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बयान में समाज की सच्चाई

अद्वैता काला वरिष्ठ टिप्पणीकार इस देश में किसी व्यक्ति को क्या खाना है और क्या पहनना है, यह किसी नियम-कानून या किसी विचाराधारा द्वारा तय नहीं किया जा सकता है. मौजूदा राजनीतिक और वैचारिक बहस के संदर्भ में संघ प्रमुख का बयान स्वागतयोग्य है. वे अनुभवी और दूरदर्शी सोच वाले व्यक्ति हैं और भारतीयता पर […]

अद्वैता काला

वरिष्ठ टिप्पणीकार

इस देश में किसी व्यक्ति को क्या खाना है और क्या पहनना है, यह किसी नियम-कानून या किसी विचाराधारा द्वारा तय नहीं किया जा सकता है. मौजूदा राजनीतिक और वैचारिक बहस के संदर्भ में संघ प्रमुख का बयान स्वागतयोग्य है.

वे अनुभवी और दूरदर्शी सोच वाले व्यक्ति हैं और भारतीयता पर उनकी समझ व्यापक है. हर किसी को अपना मानने की हमारी परंपरा रही है. आज जिन मुद्दों पर चर्चा हो रही है, सही मायनों में वही संघ की सोच है. लेकिन, एकतरफा एजेंडा चलानेवाले कुछ लोग संघ के आदर्शों को गलत अर्थों में प्रचारित करते रहे हैं. भागवत जी देश की समस्याओं, चुनौतियों और संभावनाओं से भलीभांति वाकिफ हैं. भारत की अंतरराष्ट्रीय मंच पर क्या भूमिका होगी और देश का रुख क्या होगा, उन्हें इसकी परख है.

जहां तक खान-पान और पहनावा तय करने की बात है, आजादी के बाद इसकी शुरुआत कांग्रेस ने ही की है.

ध्यान रहे कि गौ-हत्या को रोकने के लिए जो भी कानून बनाये गये, वे कांग्रेसी सरकारों द्वारा बनाये गये. यह काम दो-तीन साल में भाजपा सरकार आने के बाद नहीं तय हो गया है. संघ कोई राजनीति संगठन नहीं है, वह समाज में लोगों के बीच काम करनेवालों का समूह है. जब भागवत जी का ऐसा बयान आता है, तो वह विविधता आधारित समाज के नजरिये से ही होता है. विपक्षी दल इस बयान का कोई गलत अर्थ नहीं निकाल सकते हैं. दक्षिणपंथी, वामपंथी या उदारवादी किसी भी विचाराधारा तक यह मामला सीमित नहीं है और न ही इन बयानों में किसी प्रकार राजनीतिक लाभ छिपा है.

तथाकथित गौरक्षकों के मामले में भागवत जी की प्रतिक्रिया बिल्कुल स्पष्ट रही है, उन्होंने समाज में किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध किया है.

लेकिन, एक साजिश के तहत अराजक तत्वों की हरकतों को संघ की विचारधारा से जोड़ दिया जाता है. इस मामले में दत्तात्रेय होसबोले ने भी स्पष्ट तौर पर कहा था कि गौ-रक्षा के नाम पर किसी को भी कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है. ज्यादातर विपक्षी राजनीतिक दल हर घटना के पीछे लिंक खोजने की जुगत में रहते हैं. ये लोग संघ के शीर्ष पदाधिकारियों की बात को नजरअंदाज कर अपने एजेंडे के मुताबिक काम करते हैं. गौरी लंकेश के मामले में भी हुआ. बिना किसी जांच-पड़ताल के ये लोग फैसला सुनाने लगे.

हिंदुत्ववाद यानी हिंदुइज्म पाश्चात्य सिद्धांत है. यह एक प्रकार से अंग्रेजों की देन है. इस बात को सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि यह जीवन का एक तरीका है.

जीवन के तरीके का मतलब है कि जब समाज और देश की परिस्थितियां बदलती हैं, तो हम अपने मूल्यों के साथ परिस्थितियों के मुताबिक स्वयं को ढालते हैं. इतिहास देखें, तो ऐसा सदियों से होता आया है. हमारा दर्शन अलग है, हम किसी के द्वारा तय सिद्धांतों पर निर्भर नहीं हैं. हमारे पास कोई पहले से लिखी गयी किताब नहीं है, जो हमारी हर बात को तय करे. हमारे मूल्यों को तय करने के लिए कोई एक धर्मगुरु नहीं होता. हिंदुत्ववाद जैसी कोई चीज नहीं है, ‘वाद’ पश्चिम की धारणा है.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लोगों ने गलत तरीके से व्याख्या की है. ये लोग पहले से ही धारणा बनाकर बैठे हैं कि यदि आप इसमें विश्वास करते हैं, तो आपकी सोच प्रतिगामी होगी और आप रूढ़िवादी होंगे. यह एक प्रकार से साजिश की गयी है, जबकि हमारी संस्कृति खुली सोच वाली और हर तबके को जोड़नेवाली है. हमने कई पुरानी प्रथाओं को समाज से निकाल बाहर फेंका है. हमने स्वयं सुधार किया है, किसी ने बाहर से आकर नहीं किया.

हिंदूनेस नया विचार नहीं है, बल्कि लोगों में अब इसके प्रति जागरूकता बढ़ रही है. लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति से जुड़ने और समझने लगे हैं.

इससे समाज में उदारता और सहनशीलता आयेगी. विदेशों में प्रवास के दौरान मैंने गौर किया है कि लोग हमारी संस्कृति को समझना चाहते हैं. दुर्भाग्य से हमारे देश में मॉडर्न बनने के लिए अपनी संस्कृति को छोड़ने को कहा जाता है. यह बिल्कुल सही है कि जो कुछ भी अच्छा उसे सीखना चाहिए, उससे जुड़ना चाहिए, लेकिन अपनी संस्कृति को बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहिए. अपनी पहचान के साथ आत्मविश्वास कायम रह सकता है.

अमेरिका में मैंने देखा है कि लोग दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र होने पर गौरवान्वित महसूस करते हैं, जबकि हमारे पास कहीं बड़ा गौरवपूर्ण इतिहास है. अमेरिकी गर्व से इसे दुनिया को अपनी देन बताते हैं और हम अपनी संस्कृति पर बात नहीं करना चाहते हैं. भागवत जी का बयान समाज के लिए स्वीकार्य है. कोई राजनीतिक विचाराधारा इसे स्वीकार करे या न करे, यह ज्यादा मायने नहीं रखता.

(बातचीत : ब्रह्मानंद मिश्र)

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