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किसानों की आत्महत्या पर चेते सरकार

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार दिसंबर में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने किसानों की बढ़ती आत्महत्या पर एक रिपोर्ट मोदी सरकार को दिया था. इसमें ‘अनिश्चित मानसून, कर्जे, कम ऊपज, फसल की बर्बादी और ऊपज की कम कीमत’ को दोषी बताया गया था. ‘कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ को ‘मर जवान, मर […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
दिसंबर में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने किसानों की बढ़ती आत्महत्या पर एक रिपोर्ट मोदी सरकार को दिया था. इसमें ‘अनिश्चित मानसून, कर्जे, कम ऊपज, फसल की बर्बादी और ऊपज की कम कीमत’ को दोषी बताया गया था.
‘कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ को ‘मर जवान, मर किसान’ के नारे में बदल दिया है. गुजरात में किसान अपने जीवन को समाप्त करने के बारे में नहीं सोचते हैं.’ नरेंद्र मोदी ने यह बात 30 मार्च, 2014 को कही थी, जब यूपीए के ‘भ्रष्ट’, ‘अक्षम’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ शासनकाल में किसान आत्महत्या कर रहे थे.
‘यह समस्या बहुत पुरानी, गंभीर और व्यापक है. हमारे किसानों को हम न मरने दें. (पिछली) सरकारें जो कर सकती हैं, उन्होंने किया है. हमें सामूहिक रूप से आत्मचिंतन करना है और इसका समाधान निकालना है.’ नरेंद्र मोदी ने यह बात 23 अप्रैल, 2015 को कही, जब ‘स्वच्छ’, ‘सक्षम’ और ‘राष्ट्रभक्त’ एनडीए के शासनकाल में किसान आत्महत्या कर रहे थे.
किसानों की आत्महत्याएं भारत में खबरों में हैं. ऐसा सामान्यत: नहीं होता है, क्योंकि दर्शकों को खेती से संबंधित खबरें उबाऊ लगती हैं तथा अंगरेजी टेलीविजन चैनलों में ऐसे मामले कभी-कभार ही जगह पाते हैं. इस स्थिति में बदलाव तब हुआ, जब एक किसान ने कृतज्ञ राष्ट्रीय मीडिया के सामने अपने गले में फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली, जिसने इस त्रसदी को पूरी तरह से रिकॉर्ड किया और तब से लगातार उसका प्रसारण किया जा रहा है. यह घटना दिल्ली में उस आम आदमी पार्टी द्वारा बुलायी गयी सभा में घटी, जो दिन-ब-दिन अजीबो-गरीब हरकतें करती जा रही है.
शुरू में कोई समझ नहीं सका कि इस व्यक्ति की मृत्यु के लिए किसे जिम्मेवार ठहराया जाये. आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने एक-दूसरे को दोष दिया, तो कांग्रेस ने दोनों को दोषी ठहराया. लेकिन इस घटना के दूरगामी परिणाम स्पष्ट हैं : यह एक ऐसा मसला है जिसे भाजपा नजरअंदाज नहीं कर सकती है और पार्टी को इसे संभालना होगा. प्रधानमंत्री का बयान इसी दिशा में किया गया एक प्रयास है.
जब लोकसभा में यह मामला उठा, तो गृह मंत्री ने बहस में भाग लेते हुए कहा कि किसानों की मृत्यु का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए. पर, इसका राजनीतिकरण किया किसने? लोकसभा चुनाव में किसानों की खुदकुशी को मुद्दा बनानेवाले नरेंद्र मोदी और भाजपा को अब इस बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए. उन्हें अब इसका सामना करना होगा. और, वैसे भी यह मामला लोकतांत्रिक राजनीति का नहीं है, तो फिर क्या है?
वर्ष 2013 में ‘द हिंदू’ ने खबर दी थी कि ‘भारतीय किसानों में आत्महत्या की दर आबादी के अन्य हिस्सों की तुलना में भयावह रूप से 47 फीसदी अधिक है’ और 2011 में देश भर में किसानों की आत्महत्या की दर प्रति एक लाख किसानों पर 16.3 की थी.
यह बाकी आबादी में आत्महत्या की दर 11.1 से पांच अधिक थी. अखबार ने लिखा था कि आंकड़ों के मुताबिक ‘1995 के बाद से कम-से-कम 2,70,940 किसानों ने आत्महत्या की है. वर्ष 1995 से 2000 के बीच छह वर्षों में 14,462 की वार्षिक औसत से किसानों ने खुदकुशी की. वर्ष 2001 से 2011 के बीच 11 वर्षो का वार्षिक औसत 16,743 मौतों का रहा था. इस हिसाब से हर रोज 46 किसान आत्महत्या कर रहे हैं, यानी 2001 के बाद से तकरीबन हर आधे घंटे में एक किसान ने खुदकुशी की है.’
लेकिन यह पूरा संभव है कि ये आंकड़े त्रसदी की पूरी तसवीर न दिखा पा रहे हों. उसी वर्ष बीबीसी की एक खबर के अनुसार, ‘भारत में आत्महत्याओं पर ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, द लांसेट, में प्रकाशित एक गहन शोध (जुलाई, 2012) ने उक्त आंकड़ों को कम पाया और संकेत दिया कि 2010 में खुदकुशी करनेवाले किसानों की संख्या 19 हजार थी.
इस आधार पर मोदी द्वारा इस समस्या को पुरानी, गंभीर और व्यापक कहना बिल्कुल सही है और उन्हें भी दूसरों पर किसानों की जान-बूझ कर हत्या करने का आरोप लगाने से पहले यह सोचना चाहिए.
कुछ हद तक यह समस्या वैश्विक है. पिछले साल न्यूजवीक पत्रिका की रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘अमेरिका में किसानों की आत्महत्या की दर आम जनसंख्या की तुलना में दो गुनी से कुछ ही कम है. ब्रिटेन में हर सप्ताह एक किसान आत्महत्या करता है. चीन में सरकार द्वारा शहरीकरण के लिए उच्च कोटि की कृषि भूमि अधिग्रहित करने के विरोध में किसान रोज आत्महत्या कर रहे हैं. फ्रांस में हर दो दिन में एक किसान खुदकुशी कर लेता है. ऑस्ट्रेलिया में हर चार दिन में एक किसान के आत्महत्या की खबर आती है. भारत में हर साल 17,627 से अधिक किसान खुदकुशी कर लेते हैं.’
इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए हफिंग्टन पोस्ट की तेरेजिया फर्कास ने इस स्थिति का विश्लेषण किया है : ‘खेती उच्च तनाव भरा पेशा है. आप अपने पेशे में पूरे सप्ताह 24 घंटे संलग्न रहते हैं. किसान अपना बॉस भी होता है और कर्मचारी भी. इलाज और अवकाश के लाभ एक ही व्यक्ति पर निर्भर करते हैं. कनाडा के किसानों को बेरोजगारी बीमा में निवेश करना होता है, पर जब वे बेरोजगार हो जाते हैं, तो वे सामान्यत: बीमा के लाभ उठाने के योग्य नहीं माने जाते.
वित्तीय दबाव, पशुओं की बीमारी, खराब फसल, जलवायु परिवर्तन, सरकारी नीतियां और नियम किसानों को तबाह कर सकते हैं. उच्च तनाव और निराशा से अवसाद हो सकता है. जब मदद की कोई राह नहीं दिखती, तो उपाय के रूप में आत्महत्या के विचार पैदा होने लगते हैं. अवसाद से जुड़े लांछन और शिक्षा की कमी किसानों की आत्महत्या के बड़े कारण हैं. अवसाद को छुपाना या इसे नजरअंदाज करना इसका सामना करने के तरीके नहीं हैं.’
दिसंबर में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने किसानों की बढ़ती आत्महत्या पर एक रिपोर्ट मोदी सरकार को दिया था. इसमें ‘अनिश्चित मॉनसून, कर्जे, कम ऊपज, फसल की बर्बादी और ऊपज की कम कीमत’ को दोषी बताया गया था. रिपोर्ट में किसानों की तकलीफ को ‘घटते जल-स्तर, कराधान, गैर कृषि ¬ण, आयात-निर्यात की दोषपूर्ण कीमतों’ से भी जोड़ा गया था. ब्यूरो ने यह भी कहा था कि ‘किसानों की आत्महत्या के लिए प्राकृतिक और मानव-निर्मित कारक मुख्य कारण हैं.
प्राकृतिक कारकों में अनिश्चित बारिश, आंधी, सूखा और बाढ़ हैं, वहीं मूल्य-निर्धारण और विपणन की सुविधाओं की कमी जैसे मानव-निर्मित कारक ऊपज के बाद नुकसान के कारण बनते हैं. तो, सरकार की अपनी रिपोर्ट के अनुसार सरकार ही दोषी है, और इसके परिणामों से वह बच नहीं सकती. यह बात मोदी को भी जल्दी समझ में आ जायेगी.

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