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जातिवाद व वंशवाद से बिहार बाहर निकले

– राजेंद्र तिवारी – समाज को राजनीति से दिशा देने के लिए सभी को समान अवसर उपलब्ध कराना ही लोकतंत्र की खूबसूरती है. जो प्रतिभावान हैं, उनके लिए जगह बन ही जाती है. लोकतांत्रिक समाज, लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी से बड़ी मुश्किलों से निबट सकने की ताकत रखती है.उसमें तमाम तरह के लोगों, तमाम तरह के […]

– राजेंद्र तिवारी –
समाज को राजनीति से दिशा देने के लिए सभी को समान अवसर उपलब्ध कराना ही लोकतंत्र की खूबसूरती है. जो प्रतिभावान हैं, उनके लिए जगह बन ही जाती है. लोकतांत्रिक समाज, लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी से बड़ी मुश्किलों से निबट सकने की ताकत रखती है.उसमें तमाम तरह के लोगों, तमाम तरह के विचारों, तमाम तरह के प्रयोगों को पल्लवित व पुष्पित करने की मैकेनिज्म होती है जो समाज को संतुलित व टिकाऊ विकास के रास्ते पर ले जाती है. लेकिन लोकतंत्र में यदि इन तमाम रास्तों को संकरा कर दिया जाये तो समाज सड़ने लगता है.
आज यही हो रहा है. हमारे यहां जातिवाद और परिवारवाद ने लोकतंत्र को सामंती बना दिया है. इसका नतीजा हम सब देख ही रहे हैं. चाहे देश के स्तर पर देखें या अपने राज्य बिहार के स्तर पर, जातिवाद और परिवारवाद ने लोकतंत्र को अपनी अजगरी जकड़न में ले रखा है. विकास जाति और परिवारवाद के नीचे दब जाता है. आज बिहार में क्या हो रहा है? चुनाव के वक्त, जाति की भूमिका बार-बार मस्तिष्क पर प्रक्षेपित की जा रही है. एकाध राजनीतिज्ञ को छोड़ दें, तो सब जाति-जाति कर रहे हैं. बिहार में एक बड़े किसान नेता हुए स्वामी सहजानंद सरस्वती. उन्होंने पहले आम चुनाव (1951) के बारे में लिखा है: पार्टियों के उम्मीदवारों का चयन उनकी सीटों पर जातीय संरचना को देखकर किया गया.
क्या हम कह सकते हैं कि 64 साल बाद राजनीतिक पार्टियों में उम्मीदवारों के चयन का पैटर्न बदला है? आज भी जातिगत समीकरणों के आधार पर उम्मीदवार दिये जा रहे हैं. हर गंठबंधन अपनी जीत की कुंजी जातिगत मैट्रिक्स में ही देख रहा है. जाति के आधार पर वोटरों को लुभाया जा रहा है और जाति के आधार पर जीत-हार का पहाड़ा पढ़ाया जा रहा है.
दूसरा प्रश्न वंशवाद का है. राज्य में वंशवाद की राजनीति का विस्तार हमें कहां ले जायेगा? कई परिवारों में पहली, दूसरी और अब तीसरी पीढ़ी राजनीति में उतर आयी है. लोकतंत्र को हमारे ज्यादातर राजनीतिज्ञों ने आधुनिक सामंतवाद में तब्दील नहीं कर दिया है? बिहार के 40 लोकसभा सदस्यों में से एक चौथाई राजनीतिक परिवारों से हैं.
विधानसभा चुनावों में 35 राजनीतिक परिवारों के 44 लोग मैदान में हैं. इसमें हम उन उम्मीदवारों को शामिल नहीं कर रहे हैं, जो हैं तो राजनीतिक परिवारों से, लेकिन, उनको राजनीतिक संरक्षण अपने परिवारों से नहीं मिला. इसके अलावा, राजनीतिक परिवारों के वे लोग नाराज हैं जो टिकट की लाइन में थे लेकिन टिकट मिला नहीं. समाजवादी चिंतक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने 1959 में ही परिवारवाद के खतरे से आगाह किया था जब पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गयी थीं.वह लगातार नेहरू-गांधी वंशवाद का विरोध करते रहे.
एक वाकया यहां उद्धृत करना चाहूंगा – 1967 के लोकसभा चुनाव में डॉक्टर लोहिया इलाहाबाद जिले के फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित के खिलाफ प्रचार कर रहे थे.
उस दौरान उनसे एक विदेशी महिला मिलने आयी जिसने बताया कि उसका नाम स्वेत्लाना है और वह जोसेफ स्टालिन की पुत्री है. स्टालिन 1941 से 1953 तक तत्कालीन सोवियत संघ के शासनाध्यक्ष थे. स्वेत्लाना अपने वीजा की अवधि बढ़वाना चाहती थी जिससे वह कुछ दिन और भारत में रुककर अपने दिवंगत पति ब्रजेश सिंह के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा करा सके. जब उसे कहीं से मदद न मिली तो वह डाक्टर लोहिया के पास आयी. डा. लोहिया ने उसे मदद का आश्वासन देते हुए अपना संघर्ष जारी रखने की सलाह दी. जब स्वेत्लाना चली गयी तो लोहिया ने अपनी पार्टी के साथियों से कहा, देखो, स्टालिन की पुत्री मदद के लिए इधर से उधर दौड़ रही है और नेहरू की पुत्री इंदिरा भारत की प्रधानमंत्री है.
लेकिन आजहर दल में नेहरू-गांधी परिवार उग चुके हैं और लगातार उगते जा रहे हैं. वे दल तो सबसे ज्यादा वंशवादी हैं जो खुद को लोहिया के बताये रास्ते पर चलने वाला मानते हैं. मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान और लालू प्रसाद लोहिया की लाइन पर चलते हुए परिवारवाद के विरोध की राजनीति से ही पनपे. लेकिन आज ये परिवारवाद के सबसे बड़े उदाहरण हैं. तमिननाडु में करुणानिधि के परिवार के करीब 200 लोग राजनीति में हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो यही दिखाई देगा. राजनीतिकों से पूछिये तो उनका तर्क होता है कि जब डाक्टर का बेटा डाक्टर बन सकता है तो राजनीतिक का बेटा राजनीतिक क्यों नहीं. पहली नजर में यह तर्क जायज लगता है लेकिन जरा बारीकी से देखिए. डॉक्टर का बेटा डॉक्टर सिर्फ इसलिए नहीं बन जाता कि उसके पिता डॉक्टर हैं बल्कि डॉक्टर के बेटे को भी वही टेस्ट पास करने होते हैं जो एक गैर डॉक्टर के बेटे को. डॉक्टर के बेटे को भी उतने ही साल मेडिकल की पढ़ाई करनी पड़ती है जितनी किसी दूसरे के बेटे को. यही बात हर पेशे पर लागू होती है सिवाय दुकानदारी के.
यानी राजनीति को अपनी दुकान मानते हैं परिवार के पोषक राजनेता. पिछले दिनों एक बड़े नेता ने कह ही दिया कि उसके बेटे राजनीति नहीं करेंगे तो क्या भैंस चरायेंगें. सवाल तो है लेकिन इसका जवाब सिर्फ यही नहीं है जो इस राजनेता ने दिया. आप खुद सोचिए यदि राजीव गांधी इंदिरा गांधी के पुत्र न होते तो क्या वह प्रधानमंत्री बन पाते? यदि राहुल गांधी नेहरू-गांधी परिवार से न होते तब भी क्या वे देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के सबसे महत्वपूर्ण नेता बन पाते? यदि अखिलेश यादव मुलायम सिंह यादव के पुत्र न होते तब भी क्या वे तीन साल के राजनीतिक जीवन के बाद ही देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री बन पाते? चिराग रामविलास पासवान के पुत्र न होते तब भी क्या वे पहली बार में ही लोजपा संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बन पाते? मीसा, तेजप्रताप व तेजस्वी लालू प्रसाद की संतान न होते, तब भी क्या उनको इतनी आसानी से सिटिंग प्रतिनिधियों का टिकट काटकर टिकट मिल जाता? हर सवाल का जवाब नकारात्मक ही है.
जैसे पहले जन्मना राजा होते थे वैसे ही वंशवाद अब जन्मना राजनेता पैदा कर रहा है. दरअसल वंशवाद और जाति की राजनीति स्वार्थ और चाटुकारिता को प्रश्रय देती है, प्रतिभा को नहीं. इस राजनीति में वंश के स्वार्थ सबसे ऊपर होते हैं भले ही उसके लिए समाज को कितनी भी कीमत क्यों अदा करनी पड़ रही हो. सोचिए, अपने राज्य की जितनी समस्याएं हैं, चुनौतियां हैं, क्या उनका हल वंशवाद या जातिवाद की राजनीति से निकल सकता है?
क्षेत्र-धर्म-जाति-गोत्र के आधार पर चुने जाने वाले प्रतिनिधि क्या पूरे समाज को साथ लेकर चल सकेंगे? क्या इस तरह की राजनीति बिहार को विकास की राह पर ले जा पायेगी? क्या इस राजनीति से बिहार उस गति से ग्रोथ कर पायेगा, जिससे वह विकसित राज्यों की कतार में खड़ा हो सके? वंशवाद व जातिवाद की राजनीति को समर्थन देंगे और देखेंगे विकसित बिहार का सपना, दोनों एक साथ कैसे संभव होगा?
बिहार की सूरत बदलनी है, तो जाति और वंश की अजगरी जकड़न से बिहार को निकलना ही होगा.

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