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Friday, March 29, 2024

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स्वास्थ्य व्यवस्था की दुर्दशा

प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया स्वतंत्रता दिवस पर रेडियो गाना बजा रहा था- ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की…’ मेरा मन बार-बार गोरखपुर के उन बच्चों की तरफ जा रहा था, जो हिंदुस्तान की झांकी देखे बिना ही विदा हो गये. बिना इस मिट्टी से तिलक किये, बस ऑक्सीजन की कमी से […]

प्रो योगेंद्र यादव

राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

स्वतंत्रता दिवस पर रेडियो गाना बजा रहा था- ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की…’ मेरा मन बार-बार गोरखपुर के उन बच्चों की तरफ जा रहा था, जो हिंदुस्तान की झांकी देखे बिना ही विदा हो गये. बिना इस मिट्टी से तिलक किये, बस ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ गये. …ये धरती है बलिदान की!

मैं सोचने लगा. काश स्वास्थ्य के मुद्दे पर राजनीति होती! काश सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य विभाग के सामने धरने प्रदर्शन होते! काश संसद और विधानसभाओं में स्वास्थ्य बजट और परियोजनाओं पर हंगामे होते! अगर ये सब होता तो गोरखपुर की ‘दुर्घटना’ न होती.

गोरखपुर की त्रासदी पर बोला बहुत गया है, शायद उतना सोचा नहीं गया. चूंकि यह दुर्घटना योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में हुई, इसलिए सब योगी, भाजपा और उत्तर प्रदेश सरकार पर पिल पड़े हैं. बेशक उनकी लापरवाही अक्षम्य है, लेकिन सच यह है कि ऐसी दुर्घटना देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में कहीं भी हो सकती है. इसलिए, सिर्फ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तक चर्चा को सीमित करने के बजाय देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की दुर्दशा पर विचार करना होगा.

डॉक्टर की फीस और अस्पताल के बिल का खतरा आज देश के हर साधारण परिवार के सर पर तलवार की तरह मंडरा रहा है. घर-परिवार में एक बड़ी बीमारी होने से बहुत से परिवारों की कमर टूट जाती है.

शोधकर्ता बताते हैं कि गरीबी रेखा के ऊपर जीवन बसर करनेवाले परिवारों का गरीबी रेखा से नीचे गिरने का सबसे बड़ा कारण है परिवार में कोई बड़ी बीमारी. सरकार न तो सस्ता और अच्छा इलाज करवा पा रही है, न ही प्राइवेट इलाज में लोगों की मदद कर पा रही है. जिंदगी और मौत की लड़ाई में गरीब परिवार ही नहीं, खुशहाल परिवार भी बेबस है.

आजादी के बाद से एक औसत भारतीय की सेहत में सुधार हुआ है. कोई शक नहीं कि स्वास्थ्य सुविधाएं पहले से बहुत बढ़ी हैं. डॉक्टर और अस्पतालों की संख्या दस गुना से ज्यादा बढ़ी है, हालांकि अब भी जरूरत से बहुत कम है.

दवाओं के उत्पादन और मेडिकल जांच परीक्षण की सुविधाओं में भी विस्तार हुआ है. सरकार अक्सर इन आंकड़ों का गाजा-बाजा करके अपनी पीठ थपथपा लेती है. लेकिन, यह अर्द्धसत्य है. पूरा सच यह है कि औसत आयु बढ़ने और चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार से लोगों की तकलीफ कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ गयी है. औसत आयु बढ़ने और जन्म से कमजोर बच्चों के बचने से चिकित्सा सुविधाओं की जरूरत पहले से ज्यादा बढ़ गयी है. रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरत पूरी होते ही शिक्षा और स्वास्थ्य जीवन की अनिवार्यता बन जाते हैं.

स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धि से भी रोगों का इलाज करवाने की इच्छा और मजबूरी पैदा होती है. यानि सेहत और आर्थिक स्थिति बेहतर होने से अच्छी और सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत घटती नहीं, बढ़ जाती है.

इस जरूरत को पूरा करने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का विस्तार करना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पिछले कई दशकों से यह मांग चली आ रही है कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम-से-कम 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करे.

लेकिन, केंद्र और राज्य सरकारों का स्वास्थ्य पर कुल खर्च जीडीपी के 1 प्रतिशत के करीब अटका हुआ है. हमारे यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर जीडीपी का सिर्फ 1.2 प्रतिशत खर्च होता है, जबकि चीन में यह खर्च 2.9 प्रतिशत, ब्राजील में 4.1 प्रतिशत, ब्रिटेन में 7.8 प्रतिशत और अमेरिका में 8.5 प्रतिशत है.

स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती जरूरत, लेकिन सरकार की कंजूसी का एक ही नतीजा है- स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण. महानगर से लेकर कस्बे तक चारों ओर नये-नये अस्पताल व क्लिनिक कुकरमुत्ते की तरह उग आये हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गांव के 72 प्रतिशत मरीज और शहर के 79 प्रतिशत मरीज इलाज के लिए अब प्राइवेट डॉक्टर के पास जाते हैं.

गंभीर बीमारी में भी गांव के 58 प्रतिशत और शहर के 68 प्रतिशत मरीज अब प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होते हैं. प्राइवेट अस्पताल मनमानी फीस लेते हैं. एक औसत भारतीय परिवार के कुल खर्च का 7 प्रतिशत हिस्सा बीमारी के इलाज में लग जाता है. सरकार द्वारा या अपने पैसे से मेडिकल बीमा की सुविधा सिर्फ 18 प्रतिशत जनता तक पहुंच पायी है, बाकी सब भगवान भरोसे है.

इस हालात से मुक्ति तभी मिलेगी, जब स्वास्थ्य के मुद्दे का राजनीतिकरण होगा. यह सुझाव सुनकर बहुत लोगों को हैरानी होगी. लेकिन गौर करें, जब नेताओं को किसी मुद्दे पर चुनाव हारने का डर लगता है, तो सरकारें उस पर ध्यान देने को मजबूर होती हैं.

भूखमरी और महंगाई राजनीतिक मुद्दा बने, तो देशभर में राशन की दुकानें खुलीं. बिजली और सड़क चुनाव के मुद्दे बने, तो इन दोनों की स्थिति देशभर में सुधरी. इसलिए राजनीतिकरण से बचने के बजाय हर बड़े सवाल को राजनीति में उठाने की जरूरत है. ऐसा जब तक नहीं होगा, तब तक गोरखपुर जैसी त्रासदी होती रहेगी.अचानक मैंने गौर किया, रेडियो पर नया गीत बज रहा था- ‘इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के…’

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