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पशु बलि पर प्रतिबंध के प्रयास

शीतला सिंह वरिष्ठ पत्रकार अभी हाल ही में नेपाल के गाढ़ीमाई मंदिर में पशु बलि बंद करने का निश्चय हुआ है. यह एक संकेत है कि पुरानी मान्यताएं, विश्वास और परंपराएं, जो बलि या हत्याओं पर आधारित हैं, धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं. इस तरह के बदलाव के पीछे सबसे बड़ा कारण नयी स्थितियां और […]

शीतला सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

अभी हाल ही में नेपाल के गाढ़ीमाई मंदिर में पशु बलि बंद करने का निश्चय हुआ है. यह एक संकेत है कि पुरानी मान्यताएं, विश्वास और परंपराएं, जो बलि या हत्याओं पर आधारित हैं, धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं. इस तरह के बदलाव के पीछे सबसे बड़ा कारण नयी स्थितियां और सामाजिक बदलाव हैं, जिनसे विचार भी प्रभावित हुए हैं.

अश्वमेध, गोमेध यज्ञ तो अब होते नहीं, लड़ाइयों में हथियारों का प्रयोग, जो फौजों के संहार पर आधारित था, भी इतिहास की बात हो गयी है. नये युग में आतंकवाद का जन्म अवश्य हुआ है, पर इसे क्रांति या सामाजिक बदलाव का प्रतीक नहीं माना जा सकता, क्योंकि क्रांतियों के पीछे निर्धारित उद्देश्य और भावी सामाजिक व्यवस्था भी जुड़ी होती है, जबकि आतंक केवल भय और उन्माद पैदा करने का साधन है.

अभी धर्म के नाम पर यह प्रवृत्तियां कई देशों में विद्यमान हैं, पर दुनियाभर में इसकी निंदा ही हो रही है. आतंकवाद के बारे में वैश्विक स्तर पर चर्चा और विचार हो रहे हैं कि इसे कैसे समाप्त किया जाये.

हालांकि कुछ असंगतियां आज भी विद्यमान हैं, जो आतंकवाद को प्रोत्साहित करती या बढ़ाती हैं. आतंकवाद का इस्तेमाल विचारों को थोपने के अलावा स्वार्थो की पूर्ति के लिए भी हो रहा है. समाज में जब तक स्वार्थ, असमानताएं, ईष्र्या-द्वेष की प्रवृत्तियां रहेंगी, तब तक इससे पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है.

फिलहाल पशु बलि को लेकर देश-विदेश में अब जिस प्रकार नयी चेतना जाग रही है, उससे उम्मीद बढ़ी है कि यह परंपरा घटेगी. हमारे देश के कई इलाकों में पशु बलि की परंपरा हाल के दशकों तक विद्यमान थी, जिसमें भेड़, बकरियां, सूअर, भैंसे आदि की बलि चढ़ाई जाती थी. हालांकि यह परंपरा अब धीरे-धीरे ही सही, समाप्त हो रही है. अवध क्षेत्र के देवीपाटन में भैंसे की बलि बंद हुए करीब 50 वर्ष हो चुके हैं.

बलि या हिंसा की पुरानी परंपराओं में माना यही जाता था कि इससे शक्तिमान देवी-देवता प्रसन्न होते हैं. यह बलि परंपरा किसी एक खास धर्म तक ही सीमित नहीं थी. बौद्ध और जैन काल में भी जो सत्ता के लिए संघर्ष और लड़ाइयां हुईं, उनमें हजारों लोगों की जानें भी गयीं.

यह जीत और हार का कारण भी बनीं. कलिंग का युद्ध बौद्ध विश्वासों के बाद का है, इसलिए स्वार्थ विश्वासों से परे भी शक्ति का इस्तेमाल करनेवाला प्रेरक तत्व रहा है. लेकिन, देवी-देवता और शक्तियां बलि से प्रसन्न होती हैं, इसके छिटपुट उदाहरण आज भी मिल जाते हैं, जिसमें देवताओं को प्रसन्न करने के लिए छोटे बच्चांे तक की बलि चढ़ा दी जाती है.

माना यह भी जाता है कि जो क्षेत्र पिछड़ा और अविकसित है, वह बलि परंपराओं से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाया है. पुरानी मान्यताओं के मुताबिक देवी रक्त के बिना प्रसन्न होती ही नहीं, आज हाथ में नरमुंड लिये दुर्गा का पूजन होता है, शीतला माता को बकरे पसंद हैं और कई अवसरों पर सूअर के बच्चों की बलि चढ़ाई जाती है.

गुवाहाटी के निकट कामाख्या में तो आज भी बलि का प्रचलन है, लेकिन यहां बलि छोटे पशुओं-पक्षियों की ही दी जा रही है, इनकी संख्या भी घटी है.

पशुओं के प्रति अन्याय और अत्याचार के खिलाफ कई आंदोलन भी पनप रहे हैं. मेनका गांधी भी इसी प्रकार का एक आंदोलन चला रही हैं, जो पशु के प्रति होनेवाले अत्याचारों के खिलाफ है.

दूसरी ओर, मांस खाने के लिए आज भी बड़े पैमाने पर पशु काटे जाते हैं. कई देशों में गोवध और मांस खाने की परंपरा विद्यमान है. कहा यही जाता है कि पशु बलि और मांस खाना उस समय की मजबूरी थी, जब कृषि का विकास नहीं हुआ था.

समुद्र के किनारे रहनेवालों के जीवन में समुद्री मछलियां खास महत्व रखती हैं. चूंकि दुनिया का तीन चौथाई भाग जलमग्न है, इसलिए इनके किनारे रहनेवालों की संख्या भी कम नहीं है. यह भी तर्क दिया जाता है कि शरीर की पौष्टिकता के लिए प्रोटीन एक आवश्यक तत्व है, जो मांस से सर्वाधिक मिलता है और इन पशुओं में भी सस्ते और महंगे का विचार होता है, जिससे आसानी से इन्हें प्राप्त किया जा सके.

मांसाहार की परंपरा नयी नहीं है, पर शाकाहार का आंदोलन बढ़ रहा है. हालांकि यह आंदोलन अभी व्यापक स्वीकृति के लिए प्रयासरत है, क्योंकि अधिकतर लोग अपनी जीवनधारा को पुरानी परंपराओं से मुक्त नहीं कर पाये हैं. लेकिन, देवी-देवता, मान्यता और विश्वास के नाम पर जो पशु बलि होती थी, उसमें तेजी से गिरावट आ रही है और इसका प्रभाव नेपाल जैसे पिछड़े इलाकों में भी पड़ रहा है, जो खासतौर से इसके लिए जाने जाते थे. यह नहीं कहा जा सकता कि जीवों के प्रति दया, स्नेह का भाव नया जन्मा है, यह उपयोगिता के सिद्धांत पर आधारित है.

फिर भी, क्या हम किसी ऐसी मान्यतावाले विश्व की रचना करने में सक्षम होंगे जिसमें पशुबलि पूरी तरह से समाप्त हो जायेगी? अज्ञान से पूर्णतया मुक्ति, ज्ञान, चेतना और शिक्षा के विस्तार के साथ ही होगी. हालांकि वह हिंसा से पूर्णतया मुक्त हो जायेगी, यह दावा नहीं कर सकते.

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