नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात
रामबहादुर राय वरिष्ठ पत्रकार बीते सोमवार को राजस्थान विधानसभा में राज्य सरकार ने एक बिल पेश किया था, जिसमें प्रावधान था कि नेताओं, लोकसेवकों तथा जजों के खिलाफ मामला दर्ज करने से पहले सरकार से इजाजत लेनी होगी. गौरतलब है कि इस बिल को विधानसभा में पेश करने से पहले राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने […]
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
बीते सोमवार को राजस्थान विधानसभा में राज्य सरकार ने एक बिल पेश किया था, जिसमें प्रावधान था कि नेताओं, लोकसेवकों तथा जजों के खिलाफ मामला दर्ज करने से पहले सरकार से इजाजत लेनी होगी.
गौरतलब है कि इस बिल को विधानसभा में पेश करने से पहले राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने सितंबर महीने की 7 तारीख को एक अध्यादेश भी जारी किया था. हालांकि, इस अध्यादेश को राजस्थान हाइकोर्ट में एक वकील ने चुनौती दी है. अब यह तो कोर्ट ही निर्धारित करेगा कि ऐसे अध्यादेश की वैधता क्या है. लेकिन, एक नागरिक के नाते मैं कह सकता हूं कि इस अध्यादेश को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए.
यह बिल लाने का वसुंधरा राजे का यह फैसला लोगों में अपने अधिकार को लेकर बढ़ी जागरूकता के खिलाफ है. यह बिल लोगों को उस दौर में ले जानेवाला लगता है, जिस दौर में लोगों के पास जानने का अधिकार नहीं था.
इसके पहले भी कुछ मुख्यमंत्रियों ने अलग-अलग तरीके से नागरिक स्वतंत्रता को छीनने की कोशिश की है. नागरिक स्वतंत्रता को छीननेवाले इस फैसले के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के बयान से मैं सहमत हूं, जिसमें कहा गया है कि यह अध्यादेश मीडिया को परेशान करनेवाला एक खतरनाक यंत्र है. गिल्ड ने इस अध्यादेश को वापस लेने की मांग की है और मैं भी कहता हूं कि सरकार को इसे वापस लेना चाहिए.
किसी अनियमितता को लेकर सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के आधार पर अगर किसी नेता, किसी अधिकारी या किसी जज के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराने के लिए अगर सरकार की अनुमति लेनी होगी, तो मैं समझता हूं कि यह प्रेस और नागरिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है. राजस्थान वह राज्य है, जहां सूचना के अधिकार को लेकर 1992 में आंदोलन चला, जिसे अरुणा राय, प्रभाष जोशी आदि ने नेतृत्व दिया था. राजस्थान के लोग भी इस आंदोलन में शामिल रहे.
एक साल बाद ही उस समय के मुख्यमंत्री भैरव सिंह शेखावत ने इस बात का महत्व समझा और सूचना के अधिकार के जयपुर सम्मेलन में आकर शेखावत ने आंदोलन से सहमति जतायी और यह भी कहा कि उनकी सरकार सूचना का अधिकार देने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी. एक वह भैरव सिंह शेखावत की सरकार थी, जिसने सूचना के अधिकार के आंदोलन को समर्थन दिया और अब यह वसुंधरा राजे की सरकार है, जो लोगों के अधिकारों को छीन रही है.
हालांकि, राजस्थान को एक शांत प्रदेश कहा जाता है, लेकिन राज्य सरकार के इस कदम के खिलाफ वहां भी और पूरे देश में भी आवाज उठेगी और वसुंधरा सरकार को यह अध्यादेश वापस लेना पड़ेगा. क्योंकि, प्रचंड बहुमत का यह मतलब नहीं होता है कि कोई सरकार तानाशाही रुख अख्तियार करके अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन करेगी.
यह बिल सबसे ज्यादा और सबसे पहले मीडिया के लिए ही घातक होगा, क्योंकि एक नागरिक जितनी सूचनाएं मांगता है, उसे रोज मीडिया ही उपलब्ध कराता है.
हमारे यहां कोई अलग से नागरिक अधिकार या मीडिया अधिकार नहीं है, जिस तरह से अमेरिका में है. भारत में जो नागरिक अधिकार है, उसी में मीडिया का भी अधिकार शामिल है. जब कोई सरकार नागरिक अधिकार में कटौती करेगी, उसका सबसे बड़ा नुकसान यही होगा कि इस हालत में मीडिया अपना काम नहीं कर पायेगा. यह कुछ उस तरह की हालत होगी, जब देश में आपातकाल लगा था.
तब अखबार वाले सरकार के पास जाते थे और उससे अनुमति मिलने पर खबरें छापते थे. ठीक उसी तरह से वसुंधरा सरकार का यह फैसला है, जिसमें कि हर बात के लिए मीडिया को सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी और इसके लिए सरकार को एक व्यवस्था बनानी पड़ेगी. मेरा ख्याल यह है कि राजधानी से लेकर जिले तक, जब तक यह व्यवस्था बनेगी, तब तक वसुंधरा की सरकार चली जायेगी.
ऐसे में वसुंधरा जी को ऐसा बिल लाने के लिए किसने सलाह दी, यह मुझे नहीं मालूम. लेकिन, मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि यह बहुत ही गलत सलाह है. वसुंधरा जी से यह पूछा जाना चाहिए कि इस कदम से वे हासिल क्या करना चाहती हैं. मीडिया को अपना काम करने से अगर रोका जाता है, तो इसका अर्थ यह भी है कि जो लोग जनअधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनकोसजा देना है. ऐसे में मेरी राय तो यही है कि वसुंधरा जी को इस पर पुनर्विचार करने के बजाय विधानसभा में इसे वापस ले लेना चाहिए.
दूसरी बात यह है कि अगर सरकार यह प्रावधान कर भी देती है कि उसकी अनुमति से ही खबरें छपेंगी, तब वह सोशल मीडिया का क्या करेगी? वह सोशल मीडिया, जो आज संस्थागत मीडिया से कहीं दस गुना ज्यादा शक्तिशाली मीडिया है.
सोशल मीडिया के इस दौर में आज हर नागरिक एक मीडिया बन गया है. सोशल मीडिया को कुछ भी लिखने के लिए कोई कैसे रोक सकता है? और उसे रोका भी नहीं जाना चाहिए, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है. वसुंधरा सरकार को इस बारे में भी सोचना चाहिए था.
ऐसा ही काम साल 1980 में बिहार में जगन्नाथ मिश्रा की सरकार ने किया था. कुछ समय बाद राजीव गांधी सरकार ने भी ऐसा ही किया. लेकिन जन-दबाव के चलते दाेनों को अपने कदम वापस खींचने पड़े थे. अभी तो एडिटर्स गिल्ड का ही बयान आया है, आगे और भी बयान आयेंगे. मुझे यह भी विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें हस्तक्षेप करेंगे.
अध्यादेश के बचाव में राजस्थान सरकार क्या कह रही है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि सूचनाएं जब भी रोकी जाती हैं, तो इसीलिए रोकी जाती हैं कि कुछ छुपाना है. और कुछ छुपाने का काम वही करता है, जो कोई न कोई गलती किया हुआ होता है, या शासन में बैठा हुआ व्यक्ति अपने स्वार्थ में काम करता है.
ऐसा व्यक्ति ही भ्रष्ट होता है और इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. इसलिए वसुंधरा सरकार को यह बताना चाहिए कि उसे छुपाना क्या है, क्योंकि आज कुछ भी छुपनेवाला नहीं है. जो ऐसा सोचता है कि वह छुपा लेगा, तो उसे इस भ्रम से निकलकर यथार्थ में आना चाहिए. यथार्थ यह है कि जो कुछ भी आज छुपाया जायेगा, वह कल उजागर होगा ही और उसका दंड भी भुगतना पड़ेगा, क्योंकि सरकारें हमेशा नहीं रहतीं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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