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क्या सोचने पर पहरा है?

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू मनुष्य के जातीय गुणों पर चिंतन करनेवाले विद्वानों का मानना है कि सोचने की क्षमता मनुष्य को अन्य जीवों से अलग करता है. सोचने की क्षमता के कारण मनुष्य ज्ञान-विज्ञान का विकास कर पाता है. जब हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध आधिकार है, तो इसका मतलब होता […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
मनुष्य के जातीय गुणों पर चिंतन करनेवाले विद्वानों का मानना है कि सोचने की क्षमता मनुष्य को अन्य जीवों से अलग करता है. सोचने की क्षमता के कारण मनुष्य ज्ञान-विज्ञान का विकास कर पाता है. जब हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध आधिकार है, तो इसका मतलब होता है कि सोचने की स्वतंत्रता हमारा मानवाधिकार है. ऐसे में यदि कोई सरकार या समाज मनुष्य के सोचने पर पहरा लगाना चाहे, तो इसका क्या परिणाम होता है?
जब भी आम लोग व्यवस्था से नाराज होते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर उनमें व्यवस्था परिवर्तन का चिंतन शुरू होता है. जिन लोगों को व्यवस्था से लाभ होता है, उन्हें सोचनेवालों से डर लगता है और सत्ता की शक्ति के माध्यम से इस प्रक्रिया पर रोक लगने का प्रयास शुरू होता है. आश्चर्य यह है कि शक्तिशाली लोग, समाज या सरकार इतनी सी बात को समझने में असफल रहते हैं कि सोचने पर पहरा संभव नहीं है.
क्या भारत में भी सोचने पर पहरा लगाने का प्रयास किया जा रहा है?
शायर अखलाक आहन का मानना है कि पिछले कुछ समय से सोचना एक खतरनाक काम हो गया है. जिस तरह से विश्वविद्यालयों को संकट में डाला जा रहा है, पत्रकारों को मारा जा रहा है, तार्किक ढंग से सोचनेवालों को धमकाया जा रहा है, इससे तो यही लगता है कि समाज के प्रभाशाली वर्गों में डर समा गया है. इस संदर्भ में कुछ घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है.
हाल में दिल्ली की एक गैर-सरकारी संस्था ने हिंदी की एक समाजशास्त्रीय शोध पत्रिका निकालने का फैसला लिया. सबने उसका स्वागत किया. हिंदी प्रेमी विद्वानों ने बिना किसी लोभ के उसमें सहयोग देने का वादा किया, लेकिन पत्रिका नहीं निकल पायी. बल्कि संपादक और सहायक संपादक दोनों ने ही इस्तीफा दे दिया. इस असफल प्रयास का कारण बड़ा अजीब है. संस्था के पदाधिकारियों को यह लगने लगा था कि शायद संपादकों का बौद्धिक रुझान कुछ सरकार विरोधी है और इससे उन्हें सरकारी सहायता मिलने में मुश्किल हो सकती है.
इसी तरह अंग्रेजी में निकलनेवाले प्रसिद्ध पत्रिका ‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के संपादक को भी हटा दिया गया. कारण यह था कि संपादक ने दो ऐसे लेख लिखे थे, जिसमें किसी बड़े पूंजीपति के घोटाले का खुलासा था. उस पूंजीपति ने पत्रिका पर मानहानि का दावा ठोकने की धमकी दे दी और ट्रस्ट के सदस्यों ने संपादक को हटा दिया.
हालांकि ट्रस्ट के सदस्यों ने बाद में यह तर्क दिया कि उनके खिलाफ कुछ और भी शिकायतें थीं. लेकिन उनका यह तर्क इतना विश्वसनीय नहीं लगता है. ज्ञातव्य है कि इस ट्रस्ट के सदस्य मामूली लोग नहीं हैं, बल्कि भारत के जानेमाने विद्वान हैं. तो क्या इनके अंदर भी सत्ता का डर समा गया है? या फिर मुकदमे से डर लगता है? मानहानि का मुकदमा भी प्रभावशाली वर्गों द्वारा डराने का एक अच्छा अस्त्र बन गया है.
अब ऐसी घटनाएं तो रोज ही हो रही हैं. आये दिन बड़ी हस्तीवाले पत्रकार चैनल छोड़ रहे हैं और आरोप यही लगाया जा रहा कि सरकार की आलोचना मालिक को पसंद नहीं है. काॅर्टून बनाने पर, सोशल मीडिया में नकल उतारने पर और न जाने किस-किस बात पर सत्ता नाराज हो रही है. लोगों को सोचने और बोलने की सजा मिल रही है. यह तो कहानी है महानगरी के रसूखदार, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों की. देश के अन्य हिस्से की तो चर्चा भी बेमानी है.
मसलन, मध्य प्रदेश में महाविद्यालयों के आचार्य को तो कोई बौद्धिक स्वतंत्रता है ही नहीं. वहां उन्हें सरकारी नौकर माना जाता है और नौकरशाही के अधीन रखा गया है. लिखने-बोलने की स्वतंत्रता उन्हें बिलकुल नहीं है. छोटे शहरों में पत्रकारों की हालत भी कुछ ऐसी ही है. स्थानीय नेताओं की अनुकंपा पर उनकी रोजी रोटी चलती है.
देश में यदि सोचने पर पहरा हो, तो देश के विकास रुक जायेगा. न तो नवीन ज्ञान सृजन की संभावना होगी और न ही सरकार अपनी आलोचना से सीख कर नीतिगत परिवर्तन कर पायेगी.
सोचनेवाले लोगों को यदि डर लगने लगेगा, तो हम न तो भूत को समझ पायेंगे, ना ही भविष्य को संवार पायेंगे और वर्तमान तो समस्या ही पैदा करेगा.
क्या सोचने पर इस तरह का पहरा किसी संकट का परिणाम है या फिर संकट की सूचना है? शायद यह दोनों ही है. गांवों में एक कहावत है कि अभाव से स्वभाव खराब होता है. बिलकुल सही है.
जब देश में आर्थिक संकट हो, तो सरकारों के लिए लोकप्रियता की समस्या हो जाती है और कई बार सरकारें उससे उबरने के लिए नीतिगत सुधारों के बदले सोचने पर पहरा लगाने लगती हैं. जब कोई सरकार सोचने पर पहरा लगाने लगे, तो यह समझना चाहिए कि उसमें जनता से संवाद की क्षमता खत्म हो गयी है. किसी जनतंत्र के लिए यह खतरनाक हो सकता है. भारतीय राजनीति ने आपातकाल भी देखा है. उससे सबक यही लेने की जरूरत है कि सोचने के मानवाधिकार को रोकने का प्रयास करना न ही जनता के हित में है और न ही जनता उसे बर्दाश्त करनेवाली है.
भारतीय परंपरा में ‘सत्यमेव जयते’ कोई जुमला नहीं है, बल्कि एक सैद्धांतिक वक्तव्य है. सत्य की खोज, सत्य के बारे में बात करना और सत्य के मार्ग पर चलना मानवीय समाज के लिए कल्याणकारी है, ऐसा माना जाता है. इसलिए सत्संग एक तरह से सफलता का मार्ग है, लोगों के लिए भी और सरकारों के लिए भी. सोचने पर पहरा है?

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