36.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

आतंकवाद पर वैश्विक पहल जरूरी

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार अमेरिका के न्यूयार्क में हुए ताजा आतंकी हमले ने राष्ट्रपति ट्रंप के बड़बोले गुब्बारे की हवा एक झटके में निकाल दी है. यह घड़ी इस बदमिजाज नेता की लापरवाही अौर मंदमतिजनित अज्ञान के कारण बढ़े इस तरह के खून-खराबे जोखिम का ठीकरा उनके सर फोड़ने की नहीं, शोक संताप की है. […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
अमेरिका के न्यूयार्क में हुए ताजा आतंकी हमले ने राष्ट्रपति ट्रंप के बड़बोले गुब्बारे की हवा एक झटके में निकाल दी है. यह घड़ी इस बदमिजाज नेता की लापरवाही अौर मंदमतिजनित अज्ञान के कारण बढ़े इस तरह के खून-खराबे जोखिम का ठीकरा उनके सर फोड़ने की नहीं, शोक संताप की है.
तब भी यह कहना जरूरी है कि जो ताकतवर देश अौर बड़ी ताकतें अब तक दक्षिण एशिया को ही अतिसंवेदशील विस्फोटक संकट स्थल समझते हुए हमारी जाहिली-काहिली की भर्त्सना करते रहे हैं, वे भी अब अपने दामन में झांकने को मजबूर होंगे.
इस हमले में मारे जानेवालों की संख्या भले ही सिर्फ आठ है, अमेरिका अब यह दावा करने में असमर्थ होगा कि 9/11 के बाद से सिर्फ सिरफिरे बंदूकधारी ही खून-खराबे के अभियुक्त रहे हैं.
‘कट्टरपंथी अकेले भेड़यों’ ने इस तरह के हमले फ्रांस तथा जर्मनी में किये हैं अौर छूरेबाजी से लहूलुहान होनेवाले या गोलियों से मारे जानेवाले कनाडाई नागरिक भी निशाना बने हैं. यह भरम देर तक बनाये नहीं रखा जा सकता कि ये अपवाद हैं, इसके बावजूद कोई पश्चिमी संपन्न देश अपना आपा नहीं खोयेगा. कनाडा के पीएम त्रूदो तो इसके बावजूद इस्लामी अौर गैर-ईसाई शरणार्थियों को शरण देने को तैयार रहेंगे, जिनके राजनीतिक विचार उग्रपंथी तथा आक्रामक हैं.
अपने देश में राजनीतिक उत्पीड़न का शिकार बता वह शरणार्थी बनते रहे हैं. यह कुतर्क भी निरर्थक है कि ऐसे हमलों से कोई भी शत-प्रतिशत निरापद नहीं. किसी सरकार को दोष देना बेमानी है. अब तो यह कबूल करना ही पड़ेगा कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौती का मुकाबला करना किसी एक देश की जिम्मेदारी नहीं है. यह एक सार्वभौमिक मुद्दा है, जिसका समाधान सामुदायिक सहकारी प्रयास से ही हो सकता है, क्योंकि इस बीमारी से सभी की जान को खतरा है.
इस खून-खराबे को अंजाम देनेवाला एक उज्बेकी मूल का अमेरिका ग्रीन कार्डधारी था. जिस गाड़ी को वह चला रहा था, उससे पांच अर्जेंटिनियाई अौर एक बेल्जियम के नागरिक को कुचलने के बाद खबरों के अनुसार, वह अल्लाहू अकबर के नारे लगाता नकली बंदूकें ले सड़क पर दौड़ने लगा.
पुलिस द्वारा मारे जाने के पहले उसने दहशत का माहौल पैदा कर दिया. यह कहना आसान है कि भले ही उसने मजहबी नारे लगाये, यह जरूरी नहीं कि वह ‘अल-कायदा’ या ‘आइएस’ जैसे किसी संगठन का सदस्य था- वह मानसिक रूप से रोगग्रस्त व्यक्ति भी हो सकता है. ट्रंप ने यह ट्वीट करते देर नहीं लगायी कि ऐसे हमलों से उनका मनोबल कमजोर नहीं होनेवाला है. ऐसे खतरनाक मेहमानों को अमेरिका में न घुसने देने के लिए उनका प्रशासन कमर कसे रहेगा अौर वीसा प्रक्रिया को अौर भी कठोर बनायी जायेगी.
इस पूरे प्रसंग का विश्लेषण बिल्कुल दूसरी तरह से भी कर सकते हैं. अमेरिका के बदनाम खुफिया संगठन ऐसी घटनाअों की साजिश रचने में माहिर हैं, जो प्रशासन की छवि को धूमिल होने से बचाने के लिए काम आ सकती हैं. या ऐसे अय्यारों की अपनी नजर में अमेरिका के दुश्मनों का सफाया करने में अचूक हथियार बन सकती हैं.
इस समय ट्रंप की गरदन शिकंजे में फंसी है- चुनाव अभियान के दौरान रूसी सहायता जुटानेवाला पर्दाफाश उनको अभी तक कटघरे में कैद किये है. रिपब्लिकन पार्टी में अनेक वरिष्ठ नेता उनका विरोध करने लगे हैं. क्या यह मात्र संयोग है कि मृतकों में एक भी अमेरिकी नागरिक नहीं है?
एक दूसरा पक्ष है दक्षिण एशिया में हिंसक अलगाववादी वैमनस्य तथा आतंकवाद के बारे में दोहरे मानदंडों का. यह बात कई बार प्रमाणित हो चुकी है कि भारत जिस सांप्रदायिक हिंसा अौर वैमनस्य से ग्रस्त है, वह पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित नफरत के निर्यात से ही पोषित-पल्लवित है.
मुंबई में बम धमाके हों या भारतीय संसद पर हमला, अजमल कसाब की टोली का खून-खराबा हो या पठानकोट की छावनी को निशाना बनाना. हर बार भारत को संयम रखने, संवाद से संकट समाधान की सलाह देनेवाला अमेरिका यह राजनयिक आश्वासन तो देता है कि वह पाकिस्तान पर अंकुश लगायेगा, पर फिर उसे खुद आतंकवाद का शिकार मान उसके साथ नरमी से पेश आता है.
‘यह एक आखिरी मौका पाकिस्तान को दिया जा रहा है’, यह सुनते भारत के कान पक चुके हैं. अमेरिकी रजामंदी के अभाव में पाकिस्तान का दुस्साहस जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी हिंसा भड़काने का नहीं हो सकता. कभी मानवाधिकारों के हनन के आरोप में भारतीय सेना तथा सहसैनिक बलों के जवानों तथा अफसरों को अभियुक्त बनाने का अभियान अमेरिकी मीडिया चलाता है, तो कभी यही काम गैरसरकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन करते हैं. अपने ऊपर किसी आतंकी हमले के बाद मुंहतोड़ जवाबी हमले के जिस अधिकार को अमेरिका अपना मानता है, वही भारत जैसे संप्रभु देश का भी है.
इधर कई महीनों से म्यांमार की नेता आंग सान सू की रोहिंग्या उत्पीड़न के कारण अभियुक्त के रूप में पेश की जाती रही हैं. इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकताी कि यहां भी नस्लवाद अौर सांप्रदायिकता का सन्निपात है. कुर्दों की तरह या पाकिस्तान द्वारा भेजे हथियारबंद अलगाववादियों की तरह इन्होंने अभी स्वाधीनता की मांग नहीं की है, यह समस्या भी अचानक आत्मघाती आतंकवादी संक्रमण से सिरदर्द बन सकती है.
बात बिल्कुल साफ है- अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का सामना-सफाया करने के लिए वैश्विक पहल जरूरी है.इस काम को टाला नहीं जा सकता. जो हमलावर मारा गया, वह ऐसे अन्य हमलावरों की तरह पुलिस के शक के दायरे में था. फिर भी उसे रोका क्यों नहीं जा सका? क्या विभिन्न महकमों में खुफिया जानकारी की साझेदारी में तालमेल का अभाव था? अमेरिका हो, रूस या फ्रांस अथवा जर्मनी हो, कोई भी अपने मित्र देशों तक से ऐसी संवेदनशील जानकारी का साझा नहीं करता, बिना कुछ कीमत वसूल किये! इसके अलावा अमेरिका तथा अन्य सभी बड़ी ताकतों को संकीर्ण राष्ट्रहित से ऊपर उठकर एकजुट होने की जरूरत है.
अन्यथा ‘दुश्मन’ को पछाड़ने के लिए रक्तबीज राक्षस को जन्म देनेवाले खुद अपने बनाये भस्मासुरों से भागते घायल होते रहेंगे. रही बात ‘अकेले भेड़ियों’ की, सो मत भूलिए कि भेड़िया भी किसी खूंखार प्रजाति का जानवर है, जो निरीह बच्चे या छोटे जानवर को ही दबोचता है. वह स्वयंभू नहीं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें