को अपने हाथ में ले लिया- ‘जींस की पतलून फाड़ कर बोरी सिलता, विदेशी मार्का चड्ढी को बांस में बांध कर आम तोड़ना खोता बनाता, साबुन और सैंपू को मंगरू धोबी को देता इस हिदायत के साथ कि इससे गधे को नहलाना. टूथ ब्रश की गर्दन तोड़ कर, डंडी उमर दरजी को देता…’ उमर, जो अब तक संजीदगी से सुन रहे थे, अपना नाम सुनते ही चुनक पड़े. हमारे हिस्से में यह डंडी क्यों भाई? क्योंकि तुम्हें पजामे में नाड़ा डालने में दिक्कत होती है, इसके निचले हिस्से में छेद बना रहता है, उसका सही इस्तेमाल तुम्ही कर सकते हो… एक जोरदार ठहाका लगा. और फिर सन्नाटा छा गया. फिर बात की शुरुआत चिखुरी ने की- बात तो सही है. इस भ्रामक प्रचार ने तो पूरे समाज की कमर ही तोड़ दी है. स्वास्थ्य, स्वाद और फिजूलखर्ची की मार से आम आदमी उलझा पड़ा है और उसी खाद पर बड़े-बड़े कॉरपोरेट घराने लूट कर मजा ले रहे हैं. पीढ़ी की पीढ़ी बरबाद हो रही है. और इस खेल में डिब्बे का बड़ा हाथ है. जो मर्जी, बोल रहा है. लोग फंसते जा रहे हैं… मद्दू पत्रकार ने बीच में टोका- अब स्तनपान को ही देखिये. डिब्बे ने प्रचारित किया कि बच्चे को स्तनपान कराने से सौंदर्य में खराबी आती है. बस इस बात पर शहर की संभ्रांत महिलाएं सावधान हो गयीं. विकल्प कारखाने ने दे दिया ‘निपल वाला बोतल’. बाद में पता चला कि यह तो बहुत खतरनाक खेल हो गया. सरकार चेती. स्तनपान और उसके बचाव के लिए सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करना पड़ा. उसके प्रचार में फिर डिब्बा सामने आया. लेकिन जरा उस पीढ़ी के बारे में सोचिये, जो निपल वाले बोतल से जवान हुई है.
लाल साहेब, जो अब तक चाय बनाने में उलझे थे लेकिन कान अपना काम इधर ही कर रहा था, अचानक पलटे- इसका निदान का है भाई? कोर्ट कह रहा है कि हमसे कोइ मतलब नहीं. संसद ऐसे बुनियादी सवालों पर जायेगी नहीं, क्योंकि उसका हर पेंच कॉरपोरेट घराने में फंसा पड़ा है. कार्यपालिका का एकमात्र काम है सातवें बेतनमान की प्रतीक्षा और ऊपरी आमदनी का जुगाड़. तब इस लूट के खिलाफ कौन लड़ेगा?
लाल साहेब ने सबको निरुत्तर कर दिया. सन्नाटा पसर गया. लेकिन चिखुरी ने लंबी सांस ली- है रास्ता है. सबकी निगाह चिखुरी पर टिक गयी. चिखुरी ने चुप्पी तोड़ी- इलाज केवल गांधी के पास है. स्वरोजगार, स्वावलंबन और स्वाभिमान. इन लुटेरों का बहिष्कार करो और साथ में विकल्प दो. देने की भी जरूरत नहीं, सब आपके पास मौजूद है. नवल ने हामी भरी- सही कहा काका… और गाते हुए चलते बने- चरखवा क टूटे न तार, चरखवा चलत रहे दिन रात.
चंचल
सामाजिक कार्यकर्ता
samtaghar@gmail.com
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