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भूमि अधिग्रहण से जुड़े पांच पेच

विजय विद्रोही कार्यकारी संपादक एबीपी न्यूज हर किसी के मन में सवाल है कि मोदी सरकार ने 2013 में बने भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्वास कानून में ऐसे क्या बदवाल किये हैं कि किसानों में गुस्सा फूटने लगा है, भारतीय किसान संघ तक तो ताव आ रहा है, संघ ने किसानों के हित सुनने की […]

विजय विद्रोही
कार्यकारी संपादक
एबीपी न्यूज
हर किसी के मन में सवाल है कि मोदी सरकार ने 2013 में बने भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्वास कानून में ऐसे क्या बदवाल किये हैं कि किसानों में गुस्सा फूटने लगा है, भारतीय किसान संघ तक तो ताव आ रहा है, संघ ने किसानों के हित सुनने की सलाह सरकार को दी है, अन्ना हजारे को फिर से ताल ठोंकनी पड़ रही है और कांग्रेस को सक्रिय होने गुंजायश दिख रही है? तो जानिये पांच बड़े बदलावों और उनके प्रभाव के बारे मेंभूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का अध्यादेश मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहा है.
यहां तक कि संघ परिवार से जुड़े भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं. किसान संघ के प्रभाकर केलकर पूछ चुके हैं कि मोदी सरकार निजी क्षेत्र के महंगे स्कूल-अस्पताल के लिए जमीन दिलवा कर क्या उनके दलाल का काम करेगी?
अन्ना हजारे भी मैदान में कूद गये हैं. कांग्रेस ने भी सक्रिय विरोध का फैसला किया है. उधर मोदी सरकार कह रही है कि कांग्रेस के समय जो कानून बना था वह इतना जटिल और अव्यवहारिक था कि उसके अमल में आने के बाद एक भी इंच जमीन नहीं ली गयी है.
कई राज्य सरकारों ने भी कानून में बदलाव की सिफारिशें की थी. अब यह राज्य सरकारों पर है कि वे अध्यादेश की शर्तो को किस हद तक मानती हैं. ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर मोदी सरकार ने 2013 में बने भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्वास कानून में ऐसे क्या बदवाल किये हैं कि किसानों में गुस्सा फूटने लगा है, भारतीय किसान संघ तक तो ताव आ रहा है, संघ ने किसानों के हित सुनने की सलाह सरकार को दी है, अन्ना हजारे को फिर से ताल ठोंकनी पड़ रही है और कांग्रेस को सक्रिय होने गुंजायश दिख रही है?
भारत में भूमि अधिग्रहण का कानून 1894 यानी अंगरेजों के जमाने से था. उसमें कुछ छोटे-मोटे संशोधन पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के वक्त जरूर हुए थे, पर मूल रूप से कानून सरकार के पक्ष में था, सरकार किसी की भी जमीन राष्ट्रहित के नाम पर छीन सकती थी. किसानों को मुआवजा जमीन की सरकारी दर पर ही मिलता था, जबकि जमीन की बाजार दर कई गुना ज्यादा होती थी. 2013 में बने नये कानून के लिए संसद के दोनों सदनों में सौ घंटों से ज्यादा की बहस हुई, कई कमेटियों के हाथों से यह बिल गुजरा और बीजेपी समेत सभी विपक्षी दलों के साथ गहन चर्चा के बाद यह दोनों सदनों में भारी बहुमत से पारित हुआ था.
अब बात की जाये मोदी सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिये किये गये बदलावों की, जिन्हें उद्योगपतियों के हक में बताया जा रहा है. बदलाव नंबर एक, यूपीए सरकार के कानून में था कि यदि कोई उद्योगपति निजी काम के लिए जमीन खरीदना चाहता है तो उसे 80 फीसदी किसानों की मंजूरी लेनी होगी. इसमें किसानों के साथ-साथ खेती के काम से जुड़े वैसे लोग भी शामिल थे, जिनकी आजीविका उस जमीन पर निर्भर है.
कानून में था कि अगर सरकार निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी यानी पीपीपी की परियोजना के लिए जमीन खरीदती है, तो 70 फीसदी किसानों और निर्भर लोगों की मंजूरी जरूरी होगी. नये अध्यादेश में मंजूरी की जरूरत को पूरी तरह से हटा लिया गया है.
नागरिक संगठनों का कहना है कि इससे उद्योगपति, बिल्डर और सरकार मनमाने तरीके से जमीन ले लेगी. यहां सवाल मुआवजे का न होकर किसान की रंजामंदी का है. सरकार का कहना है कि 70-80 फीसदी लोगों की सहमति के कारण अधिग्रहण लगभग असंभव हो गया. देश में 18 लाख करोड़ रुपये की परियाजनाएं अटकी पड़ी हैं, जिनमें से 60 फीसदी पीपीपी मोड के तहत आती हैं. मंजूरी की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि एक बस स्टॉप के लिए पीपीपी के तहत जमीन लेने में औसतन 59 महीने यानी पांच साल लग जाते हैं.
बदलाव दो, यूपीए सरकार के कानून में था कि अधिग्रहीत जमीन पर लगनेवाली परियोजना का स्थानीय जनता पर क्या आर्थिक-सामाजिक असर होगा, इसका आकलन छह महीनों के भीतर जरूरी होगा. चूंकि यह बिल सिर्फ मुआवजे की नहीं, पुनर्वास की बात भी करता है, लिहाजा ऐसा आकलन करने से वे खेतिहर मजदूर भी इसे दायरे में आते, जिनके पुनर्वास की व्यवस्था सरकार को करनी पड़ती.
अध्यादेश में सामाजिक असर के आकलन को हटा दिया गया है. यानी जमीन का अधिग्रहण होने की सूरत में खेतिहर मजदूरों या उस जमीन के सहारे परोक्ष रूप से अपनी आजीविका अर्जन करनेवालों को हाशिये पर डाल दिया गया है. साफ है कि पुनर्वास पर खर्च होनेवाला पैसा उद्योगपति का बचेगा, पर खेतिहर मजदूर विस्थापित होंगे, उनका रोजगार छिनेगा. यानी सरकार ने पुनर्वास को खत्म कर कानून को सिर्फ मुआवजे तक सीमित कर दिया है.
बदलाव नंबर तीन, यूपीए के कानून में कहा गया था कि अधिग्रहीत की गयी जमीन का इस्तेमाल पांच साल में नहीं हुआ तो जमीन किसानों को वापस कर दी जायेगी. साथ ही जमीन उसी काम के लिए इस्तेमाल की जानी जरूरी थी, जिसके लिए अधिग्रहीत की गयी हो. देखा गया है कि सरकार जमीन अधिग्रहीत कर लेती है, फिर वह सालों तक बेकार पड़ी रहती है. कई बार उसका लैंड यूज बदल दिया जाता है. हमने कई मामलों में देखा है कि स्पेशल इकोनॉमिक जोन (सेज) के लिए सस्ते दामों पर सरकार से जमीन ली गयी और उसे दूसरे उद्योगपतियों को महंगे दामों पर बेच दिया गया.
मोदी सरकार ने पांच साल की समय सीमा को भी हटा दिया है. सरकार का कहना है कि अधिग्रहीत जमीन पर पांच सालों में परियोजना का पूरा हो जाना लगभग असंभव है. परियोजना के लिए दूसरे मंत्रलयों से भी एनओसी लेने पड़ते हैं, जिसमें समय लगता है. इन तर्को में दम है, लेकिन सरकार अगर इस बात का भी उल्लेख अध्यादेश में कर देती कि जमीन का दुरुपयोग नहीं होने दिया जायेगा, तो शायद वह आशंकाओं को खारिज करने में कामयाब हो सकती थी.
बदलाव नंबर चार. यूपीए का कानून कहता था कि जमीन अधिग्रहीत करने की पहली शर्त यही होगी कि बंजर जमीन ही ली जाये. अगर ऐसी जमीन एक साथ नहीं मिलती है, तो ऐसी खेतिहर जमीन ली जाये जहां सिंचाई की सीधी व्यवस्था नहीं हो, यानी पानी दूर से लाना पड़ता हो. अगर ऐसी जमीन भी नहीं मिली, तो ऐसी जमीन का ही अधिग्रहण किया जाये जिसमें साल में एक ही फसल पैदा होती है. साफ था कि बहुफसली जमीन का अधिग्रहण बेहद जरूरी होने पर ही करने की बात की गयी थी.
तब इसका भी विरोध कुछ दलों ने किया था. उनका कहना था कि केंद्र के बहुत से उपक्रमों, राज्य सरकार और रेलवे के पास लाखों एकड़ जमीन बेकार पड़ी है. पहले यह जमीन परियोजनाओं के लिए दी जानी चाहिए. उसके बाद ही किसानों की जमीन पर सरकार को नजर डालनी चाहिए. बहुफसली जमीन को तो छुआ तक नहीं जाना चाहिए. लेकिन, अध्यादेश तो बहुफसली जमीन के अधिग्रहण की भी इजाजत देता है. कहा गया है कि राष्ट्रीय हित को देखते हुए ऐसी जमीन का अधिग्रहण भी किया जा सकता है. राष्ट्रीय हित कैसे तय होगा, यह साफ नहीं है.
बदलाव पांच. यूपीए के कानून में था कि भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई के समय अगर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी गड़बड़ी करते हैं, तो उन पर धोखाधड़ी या अन्य संबंधित धाराओं के तरह मुकदमा चलाया जा सकता है. यह प्रावधान इसलिए, क्योंकि जमीन के गोरखधंधे में करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं. अध्यादेश में मुकदमा चलाने से पहले सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य किया गया है. अनुमति कितने समय में मिलेगी या नहीं मिलेगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है. ऐसे में भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के लिए यह अध्यादेश एक तरह से राहत लेकर आया है.
अब प्रधानमंत्री पर दोहरा दबाव है. एक तरफ संघ परिवार भी कुछ प्रावधानों से सहमत नहीं है. दूसरी तरफ यदि वे कुछ संशोधन स्वीकार कर लेते हैं, तो उद्योग जगत इसे पूंजी निवेश का विरोधी बता सकता है. ऐसे में मोदी को दोनों के बीच का रास्ता निकालना है. ऐसा रास्ता तभी निकल पायेगा, जब संबंधित पक्षों से खुले दिल से संवाद होगा.

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